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Tuesday, May 10, 2011

दुनिया के सबसे बड़े आतंकी का न्याय होना बाकी है

राजेंद्र प्रसाद सिंह कहिन - विदेश-ब्रह्मांड
आतंक का साम्राज्य अजर-अमर नहीं होता, उसका अंत होना तय है। अंतरराष्ट्रीय आतंक का पर्याय बन चुका ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान की सरजमीं पर अमेरिकी नौसेना कमांडो दस्ते के हाथों 2 मई को जिस तरह मारा गया, उससे तो यही जाहिर होता है। मुसोलिनी व हिटलर का दुखद अंत अब विश्व इतिहास का हिस्सा बन चुका है। हालांकि उनके आतंक का खौफ़ अभी भी दुनिया के ज़ेहन से मिटा नहीं है। और ओसामा तो अभी-अभी मरा है। जाहिर है उसका आतंक इतना जल्द मिटने वाला नहीं है। अमेरिका के खिलाफ ओसामा का 9/11 का इस्लामी जिहाद भी लोगों ने अचरज से देखा। आज उसकी मौत को भी लोग उसी अंदाज में देख रहे हैं।
जिस अमेरिका को अपने विश्व व्यापार केंद्र पर बड़ा दंभ था, वह क्षण भर में ही ताश के घर की तरह धरती पर छितर गया और वह असहाय सा देखता रहा। अपने सैन्य सामर्थ्‍य पर अमेरिका को भरोसा था, उस रोज उसकी पोल खुल गयी। भीषण आग की लपटों और धूल-धुंआ के लापरवाह बादलों को अमेरिकी साम्राज्य पर पसरते हुए सबने देखा। दौड़ते-भागते व गिरते-पड़ते लोगों की चीख-पुकार सबने सुनी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश पर अलकायदा के बर्बर हमले ने उसके मिथ्या दंभ को सिर्फ एक धक्का दिया कि पूरा अमेरिका दहल गया। हजारों निर्दोष लोग आतंकी हमले में मारे गये। उनके अपनों के आंसू ने धरती को सराबोर कर दिया। हमें तो उस रोज भी आश्चर्य नहीं हुआ था न आज ही। हां, निर्दोष लोगों की अप्राकृतिक मौत पर गहरा सदमा जरूर पहुंचा था। जो अमेरिका खुद को दुर्भेद्य समझता था, अलकायदा सरगना ओसामा ने यह साबित कर दिया कि उसका साम्राज्य भी दुर्भेद्य नहीं है, उसे ध्वस्त किया जा सकता है। अमेरिकी-जनद्रोही नीतियों के खिलाफ़ यह कोई जनक्रांति नहीं थी, यह एक आतंकी हमला था। जाहिर है कोई भी विवेक संपन्न इंसान ऐसे हमलों की तरफ़दारी नहीं कर सकता।
निर्दोष-निहत्थे इराकी अवाम पर जिस तरह मखमूर अमेरिका ने अपना कहर बरपाया, और वह आज भी वहां की धरती और आकाश को जिस तरह रौंद रहा है, उसे भी देख कर कष्ट होता है। अफगानिस्तान के रौंदे जाने का भी दर्द कम नहीं है। आज अमेरिका दुनिया में जो कर रहा है उसे भी हम जायज़ नहीं ठहरा सकते। कुदरत ने अपने ढंग से धरती पर लकीरें खीचीं हैं। जरूरत के हिसाब से उसने हर भूखंड को नदी, पहाड़ और मरुभूमि में बांटा है। कुदरत ने अपने हिसाब से सबको कुछ न कुछ दिया है- किसी को वन-संपदा तो किसी को जल संपदा। किसी को खनिज संपदा तो किसी को उर्वर भूमि। कुदरत ने अगर किसी को मरुभूमि दिया तो उसे हीरे-जवाहरात भी दिये हैं। कुदरत का संदेश स्पष्ट है-मिलजुल कर रहने का। मिल-बांट कर खाने का। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। और इसके लिए भाव-विनिमय का दरकार है न कि युद्ध का। जबकि अमेरिका अकेले ही दुनिया के समस्त सुख-साधनों पर अपना एकाधिकार चाहता है और इसके लिए जो वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। जाहिर है कुदरत के संदेश की अवज्ञा ही युद्ध और महाविनाश के कारण हैं। अमेरिका के आतंकी हमले की फेहरिस्त तो द्रौपदी के चीर से भी लंबी है। फिर भी कोई कृष्ण इस धरती की संतानों को बचाने को ले अब तक आगे नहीं आया! कसक तो हमें इसकी भी है। न्याय तो सबके लिए बराबर होना चाहिए। अमेरिका ने अपने ढंग से ओसामा का न्याय तो कर दिया, मगर अमेरिका का न्याय कौन करेगा?
सभी जानते हैं अमेरिका दुनिया का प्रथम परमाणु बम हमलावर राष्ट्र है। उसने अपने साम्राज्यवादी मनसूबे को ले अबतक कितने षड़यंत्र रचे। अनेक देशों पर हमले किये। वहां की शांति-समृद्धि को ध्वस्त किया। महाविनाश के बीज बोये। कुदरत प्रदत्त जल-वायु को उसने प्रदूषित किया। उर्बर भूमि को बंजर बनाया। पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ा। करोड़ों लोगों के प्राण लिए। अनगिनत मासूमों को अपंग बनाये। मां-बहनों की अस्मत लुटे। एक द्रौपदी की अस्मत को बचाने को ले कृष्ण ने महाभारत रच डाला। अब दुनिया के सताए व सोये हुए लोगों के उठ खड़े होने की बारी है। दुश्मन के खिलाफ़ जिस रोज करोड़ों कृष्ण तन कर खड़े हो जायेंगे उसी रोज मानव-जीवन के महाकाव्य की रचना होगी। न तो हम अमेरिका के न्याय के पैरोकार हो सकते हैं न ही इस्लामी जिहाद का सर्मथन ही कर सकते। हमें यह समझना होगा, दोनों ही विश्व-शांति के लिए घातक हैं। आज दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है उसे भाववादी ईश-कृपा कह कर संतोष कर लेंगे। शांति व सकून के लिए कुछ लोग हवन और यज्ञ करेंगे। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। दुनिया में वियतनाम ने पहली बार अमेरिका को शिकस्त दी थी। लगभग 20 साल तक वियतनामी अवाम से लड़ने के बाद अमेरिका को दबे पांव लौटना पड़ा था। उसके विमानों ने जम कर बम बरसाये। पूरे वियतनाम को रौंद डाला। जिन हाथों में कलम व किताबें होनी चाहिए उन हाथों ने अपनी धरती, मां-बहनों की अस्मत की रक्षा को ले बंदूकें थाम लीं। तब वियतनाम के प्राण पुरूष 80 साल के हो-ची मिन्ह ने कहा था, 'जब तक हमारे शरीर में खून का एक भी कतरा रहेगा तब तक हम अमेरिका के खिलाफ़ लड़ते रहेंगे।' उन्होंने लड़कर दिखाया भी। अन्याय-अविचार अथवा थोपे गये युद्ध के खिलाफ़ यह भी एक जंग का तरीका है। जाहिर है अमेरिका अधिक खतनाक और दुर्दांत है। वह आतंक का प्रायोजक है।
अमेरिका ने ही अपने साम्राज्यवादी मंसूबे को अंजाम देने के लिए ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया, उसे हथियार व धन दिए, हर तरह की सुरक्षा व सहूलियतें उपलब्ध कराए। सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया की नज़रों में उसे नायक बनाया। ओसामा की जीवटता व बहादुरी पर कसीदे कसे। इस बात से पूरी दुनिया वाकिफ़ है कि एक समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तुलना अमेरिका व मैक्सिको की दुर्दांत सेनाओं से दशकों तक लड़ने वाले अमेरिका के मूल निवासी इंडियन के अजेय योद्धा जेरोमिनो से की थी। जब तक लादेन अमेरिकी हितों की रक्षा करता रहा, उसके इशारे पर चलता व खून-खराबा करता रहा तब तक वह अमेरिका का चहेता बना रहा। वह योद्धा रहा। ओसामा में उसे कोई खोट नज़र नहीं आया। और जब उसने अपने आका के नाजायज़ हुक्म को मानने से इनकार कर दिया और तन कर खड़ा हो गया तो अमेरिका ने उसे दुनिया का मोस्ट वांटेड आतंकी घोषित कर दिया। अमेरिका प्रारंभ से ही अपनी सहूलियत के हिसाब से हर चीज़ की पड़ताल करता है। उसकी व्याख्या करता है। यही कारण है कि विश्व व्यापार केंद्र के धाराशाही होने से बौखलाए जार्ज डब्ल्यू बुश ने पूरी दुनिया को दो खेमों में बांटते हुए साफ शब्दों में यह एलान कर दिया कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या आतंकवादियों के साथ हैं। अर्थात जो देश अमेरिका की अराजक नीतियों का समर्थन नहीं करेंगे वे आतंकी राष्ट्र घोषित कर दिये जायेंगे।
26/11 के मुंबई आतंकी हमले के गुनाहगारों के मामले में अमेरिका की चुप्पी और पाकिस्तान की सरजमीं पर ओसामा का मारा जाना काफी कुछ कह जाता है। आज की तारीख में पाकिस्तान क्या सार्वभौम राष्ट्र है? हमें ऐसा नहीं लगता। एक समय पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारत के तत्कलीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को संबोधित कर कहा था, 'पाकिस्तान ने कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं ...'। पाकिस्तान में आज जिस तरह अमेरिकी निशाचर विचरण कर रहे हैं उसे देखते हुए हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने सिर्फ चूड़ियां ही नहीं बल्कि साड़ी भी पहन रखी है। पाकिस्तानी अवाम को यह समझना चाहिए कि जो लोग सत्ता-सलतनत और धन की लालच में आतंकियों को पनाह दे रहे हैं और राष्ट्र की अस्मत अमेरिका के हाथों सौंप रहे हैं वे कतई उसके रहनुमा नहीं हो सकते। पाकिस्तान की धरती को आतंकवाद से मुक्त कराने की जिम्मेवारी अमेरिका की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की होनी चाहिए। पाकिस्तान की मिट्टी में जमहूरियत दिखनी चाहिए। यह हम दोनों मुल्कों की शांति-समृद्धि और स्थायित्व के लिए नितांत ज़रूरी है। भारत और पाकिस्तान अगर साथ-साथ चलने की ठान लें तो अमेरिका के लिए एक बड़ी समस्या उठ खड़ी हो जायेगी। हमें यह समझना चाहिए कि अमेरिका का मकसद आतंकवाद को खत्म करना नहीं है, सिर्फ लड़ते रहना है। युद्ध होंगे तभी तो उसके हथियार बिकेंगे, जबकि हमारा मकसद युद्ध नहीं बल्कि शांति व समृद्धि है। और यह तभी संभव हो सकता है जब दुनिया से सभी तरह के आतंकवाद का खत्मा हो। हमारी भलाई इसी में है कि अमेरिका के निहितार्थ को हम समझें। फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि ओसामा अपने ही गिरोह के खूनी संघर्ष का शिकार हो गया। अमेरिका का न्याय होना बाकी है।
लेखक डा. राजेंद्र प्रसाद सिंह वरिष्‍ठ पत्रकार तथा पश्चिम बंगाल से प्रकाशित आपका तिस्‍ता हिमालय के संपादक हैं.

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