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Wednesday, May 18, 2011

नाम विकास का,शोषण किसान का

यह एक किसान और उसकी भूमि की वही पुरानी कहानी है। सरकार ने ग्रेटर नोएडा में हरे-भरे खेत अधिग्रहीत किए। ग्रेटर नोएडा दिल्ली का निकटवर्ती इलाका है। यह अधिग्रहण सार्वजनिक मकसद से यमुना एक्सप्रेस वे के विकास हेतु निजी क्षेत्र में सर्वाधिक बोली लगाने वाले को आवंटित करने के लिए उठाया गया। अदायगी बाजार भाव के आस-पास तक भी कहीं नहीं थी। वस्तुत: तथ्य यह है कि किसान को 3,200 रुपए का एक चौथाई- 800 रुपए प्रति वर्ग मीटर ही मिला। डेवलेपर उसे 11,000 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से बेच रहे हैं।
आक्रोशित किसानों ने दवाब बनाने के लिए दो अधिकारियों को हिरासत में ले लिया। इसके बाद किसानों और पुलिस में संघर्ष हुआ। दोनों ओर के दो-दो अर्थात् चार लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को कार्रवाई की छूट दे दी। किसानों को उनके घरों से भगाया गया। जिससे स्थिति और बिगड़ गयी।
इस त्रासदी से सुविदित नीतिगत प्रश्न उठता है: जो खेत खाद्यान्न उगाते हैं, उन्हें विकास कहां तक निगल सकता है और वह भी नाम मात्र का मुआवजा देकर? मेरा विचार था कि सरकार ने अपनी नीति बदल दी है और यदि किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहता तो उसे वह अब अपने पास रख सकता है। स्पष्ट ही ऐसा हुआ नहीं। केंद्र अथवा राज्यों का अपना-अपना एजेंडा है जो ऐसे आश्वासनों की अनदेखी करता है।
अन्ततोगत्वा नई दिल्ली अब जाग गई लगती है। ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख ने कहा है कि 1894 का अधिग्रहण अधिनियम संशोधित किया जा रहा है। मुझे कहना ही होगा कि यह आश्वस्तकारक है। सार्वजनिक उद्देश्य को पुन: परिभाषित किया जाएगा और बाजार भाव भी आश्वस्त होगा। जब विधेयक के प्रारूप का पुनर्लेखन हो तो सरकार को चाहिए कि वह जिस औद्योगिक इकाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है उसमें भू-स्वामियों की एक प्रकार की भागीदारी के लिए शेयरों के आवंटन का प्रावधान करे।
मगर ग्रेटर नोएडा के मामले में समापन मौतों की जांच मात्र पर ही नहीं हो जाना चाहिए। रोग गहन है, वह मात्र भूमि के अधिग्रहण ही नहीं अपितु किसानों की आय में क्षीणता से भी संबंधित है। वास्तव में कृषि भूमि क्षेत्र में क्रियाकलाप दयनीय है। दूसरे शब्दों में यह कि देहात में दुखद हालात हैं। ग्रामीण विकास पर नई दिल्ली को बयान तो अनेक हैं, किंतु परिदृश्य में परिवर्तन कोई खास नहीं हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अक्टूबर में अधिनियम में बदलाव का जो वादा किया था वह भी आगे नहीं बढ़ता यदि किसान आंदोलन की राह नहीं अपनाते।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार, 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या 2008 की संख्या से 1,172 अधिक है। यदि भाग करके देखें तो यह अनुमानत: 50 व्यक्ति प्रतिदिन का आंकड़ा आता है। मुझे यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में किसान ही अग्रिम मोर्चे पर रहे थे। आज वे अपनी आजीविका ज्यों-त्यों चला पाने की जटिलता झेल रहे हैं। और उनमें से अनेक निराश होकर आत्महत्या का पथ अपना रहे हैं। किसानों ने ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति हेतु अपनी सब कुछ दांव पर लगाया था, त्याग, बलिदान का पथ अपनाया था। उन्होंने यही कामना की थी कि स्वतंत्र भारत में उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिलेगी। नई दिल्ली को यह अनुभूति होनी चाहिए कि देहातों में आंदोलन उभर रहा है और भीतर जो लावा दहक रहा है, वह कभी भी विस्फोटित हो सकता है।
एक किसान- जिसने आत्महत्या की राह अपनाई, उसकी टिप्पणी मर्मस्पर्शी है। 24 मार्च, 2008 को एक 50 वर्षीय किसान श्रीकांत कालम ने, जिसके पास अकोला, महाराष्ट्र में पांच एकड़ भूमि थी, खुद की फांसी लगाकर मौत का आलिंगन किया था, निम्नलिखित काव्य पक्तियां लिख कर छोड़ी थी:-
मेरी जीवन अलग है।
मेरी जीवन होगा बेमौसम की वर्षा सा।
काली धरती में कपास मेरे लिए एक कविता के तुल्य है।
इसकी जड़ें गन्ने सरीखी मधुर।
कृषि भूमि संबंधी संकट पर नई दिल्ली के इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने एक अध्ययन किया था, जिसमें कहा गया है कि पशुधन से होने वाली आमदनी को मिला लें तो भी कृषि आय जुताई पर आने वाली लागत और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज अपर्याप्त ही है। अपने बाजार में श्रम से वह जो कुछ पाते हैं वह भी शोषण के चलते अति अल्प ही है। मुझे स्मरण हो जाता है कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से जो खुद एक बड़े भू-स्वामी हैं, मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आप देश में सर्वेक्षण करा लें तो आप पाएंगे कि हर किसान कर्जदार है।
गत दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि औसतन सात प्रतिशत थी, जिसमें कृषि वृद्धि 1.6 प्रतिशत मात्र दर्ज हुई थी। दर असल विगत 15 वर्षों से भी अधिक से देश में कृषि वृद्धि या विकास में निश्चलता सी ही है। अस्सी के दशक में यह 3.3 प्रतिशत थी, नब्बे के दशक में गिरकर दो प्रतिशत पर आ गई और अब खिसक कर 0.4 प्रतिशत रह गई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रतिपादन से संबंधित कृषि संबंधी संचालन समिति ने स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के बाद कृषि उत्पादन में इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। खाद्यान्नों के उत्पादन में इस स्थिति से न तो योजना आयोग को अथवा सरकार को ही भ्रमित होना चाहिए। गिरावट का नतीजा यह है कि 2011 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पचास के दशक में प्राप्त स्तर पर होगी। कैलोरीज इनटेक (ग्रहण) 2153 (1993-94) से गिरकर 2047 (2004-05) पर ग्रामीण भारत में आ गयी है और 2071 (1993-94) से 2026 (2004-05) पर शहरी भारत में। खाद्य असुरक्षा की चेतावनी सूचक परिणाम स्वयं को भूख से होने वाली मौतों में दर्शा रहे हैं और हमारी आबादी की बढ़ोत्तरी में भी।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुर्दमनीय संकट से ग्रसित है। इस स्थिति पर सरकार की प्रतिक्रिया ऋण माफी, प्रस्तावित खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक आदि लोक लुभावन पगों के उठाने की रही है और हमारी कृषि को विश्व बाजार ताकतों व कारपोरेट क्षेत्र के लिए खोलने तथा नव उदार सिलसिले पर जोर देना जारी है। इससे संकट और उभरा है और यह धारणा बनी है कि कृषि भूमि संबंधी संकट वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है और इन नीतियों के पलटने से स्थिति ठीक रहेगी।
वस्तुत: यह जरूरी है कि नव-उदार नीति फे्रम का प्रतिरोध हो और उसे पलटा जाए। मगर संकट का तो एक खासा लम्बा इतिहास है, उसकी जड़ें गहरी हैं। गत तो दशकों की नीतियों को पलट देने भर से सदियों से खेतिहर आबादी के बहुमत से जो नाइंसाफी हुई है उसका निधन नहीं हो सकता। कृषि भूमि जन्य संकट की जड़ों को उस विकृत पूंजीवादी विकास प्रक्षेप-पथ में खोजना होगा जो हमें अपने औपनिवेशिक अतीत से मिला है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जो अपनी सोच में समाजवादी थे, वह कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने सत्रह वर्ष तक देश पर शासन किया था। किंतु वह औद्योगीकरण पर आसक्त हो गए थे।
मैं मानता हूं कि कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उद्योग आवश्यक है परंतु संतुलन होना चाहिए। नेहरू ने भी यह अनुभव किया था परंतु विलम्ब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो शीर्ष अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने अभी तक भी ऐसा महसूस नहीं किया। कोई भी उनके सात वर्षों के शासन की परिणतियों को देख सकता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वे जितना उधार लेते हैं, उससे कहीं कम उपार्जित कर पाते हैं। इससे हर भारतीय का सिर लज्जा से झुक जाना चाहिए। भूमि सुधार क्रांतिकारी पग हो सकते हैं उस तरह की अर्थव्यवस्था के हेतु जो मनमोहन सिंह देश पर थोप रहे हैं। किंतु वह भूमि संबंधी विकास में आए ठहराव पर पार-पाने के लिए तो कुछ कर ही सकते हैं।

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