Wednesday, May 25, 2011
उम्र के साथ परिपक्व होते हैं पति-पत्नी के संबंध
जब आदमी चालीस के दशक में पहुंचता है और जीवन में अर्जित अपनी उपलब्धियों का जायजा लेता है तो महसूस करता है कि बीस और तीस के दशकों में उसने जो स्वप्न संजोए थे वो सब ऐसे ही रह गये। थकान, तनाव और सफेद होते सिर के बाल ये सब मिलकर उसकी अपने बारे में बनायी तस्वीर को चुनौती देते हैं। उसकी चेतना में तेजी से आता हुआ बुढ़ापा उसे सुई-सी चुभाता है और उसे भयभीत करता है कि अब वह युवा नहीं रहा। चालीस से पचास साल की औरतें भी उम्र के इस दौर में कुछ खास किस्म के सेक्स संबंधी परिवर्तनों से गुजरती हैं और अकसर वे अपनी सेक्स की इच्छा को गहराई से जानना चाहती हैं। इस उम्र में बहुत सारी औरतें एक ऐसी कुंठा के दौर से गुजरती हैं जब उन्हें लगता है कि यौवन काल में गलत धारणाओं के कारण और बाद में गृहस्थी के दबाव के कारण वे सेक्स का भरपूर आनंद नहीं ले पाईं और उम्र के इस दौर में आने पर उन्हें कुंठा होने लगती है। उन्हें सबसे बड़ी कुंठा यह होती है कि उन्होंने जीवन के सुनहरे समय को यूं ही गवां दिया। उम्र के इस दौर में सेक्स की तीव्र इच्छा को अपने जीवन साथी के सामने प्रकट करने के बजाव इसे छिपाती हैं। उम्र के इस पड़ाव में पुरुष औरत के शारीरिक सौन्दर्य की बात नहीं करते बल्कि अच्छे मित्र की बात करते हैं। इस उम्र में औरतें एक आदर्श पुरुष में मधुरता और सज्जनता ढूंढती हैं। इस उम्र में लोग आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं और उनकी भावनाएं कोमल हो जाती हैं। इस उम्र में जीवन साथी संबंधी हमारी बदलती इच्छाएं, आकांक्षाएं और अपेक्षाएं हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। स्पष्ट रूप से जीवन के अनुभवों से हम जीवन से समझौता करने और कुछ समस्याओं के साथ जीना सीख लेते हैं। समझौता करने का अर्थ यह नहीं कि उन सारे मुद्दों को छोड़ दिया जाए जिन पर हमारे मतभेद हों। इस उम्र में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अपने क्रोध पर काबू पाना सीखें और इस बात को ध्यान में रखिए कि कुछ निराशा और कुछ क्रोध जीवन के सामान्य हिस्से हैं और बहुत अच्छे संबंधों में भी ये चीजें पैदा होती हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करना छोडि़ए। वैवाहिक जीवन के अधिकांश झगड़े इसीलिए पैदा होते हैं और इसका परिणाम सिर्फ क्रोध और कुंठा है। क्रोध किसी समस्या का सूचक है। जीवन साथी के क्रोध को यों ही मत टालिए। उस पर ध्यान दीजिए। अगर इस क्रोध पर आप ध्यान दें और इसके कारणों की तह तक पहुंचने का प्रयास करें तो आप इससे उत्पन्न होने वाली ढेर सारी समस्याओं से बच सकती हैं।
Saturday, May 21, 2011
वेश्यावृत्ति की कमाई से करते हैं पढ़ाई
बर्लिन
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में विश्वविद्यालय के छात्र पढ़ाई-लिखाई का खर्च पूरा करने के लिए वेश्यावृत्ति को आमदनी का सही साधन मानते हैं।
बर्लिन अध्ययन केन्द्रों का सर्वेक्षण करने के बाद यह बात सामने आई कि बर्लिन में विश्वविद्यालय के हर तीन छात्रों में एक छात्र ऐसा होता है जो पढऩे-लिखने का खर्च पूरा करने के लिए वेश्यावृत्ति को अच्छा जरिया मानता है।
पेरिस और कीव से अगर बर्लिन की तुलना की जाए तो पढ़ाई के खर्च का इंतजाम करने के लिए वेश्यावृत्ति अपनाने वाले छात्रों की संख्या ज्यादा है। पेरिस में यह आंकड़ा 29.2 प्रतिशत है जबकि कीव में 18.5 प्रतिशत छात्र पढ़ाई के लिए आर्थिक प्रबंध का जरिया वेश्यावृत्ति को मानते हैं।
बर्लिन के 3200 छात्रों का सर्वेक्षण करने पर उनमें से चार प्रतिशत ने कहा कि उन्होंने किसी न किसी तरीके से सेक्स में हिस्सा लिया है। इनमें से कइयों ने कहा कि या तो वे वेश्यावृत्ति का धंधा करते हैं या कामोत्तेजक नृत्य अथवा इंटरनेट शो आदि में भाग लेते हैं।
वेश्यावृत्ति पर अध्ययन करने वाले लेखक इसके नतीजे जानकार हतप्रभ रह गए। उन्होंने कहा कि छात्र वेश्यावृत्ति के बारे में अक्सर कई बार सुना गया मगर उन्हें इस संबध में खास जानकारी नहीं थी कि शिक्षा के लिए भी वेश्यावृत्ति की जाती है।
एक विश्वविद्यालय की 26 वर्षीय छात्रा ईवा बलुमेंसचेइन ने बताया कि अच्छा खासा पैसा मिलने के कारण छात्र वेश्यावृत्ति का रास्ता अपनाते हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा में सुधार होने के कारण छात्रों पर काम का भार बढ़ गया है। उनकी फीस में भी काफी वृद्धि हुई है जिसकी वजह से छात्रों के पास पैसा कमाने के लिए वक्त नहीं है और नतीजतन वे वेश्यावृत्ति कर रहे हैं।
अध्ययन के अनुसार वेश्यावृत्ति में लगे 30 प्रतिशत छात्रों पर कर्ज है। इनमें से 18 प्रतिशत का कहना है कि जो कर्ज के बोझ से लदे हैं वे सेक्स वर्क को आमदनी का साधन मानते हैं।
Wednesday, May 18, 2011
आखिरी बार दिखेगी सचिन-वॉर्न की मशहूर जंग
यदि आप क्रिकेट के दो दिग्गजों सचिन तेंदुलकर और शेन वॉर्न के बीच जनवरी 1992 से शुरू हुई मशहूर क्रिकेटिया जंग का आखिरी बार गवाह बनना चाहते हैं तो शुक्रवार को मुंबई इंडियन्स और राजस्थान रॉयल्स के बीच होने वाला आईपीएल मैच देखना न भूलें।
तेंदुलकर और वॉर्न के बीच क्रिकेटिया जंग के कई किस्से रहे हैं। इन पर 20 मई के बाद विराम लग जाएगा क्योंकि 41 वर्षीय वॉर्न ने सभी तरह की क्रिकेट से संन्यास ले लिया है और वह इस सत्र के बाद इंडियन प्रीमियर लीग में भी नहीं खेलेंगे।
क्रिकेट के दोनों महारथी पिछले 19 साल में कई अवसरों पर आमने सामने हुए। तेंदुलकर ने इस ऑस्ट्रेलियाई स्पिनर को दिन में तारे दिखाने में कसर नहीं छोड़ी तो वॉर्न ने भी कुछ अवसरों पर अपनी लेग ब्रेक से भारत के स्टार बल्लेबाज को परेशानी में डाला। यह अलग बात है कि इस जंग में अधिकतर अवसरों पर तेंदुलकर ने ही बाजी मारी।
इस मशहूर जंग को लेकर भारतीय टीम में तेंदुलकर के साथी और राजस्थान रॉयल्स में वॉर्न के साथ खेलने वाले द्रविड़ भी काफी रोमांचित है। उन्होंने कहा कि वे दोनों महान खिलाड़ी हैं। यदि हम इतिहास देखें तो इस पर सहमत हो जाएंगे कि दोनों दिग्गज खिलाड़ी हैं। महान क्रिकेटरों के बीच आपस में यह दिलचस्प मुकाबला होगा। प्रत्येक इस तरह का मुकाबला देखना चाहता है।
तेंदुलकर ने वॉर्न के सामने कई यादगार पारियां खेली। इनमें मार्च 1998 में चेन्नई में दूसरी पारी में खेली गई नाबाद 155 रन की पारी भी शामिल है। तेंदुलकर को इस मैच की पहली पारी में वॉर्न ने चार रन पर मार्क टेलर के हाथों कैच करा दिया था लेकिन भारतीय दिग्गज ने दूसरी पारी में इसका बदला चुकता कर दिया। उन्होंने वॉर्न को निशाने पर रखकर भारत को 179 रन से जीत दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। वॉर्न ने उस पारी में 30 ओवर में 122 रन लुटाए थे।
चेन्नई में ही 2001 की ऐतिहासिक सीरीज़ में उन्होंने फिर से वॉर्न को निशाने पर रखकर 126 रन बनाए जबकि ऑस्ट्रेलियाई स्पिनर 42 मैच में 140 रन दे गया। वन डे में शारजाह में कोका कोला कप फाइनल में तेंदुलकर की 134 रन की पारी को भला कौन भूल सकता है। वॉर्न ने तब 10 ओवर में 61 रन लुटाए और भारत छह विकेट से मैच जीत गया था। इंदौर में 2001 में जब भारत 18 रन से जीता था तो तेंदुलकर ने वॉर्न की गेंदों के खूब धुर्रे उड़ाए और 139 रन बनाए। वॉर्न ने तब 64 रन लुटाए थे।
नाम विकास का,शोषण किसान का
यह एक किसान और उसकी भूमि की वही पुरानी कहानी है। सरकार ने ग्रेटर नोएडा में हरे-भरे खेत अधिग्रहीत किए। ग्रेटर नोएडा दिल्ली का निकटवर्ती इलाका है। यह अधिग्रहण सार्वजनिक मकसद से यमुना एक्सप्रेस वे के विकास हेतु निजी क्षेत्र में सर्वाधिक बोली लगाने वाले को आवंटित करने के लिए उठाया गया। अदायगी बाजार भाव के आस-पास तक भी कहीं नहीं थी। वस्तुत: तथ्य यह है कि किसान को 3,200 रुपए का एक चौथाई- 800 रुपए प्रति वर्ग मीटर ही मिला। डेवलेपर उसे 11,000 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से बेच रहे हैं।
आक्रोशित किसानों ने दवाब बनाने के लिए दो अधिकारियों को हिरासत में ले लिया। इसके बाद किसानों और पुलिस में संघर्ष हुआ। दोनों ओर के दो-दो अर्थात् चार लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को कार्रवाई की छूट दे दी। किसानों को उनके घरों से भगाया गया। जिससे स्थिति और बिगड़ गयी।
इस त्रासदी से सुविदित नीतिगत प्रश्न उठता है: जो खेत खाद्यान्न उगाते हैं, उन्हें विकास कहां तक निगल सकता है और वह भी नाम मात्र का मुआवजा देकर? मेरा विचार था कि सरकार ने अपनी नीति बदल दी है और यदि किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहता तो उसे वह अब अपने पास रख सकता है। स्पष्ट ही ऐसा हुआ नहीं। केंद्र अथवा राज्यों का अपना-अपना एजेंडा है जो ऐसे आश्वासनों की अनदेखी करता है।
अन्ततोगत्वा नई दिल्ली अब जाग गई लगती है। ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख ने कहा है कि 1894 का अधिग्रहण अधिनियम संशोधित किया जा रहा है। मुझे कहना ही होगा कि यह आश्वस्तकारक है। सार्वजनिक उद्देश्य को पुन: परिभाषित किया जाएगा और बाजार भाव भी आश्वस्त होगा। जब विधेयक के प्रारूप का पुनर्लेखन हो तो सरकार को चाहिए कि वह जिस औद्योगिक इकाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है उसमें भू-स्वामियों की एक प्रकार की भागीदारी के लिए शेयरों के आवंटन का प्रावधान करे।
मगर ग्रेटर नोएडा के मामले में समापन मौतों की जांच मात्र पर ही नहीं हो जाना चाहिए। रोग गहन है, वह मात्र भूमि के अधिग्रहण ही नहीं अपितु किसानों की आय में क्षीणता से भी संबंधित है। वास्तव में कृषि भूमि क्षेत्र में क्रियाकलाप दयनीय है। दूसरे शब्दों में यह कि देहात में दुखद हालात हैं। ग्रामीण विकास पर नई दिल्ली को बयान तो अनेक हैं, किंतु परिदृश्य में परिवर्तन कोई खास नहीं हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अक्टूबर में अधिनियम में बदलाव का जो वादा किया था वह भी आगे नहीं बढ़ता यदि किसान आंदोलन की राह नहीं अपनाते।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार, 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या 2008 की संख्या से 1,172 अधिक है। यदि भाग करके देखें तो यह अनुमानत: 50 व्यक्ति प्रतिदिन का आंकड़ा आता है। मुझे यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में किसान ही अग्रिम मोर्चे पर रहे थे। आज वे अपनी आजीविका ज्यों-त्यों चला पाने की जटिलता झेल रहे हैं। और उनमें से अनेक निराश होकर आत्महत्या का पथ अपना रहे हैं। किसानों ने ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति हेतु अपनी सब कुछ दांव पर लगाया था, त्याग, बलिदान का पथ अपनाया था। उन्होंने यही कामना की थी कि स्वतंत्र भारत में उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिलेगी। नई दिल्ली को यह अनुभूति होनी चाहिए कि देहातों में आंदोलन उभर रहा है और भीतर जो लावा दहक रहा है, वह कभी भी विस्फोटित हो सकता है।
एक किसान- जिसने आत्महत्या की राह अपनाई, उसकी टिप्पणी मर्मस्पर्शी है। 24 मार्च, 2008 को एक 50 वर्षीय किसान श्रीकांत कालम ने, जिसके पास अकोला, महाराष्ट्र में पांच एकड़ भूमि थी, खुद की फांसी लगाकर मौत का आलिंगन किया था, निम्नलिखित काव्य पक्तियां लिख कर छोड़ी थी:-
मेरी जीवन अलग है।
मेरी जीवन होगा बेमौसम की वर्षा सा।
काली धरती में कपास मेरे लिए एक कविता के तुल्य है।
इसकी जड़ें गन्ने सरीखी मधुर।
कृषि भूमि संबंधी संकट पर नई दिल्ली के इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने एक अध्ययन किया था, जिसमें कहा गया है कि पशुधन से होने वाली आमदनी को मिला लें तो भी कृषि आय जुताई पर आने वाली लागत और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज अपर्याप्त ही है। अपने बाजार में श्रम से वह जो कुछ पाते हैं वह भी शोषण के चलते अति अल्प ही है। मुझे स्मरण हो जाता है कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से जो खुद एक बड़े भू-स्वामी हैं, मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आप देश में सर्वेक्षण करा लें तो आप पाएंगे कि हर किसान कर्जदार है।
गत दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि औसतन सात प्रतिशत थी, जिसमें कृषि वृद्धि 1.6 प्रतिशत मात्र दर्ज हुई थी। दर असल विगत 15 वर्षों से भी अधिक से देश में कृषि वृद्धि या विकास में निश्चलता सी ही है। अस्सी के दशक में यह 3.3 प्रतिशत थी, नब्बे के दशक में गिरकर दो प्रतिशत पर आ गई और अब खिसक कर 0.4 प्रतिशत रह गई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रतिपादन से संबंधित कृषि संबंधी संचालन समिति ने स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के बाद कृषि उत्पादन में इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। खाद्यान्नों के उत्पादन में इस स्थिति से न तो योजना आयोग को अथवा सरकार को ही भ्रमित होना चाहिए। गिरावट का नतीजा यह है कि 2011 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पचास के दशक में प्राप्त स्तर पर होगी। कैलोरीज इनटेक (ग्रहण) 2153 (1993-94) से गिरकर 2047 (2004-05) पर ग्रामीण भारत में आ गयी है और 2071 (1993-94) से 2026 (2004-05) पर शहरी भारत में। खाद्य असुरक्षा की चेतावनी सूचक परिणाम स्वयं को भूख से होने वाली मौतों में दर्शा रहे हैं और हमारी आबादी की बढ़ोत्तरी में भी।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुर्दमनीय संकट से ग्रसित है। इस स्थिति पर सरकार की प्रतिक्रिया ऋण माफी, प्रस्तावित खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक आदि लोक लुभावन पगों के उठाने की रही है और हमारी कृषि को विश्व बाजार ताकतों व कारपोरेट क्षेत्र के लिए खोलने तथा नव उदार सिलसिले पर जोर देना जारी है। इससे संकट और उभरा है और यह धारणा बनी है कि कृषि भूमि संबंधी संकट वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है और इन नीतियों के पलटने से स्थिति ठीक रहेगी।
वस्तुत: यह जरूरी है कि नव-उदार नीति फे्रम का प्रतिरोध हो और उसे पलटा जाए। मगर संकट का तो एक खासा लम्बा इतिहास है, उसकी जड़ें गहरी हैं। गत तो दशकों की नीतियों को पलट देने भर से सदियों से खेतिहर आबादी के बहुमत से जो नाइंसाफी हुई है उसका निधन नहीं हो सकता। कृषि भूमि जन्य संकट की जड़ों को उस विकृत पूंजीवादी विकास प्रक्षेप-पथ में खोजना होगा जो हमें अपने औपनिवेशिक अतीत से मिला है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जो अपनी सोच में समाजवादी थे, वह कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने सत्रह वर्ष तक देश पर शासन किया था। किंतु वह औद्योगीकरण पर आसक्त हो गए थे।
मैं मानता हूं कि कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उद्योग आवश्यक है परंतु संतुलन होना चाहिए। नेहरू ने भी यह अनुभव किया था परंतु विलम्ब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो शीर्ष अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने अभी तक भी ऐसा महसूस नहीं किया। कोई भी उनके सात वर्षों के शासन की परिणतियों को देख सकता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वे जितना उधार लेते हैं, उससे कहीं कम उपार्जित कर पाते हैं। इससे हर भारतीय का सिर लज्जा से झुक जाना चाहिए। भूमि सुधार क्रांतिकारी पग हो सकते हैं उस तरह की अर्थव्यवस्था के हेतु जो मनमोहन सिंह देश पर थोप रहे हैं। किंतु वह भूमि संबंधी विकास में आए ठहराव पर पार-पाने के लिए तो कुछ कर ही सकते हैं।
आक्रोशित किसानों ने दवाब बनाने के लिए दो अधिकारियों को हिरासत में ले लिया। इसके बाद किसानों और पुलिस में संघर्ष हुआ। दोनों ओर के दो-दो अर्थात् चार लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को कार्रवाई की छूट दे दी। किसानों को उनके घरों से भगाया गया। जिससे स्थिति और बिगड़ गयी।
इस त्रासदी से सुविदित नीतिगत प्रश्न उठता है: जो खेत खाद्यान्न उगाते हैं, उन्हें विकास कहां तक निगल सकता है और वह भी नाम मात्र का मुआवजा देकर? मेरा विचार था कि सरकार ने अपनी नीति बदल दी है और यदि किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहता तो उसे वह अब अपने पास रख सकता है। स्पष्ट ही ऐसा हुआ नहीं। केंद्र अथवा राज्यों का अपना-अपना एजेंडा है जो ऐसे आश्वासनों की अनदेखी करता है।
अन्ततोगत्वा नई दिल्ली अब जाग गई लगती है। ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख ने कहा है कि 1894 का अधिग्रहण अधिनियम संशोधित किया जा रहा है। मुझे कहना ही होगा कि यह आश्वस्तकारक है। सार्वजनिक उद्देश्य को पुन: परिभाषित किया जाएगा और बाजार भाव भी आश्वस्त होगा। जब विधेयक के प्रारूप का पुनर्लेखन हो तो सरकार को चाहिए कि वह जिस औद्योगिक इकाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है उसमें भू-स्वामियों की एक प्रकार की भागीदारी के लिए शेयरों के आवंटन का प्रावधान करे।
मगर ग्रेटर नोएडा के मामले में समापन मौतों की जांच मात्र पर ही नहीं हो जाना चाहिए। रोग गहन है, वह मात्र भूमि के अधिग्रहण ही नहीं अपितु किसानों की आय में क्षीणता से भी संबंधित है। वास्तव में कृषि भूमि क्षेत्र में क्रियाकलाप दयनीय है। दूसरे शब्दों में यह कि देहात में दुखद हालात हैं। ग्रामीण विकास पर नई दिल्ली को बयान तो अनेक हैं, किंतु परिदृश्य में परिवर्तन कोई खास नहीं हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अक्टूबर में अधिनियम में बदलाव का जो वादा किया था वह भी आगे नहीं बढ़ता यदि किसान आंदोलन की राह नहीं अपनाते।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार, 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या 2008 की संख्या से 1,172 अधिक है। यदि भाग करके देखें तो यह अनुमानत: 50 व्यक्ति प्रतिदिन का आंकड़ा आता है। मुझे यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में किसान ही अग्रिम मोर्चे पर रहे थे। आज वे अपनी आजीविका ज्यों-त्यों चला पाने की जटिलता झेल रहे हैं। और उनमें से अनेक निराश होकर आत्महत्या का पथ अपना रहे हैं। किसानों ने ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति हेतु अपनी सब कुछ दांव पर लगाया था, त्याग, बलिदान का पथ अपनाया था। उन्होंने यही कामना की थी कि स्वतंत्र भारत में उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिलेगी। नई दिल्ली को यह अनुभूति होनी चाहिए कि देहातों में आंदोलन उभर रहा है और भीतर जो लावा दहक रहा है, वह कभी भी विस्फोटित हो सकता है।
एक किसान- जिसने आत्महत्या की राह अपनाई, उसकी टिप्पणी मर्मस्पर्शी है। 24 मार्च, 2008 को एक 50 वर्षीय किसान श्रीकांत कालम ने, जिसके पास अकोला, महाराष्ट्र में पांच एकड़ भूमि थी, खुद की फांसी लगाकर मौत का आलिंगन किया था, निम्नलिखित काव्य पक्तियां लिख कर छोड़ी थी:-
मेरी जीवन अलग है।
मेरी जीवन होगा बेमौसम की वर्षा सा।
काली धरती में कपास मेरे लिए एक कविता के तुल्य है।
इसकी जड़ें गन्ने सरीखी मधुर।
कृषि भूमि संबंधी संकट पर नई दिल्ली के इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने एक अध्ययन किया था, जिसमें कहा गया है कि पशुधन से होने वाली आमदनी को मिला लें तो भी कृषि आय जुताई पर आने वाली लागत और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज अपर्याप्त ही है। अपने बाजार में श्रम से वह जो कुछ पाते हैं वह भी शोषण के चलते अति अल्प ही है। मुझे स्मरण हो जाता है कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से जो खुद एक बड़े भू-स्वामी हैं, मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आप देश में सर्वेक्षण करा लें तो आप पाएंगे कि हर किसान कर्जदार है।
गत दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि औसतन सात प्रतिशत थी, जिसमें कृषि वृद्धि 1.6 प्रतिशत मात्र दर्ज हुई थी। दर असल विगत 15 वर्षों से भी अधिक से देश में कृषि वृद्धि या विकास में निश्चलता सी ही है। अस्सी के दशक में यह 3.3 प्रतिशत थी, नब्बे के दशक में गिरकर दो प्रतिशत पर आ गई और अब खिसक कर 0.4 प्रतिशत रह गई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रतिपादन से संबंधित कृषि संबंधी संचालन समिति ने स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के बाद कृषि उत्पादन में इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। खाद्यान्नों के उत्पादन में इस स्थिति से न तो योजना आयोग को अथवा सरकार को ही भ्रमित होना चाहिए। गिरावट का नतीजा यह है कि 2011 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पचास के दशक में प्राप्त स्तर पर होगी। कैलोरीज इनटेक (ग्रहण) 2153 (1993-94) से गिरकर 2047 (2004-05) पर ग्रामीण भारत में आ गयी है और 2071 (1993-94) से 2026 (2004-05) पर शहरी भारत में। खाद्य असुरक्षा की चेतावनी सूचक परिणाम स्वयं को भूख से होने वाली मौतों में दर्शा रहे हैं और हमारी आबादी की बढ़ोत्तरी में भी।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुर्दमनीय संकट से ग्रसित है। इस स्थिति पर सरकार की प्रतिक्रिया ऋण माफी, प्रस्तावित खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक आदि लोक लुभावन पगों के उठाने की रही है और हमारी कृषि को विश्व बाजार ताकतों व कारपोरेट क्षेत्र के लिए खोलने तथा नव उदार सिलसिले पर जोर देना जारी है। इससे संकट और उभरा है और यह धारणा बनी है कि कृषि भूमि संबंधी संकट वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है और इन नीतियों के पलटने से स्थिति ठीक रहेगी।
वस्तुत: यह जरूरी है कि नव-उदार नीति फे्रम का प्रतिरोध हो और उसे पलटा जाए। मगर संकट का तो एक खासा लम्बा इतिहास है, उसकी जड़ें गहरी हैं। गत तो दशकों की नीतियों को पलट देने भर से सदियों से खेतिहर आबादी के बहुमत से जो नाइंसाफी हुई है उसका निधन नहीं हो सकता। कृषि भूमि जन्य संकट की जड़ों को उस विकृत पूंजीवादी विकास प्रक्षेप-पथ में खोजना होगा जो हमें अपने औपनिवेशिक अतीत से मिला है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जो अपनी सोच में समाजवादी थे, वह कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने सत्रह वर्ष तक देश पर शासन किया था। किंतु वह औद्योगीकरण पर आसक्त हो गए थे।
मैं मानता हूं कि कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उद्योग आवश्यक है परंतु संतुलन होना चाहिए। नेहरू ने भी यह अनुभव किया था परंतु विलम्ब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो शीर्ष अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने अभी तक भी ऐसा महसूस नहीं किया। कोई भी उनके सात वर्षों के शासन की परिणतियों को देख सकता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वे जितना उधार लेते हैं, उससे कहीं कम उपार्जित कर पाते हैं। इससे हर भारतीय का सिर लज्जा से झुक जाना चाहिए। भूमि सुधार क्रांतिकारी पग हो सकते हैं उस तरह की अर्थव्यवस्था के हेतु जो मनमोहन सिंह देश पर थोप रहे हैं। किंतु वह भूमि संबंधी विकास में आए ठहराव पर पार-पाने के लिए तो कुछ कर ही सकते हैं।
Tuesday, May 17, 2011
शायद पुरुष महिलाओं से आगे नहीं निकल सकते!
भई आज के समय में महिलाओं-पुरूषों में आगे निकलने की दौड़ में महिलाओं ने मेरे हिसाब से पुरूषों को इतना पीछे छोड़ दिया है कि यदि वो गाड़ी में बैठकर भी दौड़ें तो भी शायद महिलाओं से आगे नहीं निकल सकते।
बात हरियाणा की जोकि एक कृषि प्रधान प्रदेश है उससे करें तो पता चलता है कि यहां पर पुरुषों से ज्यादा महिलाएं आपको खेतों में काम करती हुई नजर आएगीं। ६-७ महिलाओं के बीच में मात्र एक ही पुरुष कार्य करता हुआ मिलेगा या फिर किसी खेत के कौन में पेड़ की छांव में बैठकर हुक्का चल रहा होगा या फिर बीड़ी के कस लगाए जा रहे होंगे।
हाल ही में हुई जनगणना से यह पता चला है कि हरियाणा में पुरूषों से अधिक महिलाओं ने बाजी मारी है और केवल खेती ही नहीं बल्कि लगभग हर क्षेत्र में महिलाओं को आगे पाया गया है। खेल, खेती, नौकरी, दिहाड़ी आदि सभी क्षेत्रों में हरियाणा की महिलाओं ने अपना नाम कमाया है।
इसी वर्ष संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान हर खेल में हरियाणा की छौरियों ने अपने नाम का लोहा मनवाया। दौड़, कूद, बैडमिंटन जैसे खेलों में उन्होंने भारतमाता के चरणों में पदमों का ढ़ेर लगा दिया।
हरियाणा से बाहर चलें तो पहले जम्म-कश्मीर से ही ले लेते हैं, जहां पर कुंजेर में आशा जी पहली कश्मीरी पंडित महिला हैं जो मुस्लिम बहुल और उग्रवाद प्रभावित कश्मीर घाटी में पंच चुनी गई हैं। उन्होंने मुस्लिम महिला प्रतिद्वंद्वी सर्वा बेगम को हराकर यह चुनाव जीता।
गौरतलब है कि कश्मीर में अल्पसंख्यक माने जाने वाले पंडित समुदाय के लोग 1989-90 में उभरी भारत विरोधी हिंसा के दौरान भारी संख्या में कश्मीर छोडऩे को मजबूर हो गए थे। लेकिन आशा का परिवार गांव के उन चार परिवारों में है जो अपनी पुरखों की जमीन छोडऩे को तैयार नहीं हुए।
श्रीनगर-गुलमर्ग रोड पर स्थित कुंजेर ब्लॉक के वुसन गांव में आशा जी का मुकाबला सरवा बेगम से था। इस सीधे मुकाबले में आशा जी को 55 वोट मिले जबकि सरवा बेगम को 42 वोट। आशा जी ने एक ऐसा उदाहरण पेश किया है जोकि भारतीय महिलाओं के लिए जोश पैदा करने वाला है।
गत दिनों पांच राज्यों में हुए चुनाव में भी लगभग महिलाओं ने अपना एक छत्र शासन पक्का कर दिया है। जिससे अब कहावत बन चुकी है कि केंद्र में मैडम जी, दक्षिण में अम्मा, पूर्व में दीदी, उत्तर में बहन जी, राजधानी में आंटी, घर में पत्नी, घर से बाहर वर्किंग लेडी, का आज के समय में एकछत्र राज स्थापित हो चुका है। समाज को आज महिलाओं ने सामाजिक कुरितियों और पूरानी गली-सड़ी धारणाओं को तोड़कर उन्हें ठेंगा दिखाने का काम किया है।
कभी भी हो सकता है भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध?
सैन्य सरगर्मियों को देखकर ऐसा लगता है कि दोनों देश युद्ध की तैयारी में जुटे हैं। दोनों देशों के नेताओं और सैन्न अधिकारियों के बयान भी युद्ध भड़काने वाले हैं।
आईएसआई चीफ शुजा पाशा के भारत पर हमले की तैयारियों की धमकी के एक दिन बाद सोमवार को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों से बैठक की। लादेन की मौत के बाद गिलानी ने पहली बार सेना प्रमुखों के साथ बैठक की। इसमें भारत के साथ युद्ध होने पर हमले और बचाव के मुद्दे पर तमाम बातें हुईं। इधर, भारत ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी है। पाकिस्तान सीमा के पास उत्तरी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में भारत ने थलसेना और वायुसेना के तालमेल से एक वृहद अभ्यास किया है। कहने को यह थलसेना का नियमित सालाना अभ्यास है, लेकिन मौजूदा माहौल में इस सैन्य अभ्यास का विशेष रणनीतिक महत्व है।
इतना ही नहीं कई कट्टरपंथी संगठन भी भारत के खिलाफ युद्ध या कहें आतंकी दहशत फैलाने की तैयारी कर रहे हैं। सोमवार को ही जमात-उद-दावा ने भी रैली की। जमात के प्रमुख और मुंबई में हुए 26/11 हमले का मुख्य आरोपी हाफिज सईद ने एक बड़ी रैली कर भारत के खिलाफ जहर उगला। हाफिज सईद ने कहा कि भारत या अमेरिका ने फिर ऐबटाबाद जैसी कार्रवाई की, तो इन देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाएगा।
लादेन की मौत के बाद लगता है कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान युद्ध की तैयारी कर रहा है। लादेन की मौत के बाद पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुख के साथ बैठक की। सुत्रों के मुताबिक, बैठक में सबसे ज्यादा आईएसआई चीफ शुजा पाशा के बयान पर चर्चा की गई। पाशा ने रविवार को कहा था कि भारत के खिलाफ हमले की तैयारी पूरी है और सारी योजना बना ली गई है।
हालांकि, सोमवार की शाम ही भारत ने पाशा के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया जताई। भारत सरकार ने पाशा के इस बयान पर हैरत जताई। हमारे सहयोगी चैनल टाइम्स नाउ के सूत्रों के मुताबिक भारत सरकार ने पूछा कि आखिर शुजा पाशा ऐसा बयान देने वाले होते कौन हैं।
गौरतलब है कि भारत के सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने हाल ही में कहा था कि भारत भी सीमा पार मौजूद आतंकवादियों की पनाहगाहों को नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरिका सरीखे ऑपरेशन करने की क्षमता रखता है।
अल कायदा सरगना लादेन के खिलाफ की गई अमेरिकी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान घबरा गया है। इसका कारण है कि उसे यह डर सता रहा है कि भारत भी इस तरह की कार्रवाई कर सकता है। गौरतलब है कि भारत में कत्लेआम मचाने वाले कई आतंकी अब भी पाकिस्तानी सरजमीं पर मौजूद हैं। इसीकरण पाकिस्तान गिदड़ भभकी देकर भारत को इस तरह के कार्रवाई करने से रोक रहा है।
पाकिस्तान अपनी ताकत जानता है। फिर भी लगातार भारत को धमकी दे रहा है। कहीं इसके पीछे मेरिका तो नहीं? विदेश मामलों के कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि हो सकता है लादेन की सूचना देने में पाकिस्तान का भी हाथ हो। वह कार्रवाई में भाग नहीं लिया हो, लेकिन लादेन को मरवाने में उसका हाथ जरूर रहा होगा। ऐसा संभव है कि लादेन के बदले पाकिस्तान ने अमेरिका से गुप्त समझौता कर लिया हो और कश्मीर मुद्दे पर अमेरिकी मिल गया हो। मौका परस्त पाकिस्तान ऐसा कर भी सकता है। अब लादेन पाकिस्तान के लिए किसी काम का नहीं रह गया था। वह उसे अमेरिका को सौंप कर कश्मीर मामले पर अमेरिकी सहयोग हासिल कर लिया हो। इन सब परिस्थितियों में भारत को सतर्क रहने की जरूरत है।
आईएसआई चीफ शुजा पाशा के भारत पर हमले की तैयारियों की धमकी के एक दिन बाद सोमवार को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों से बैठक की। लादेन की मौत के बाद गिलानी ने पहली बार सेना प्रमुखों के साथ बैठक की। इसमें भारत के साथ युद्ध होने पर हमले और बचाव के मुद्दे पर तमाम बातें हुईं। इधर, भारत ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी है। पाकिस्तान सीमा के पास उत्तरी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में भारत ने थलसेना और वायुसेना के तालमेल से एक वृहद अभ्यास किया है। कहने को यह थलसेना का नियमित सालाना अभ्यास है, लेकिन मौजूदा माहौल में इस सैन्य अभ्यास का विशेष रणनीतिक महत्व है।
इतना ही नहीं कई कट्टरपंथी संगठन भी भारत के खिलाफ युद्ध या कहें आतंकी दहशत फैलाने की तैयारी कर रहे हैं। सोमवार को ही जमात-उद-दावा ने भी रैली की। जमात के प्रमुख और मुंबई में हुए 26/11 हमले का मुख्य आरोपी हाफिज सईद ने एक बड़ी रैली कर भारत के खिलाफ जहर उगला। हाफिज सईद ने कहा कि भारत या अमेरिका ने फिर ऐबटाबाद जैसी कार्रवाई की, तो इन देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाएगा।
लादेन की मौत के बाद लगता है कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान युद्ध की तैयारी कर रहा है। लादेन की मौत के बाद पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुख के साथ बैठक की। सुत्रों के मुताबिक, बैठक में सबसे ज्यादा आईएसआई चीफ शुजा पाशा के बयान पर चर्चा की गई। पाशा ने रविवार को कहा था कि भारत के खिलाफ हमले की तैयारी पूरी है और सारी योजना बना ली गई है।
हालांकि, सोमवार की शाम ही भारत ने पाशा के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया जताई। भारत सरकार ने पाशा के इस बयान पर हैरत जताई। हमारे सहयोगी चैनल टाइम्स नाउ के सूत्रों के मुताबिक भारत सरकार ने पूछा कि आखिर शुजा पाशा ऐसा बयान देने वाले होते कौन हैं।
गौरतलब है कि भारत के सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने हाल ही में कहा था कि भारत भी सीमा पार मौजूद आतंकवादियों की पनाहगाहों को नेस्तनाबूद करने के लिए अमेरिका सरीखे ऑपरेशन करने की क्षमता रखता है।
अल कायदा सरगना लादेन के खिलाफ की गई अमेरिकी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान घबरा गया है। इसका कारण है कि उसे यह डर सता रहा है कि भारत भी इस तरह की कार्रवाई कर सकता है। गौरतलब है कि भारत में कत्लेआम मचाने वाले कई आतंकी अब भी पाकिस्तानी सरजमीं पर मौजूद हैं। इसीकरण पाकिस्तान गिदड़ भभकी देकर भारत को इस तरह के कार्रवाई करने से रोक रहा है।
पाकिस्तान अपनी ताकत जानता है। फिर भी लगातार भारत को धमकी दे रहा है। कहीं इसके पीछे मेरिका तो नहीं? विदेश मामलों के कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि हो सकता है लादेन की सूचना देने में पाकिस्तान का भी हाथ हो। वह कार्रवाई में भाग नहीं लिया हो, लेकिन लादेन को मरवाने में उसका हाथ जरूर रहा होगा। ऐसा संभव है कि लादेन के बदले पाकिस्तान ने अमेरिका से गुप्त समझौता कर लिया हो और कश्मीर मुद्दे पर अमेरिकी मिल गया हो। मौका परस्त पाकिस्तान ऐसा कर भी सकता है। अब लादेन पाकिस्तान के लिए किसी काम का नहीं रह गया था। वह उसे अमेरिका को सौंप कर कश्मीर मामले पर अमेरिकी सहयोग हासिल कर लिया हो। इन सब परिस्थितियों में भारत को सतर्क रहने की जरूरत है।
राइट टु इन्फॉर्मेशन ऐक्ट (आरटीआई)
RTI-Act2005 में आम नागरिकों को ऐसा हथियार मिला, जिसकी हमें काफी जरूरत थी। राइट टु इन्फॉर्मेशन ऐक्ट(Right to information Act) के लागू हो जाने से आम जनता को हर वो चीज जानने का अधिकार मिल गया है, जिसका संबंध उसकी जिंदगी से है। सरकारी विभागों से करप्शन का सफाया करने का भी यह अचूक हथियार है। हालांकि लोग अब भी इसके इस्तेमाल और अहमियत के बारे में ज्यादा नहीं जानते। आरटीआई(RTI) से जुड़े हर पहलू की जानकारी दे रहे हैं आदित्य मित्र
'सूचना का अधिकार' अधिनियम 2005 भारतीय नागरिकों को संसद सदस्यों और राज्य विधानमंडल के सदस्यों के बराबर सूचना का अधिकार देता है। इस अधिनियम के अनुसार, ऐसी इन्फर्मेशन जिसे संसद या विधानमंडल सदस्यों को देने से इनकार नहीं किया जा सकता, उसे किसी आम व्यक्ति को देने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए अब अगर आपके स्कूल के टीचर हमेशा गैर-हाजिर रहते हों, आपके आसपास की सड़कें खराब हालत में हों, सरकारी अस्पतालों में मशीन खराब होने के नाम पर जांच न हो, हेल्थ सेंटरों में डॉक्टर या दवाइयां न हों, अधिकारी काम के नाम पर रिश्वत मांगें या फिर राशन की दुकान पर राशन ही न मिले तो आप सूचना के अधिकार यानी आरटीआई के तहत ऐसी सूचनाएं पा सकते हैं। यह अधिकार आपको और ताकतवर बनाता है।
क्या है आरटीआई(RTI)
सरकारी कार्यप्रणाली में खुलापन और पारदर्शिता लाने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 लाया गया है। यह लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत बनाने, करप्शन हटाने, जनता को अधिकारों से लैस बनाने और देश के विकास में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने में मील का पत्थर साबित हुआ है।
जानें आरटीआई के तहत अपने अधिकार
हर पब्लिक अथॉरिटी में एक या अधिक अधिकारियों को जन सूचना अधिकारी के रूप में अपॉइंट करना जरूरी है। आम नागरिकों द्वारा मांगी गई सूचना को समय पर उपलब्ध कराना इन अधिकारियों की जिम्मेदारी होती है।
इस अधिनियम में राइट टु इन्फर्मेशन सिर्फ भारतीय नागरिकों को ही मिला है। इसमें निगम, यूनियन, कंपनी वगैरह को सूचना देने का प्रावधान नहीं है, क्योंकि ये नागरिकों की परिभाषा में नहीं आते।
अगर किसी निगम, यूनियन, कंपनी या एनजीओ का कर्मचारी या अधिकारी आरटीआई दाखिल करता है तो उसे सूचना दी जाएगी, बशर्ते उसने सूचना अपने नाम से मांगी हो, निगम या यूनियन के नाम पर नहीं।
जनता को किसी पब्लिक अथॉरिटी से ऐसी इन्फर्मेशन मांगने का अधिकार है जो उस अथॉरिटी के पास उपलब्ध है या उसके नियंत्रण में है। इस अधिकार में उस अथॉरिटी के पास या नियंत्रण में मौजूद कृति, दस्तावेज या रेकॉर्ड, रेकॉर्डों या दस्तावेजों के नोट्स, प्रमाणित कॉपी और दस्तावेजों के सर्टिफाइड नमूने लेना शामिल है।
नागरिकों को डिस्क, फ्लॉपी, टेप, विडियो कैसेट या किसी और इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंटआउट के रूप में सूचना मांगने का अधिकार है। शर्त यह है कि मांगी गई सूचना उसमें पहले से मौजूद हो।
आवेदक को सूचना आम तौर पर उसी रूप में मिलनी चाहिए जिसमें वह मांगता है। अगर कोई विशेष सूचना दिए जाने से पब्लिक अथॉरिटी के संसाधनों का गलत इस्तेमाल होने की आशंका हो या इससे रेकॉर्डों के परीक्षण में किसी नुकसान की आशंका होती है तो सूचना देने से मना किया जा सकता है।
अक्सर यह देखने में आता है कि तमाम सरकारी विभागों से जनता को प्राय: ढेरों शिकायतें रहती हैं कि उनके लेटर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे में आप अपनी शिकायत के कुछ समय बाद सूचना के अधिकार के तहत संबंधित विभाग से अपने लेटर पर हुई कार्रवाई की सिलसिलेवार जानकारी ले सकते हैं।
आप किसी भी पब्लिक अथॉरिटी जैसे केंद्र या राज्य सरकार के विभागों, पंचायती राज संस्थाओं, न्यायालयों, संसद, राज्य विधायिका और दूसरे संगठनों, गैरसरकारी संगठनों सहित ऐसे सभी विभाग जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राज्य अथवा केंद्र सरकार द्वारा स्थापित संघटित, अधिकृत, नियंत्रित अथवा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित हैं, से जानकारियां मांग सकते हैं।
आप किसी प्राइवेट स्कूल, टेलिफोन कंपनी या बिजली कंपनी आदि से जुड़ी जानकारी पाने के लिए संबंधित विभाग से सूचना के अधिकार के तहत ऐप्लिकेशन दे सकते हैं।
कैसे भरें आरटीआई
सूचना पाने के लिए कोई तय प्रोफार्मा नहीं है। सादे कागज पर हाथ से लिखकर या टाइप कराकर 10 रुपये की फिक्स्ड फीस के साथ अपनी ऐप्लिकेशन संबंधित अधिकारी के पास किसी भी रूप में (खुद या डाक द्वारा) जमा कर सकते हैं। किसी खास तरह से आवेदन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
आप हिंदी, अंग्रेजी या किसी भी स्थानीय भाषा में ऐप्लिकेशन दे सकते हैं।
ऐप्लिकेशन फीस नकद, डिमांड ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर से दी जा सकती है।
डिमांड ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर संबंधित विभाग (पब्लिक अथॉरिटी) के अकाउंट ऑफिसर के नाम पर होना चाहिए।
डिमांड ड्राफ्ट के पीछे और पोस्टल ऑर्डर में दी गई जगह पर अपना नाम और पता जरूर लिखें।
आरटीआई ऐक्ट जम्मू और कश्मीर के अलावा पूरे देश में लागू है।
अगर आप फीस नकद जमा कर रहे हैं तो रसीद जरूर ले लें।
गरीबी रेखा के नीचे की कैटिगरी में आने वाले ऐप्लिकेंट को किसी भी तरह की फीस देने की जरूरत नहीं है। इसके लिए उसे अपना बीपीएल सर्टिफिकेट दिखाना होगा।
सिर्फ जन सूचना अधिकारी को ऐप्लिकेशन भेजते समय ही फीस देनी होती है। पहली अपील या सेंट्रल इन्फर्मेशन कमिश्नर को दूसरी अपील के लिए किसी प्रकार की फीस नहीं देनी होती।
अगर सूचना अधिकारी आपको समय पर सूचना उपलब्ध नहीं करा पाता है और आपसे तीन दिन की समयसीमा गुजरने के बाद डॉक्युमेंट उपलब्ध कराने के नाम पर अतिरिक्त धनराशि जमा कराने के लिए कहता है तो यह गलत है। इस स्थिति में अधिकारी आपको मुफ्त डॉक्युमेंट उपलब्ध कराएगा। चाहे उनकी संख्या कितनी भी हो।
एप्लिकेंट को सूचना मांगने के लिए कोई वजह या पर्सनल ब्यौरा देने की जरूरत नहीं है। उसे सिर्फ अपना पता देना होगा।
पोस्टल डिपार्टमेंट की जिम्मेदारी
केंद्र सरकार के सभी विभागों के लिए 629 पोस्ट ऑफिसों को सहायक जन सूचना कार्यालय बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि आप इनमें से किसी भी पोस्ट ऑफिस में जाकर इनके आरटीआई काउंटर पर फीस और ऐप्लिकेशन जमा कर सकते हैं। वे आपको रसीद और अकनॉलेजमेंट (पावती पत्र) देंगे। यह पोस्ट ऑफिस की जिम्मेदारी है कि वह आपकी ऐप्लिकेशन संबंधित सूचना अधिकारी तक पहुंचाए।
इन बातों का रखें ध्यान
आप जब भी आरटीआई के तहत जानकारी मांगें तो हमेशा संभावित जवाबों को ध्यान में रखकर अपने सवाल तैयार करें। आपका जोर ज्यादा से ज्यादा सूचना प्राप्त करने पर होना चाहिए।
अगर अपने आवेदन में कुछ दस्तावेजों की मांग कर रहे हैं तो संभावित शुल्क पहले ही ऐप्लिकेशन शुल्क के साथ जमा कर दें। जैसे आपने चार से पांच डॉक्युमेंट मांगे हैं तो आप 10 रुपये के बजाय 20 रुपये का पोस्टल ऑर्डर, ड्राफ्ट या नकद जमा कर सकते हैं। ऐसे में सूचना अधिकारी द्वारा आपसे अतिरिक्त धनराशि मांगने और आपके द्वारा उसे जमा किए जाने में बीत रहे समय को बचाया जा सकता है।
पोस्टल ऑर्डर में पूरी जानकारी भरकर ही संबंधित अधिकारी को भेजें। बिना नाम के पोस्टल ऑर्डर का गलत इस्तेमाल होने की संभावना के साथ-साथ जन सूचना अधिकारी द्वारा उसे लौटाया भी जा सकता है। पोस्टल ऑर्डर आप किसी भी पोस्ट ऑफिस से खरीद सकते हैं।
ऐप्लिकेशन देने के बाद
अगर आपने अपनी ऐप्लिकेशन जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) को दी है तो वह आपको 30 दिन के अंदर सूचना मुहैया कराएगा। साथ ही उसके जवाब में प्रथम अपीलीय अधिकारी का नाम व पता भी दिया जाना जरूरी है। अगर आपने अपनी ऐप्लिकेशन सहायक सूचना अधिकारी को दी है तो उसकी समयसीमा 35 दिन है।
ऐप्लिकेंट द्वारा मांगी गई सूचना का संबंध अगर किसी व्यक्ति की जिंदगी या आजादी से जुड़ा हो तो सूचना अधिकारी को ऐप्लिकेशन मिलने के 48 घंटों के अंदर इन्फर्मेशन देनी होगी।
जन सूचना अधिकारी द्वारा दस्तावेज (अतिरिक्त) मुहैया कराए जाने के लिए फीस की रसीद जारी करने और आवेदक द्वारा उस फीस को जमा कराने की अवधि को उन 30 दिन की अवधि में नहीं जोड़ा जाता है।
ऐप्लिकेशन लेने से इनकार
कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जन सूचना अधिकारी आपकी ऐप्लिकेशन लेने से इनकार कर सकता है। वे इस तरह हैं :
अगर ऐप्लिकेशन किसी और जन सूचना अधिकारी या पब्लिक अथॉरिटी के नाम पर हो।
अगर आप ठीक तरह से सही फीस का भुगतान न कर पाए हों।
अगर आप गरीबी रेखा से नीचे के परिवार के सदस्य के रूप में फीस से छूट मांग रहे हैं, लेकिन इससे जुड़ा सर्टिफिकेट नहीं दे सकते।
ऐसा भी होता है
अगर आपकी अपील पर संबंधित अधिकारी को सूचना आयोग द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाता है तो जुर्माने के रूप में उससे ली गई राशि सरकारी खजाने में जमा की जाती है। हालांकि धारा 19(8) (बी) के अंतर्गत आवेदक को किसी हानि या नुकसान के लिए मुआवजा दिया जा सकता है।
कुछ अधिकारी ऐप्लिकेंट को मीटिंग के लिए बुलाते हैं, यह कानून पब्लिक अथॉरिटीज को मीटिंग के लिए आवेदकों को बुलाने या यहां तक कि आवेदक को व्यक्तिगत रूप से आकर मांगी गई सूचना ले जाने पर जोर देने का अधिकार नहीं देता है।
अगर आपको ऐसा लगता है कि आपके द्वारा सूचना मांगे जाने से आपके जान-माल को खतरा हो सकता है तो आप सूचना दूसरे व्यक्ति के नाम पर मांग सकते हैं। जिसे आसानी से धमकाया नहीं जा सके या जो किसी दूर स्थान पर रहता हो।
जहां मांगी जा रही सूचना एक से अधिक व्यक्ति को प्रभावित करती हो, तो कभी-कभी अन्य लोगों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से सूचना मांगना बेहतर होता है, क्योंकि अधिक संख्या आपको बल और सुरक्षा देती है।
अगर ऐप्लिकेंट पढ़ा-लिखा नहीं है तो जन सूचना अधिकारी की यह जिम्मेदारी है कि वह उसकी रिक्वेस्ट को लिखित रूप में देने में सभी प्रकार से सहायता करें।
अगर ऐप्लिकेशन की विषयवस्तु किसी और पब्लिक अथॉरिटी से जुड़ी हो तो उस ऐप्लिकेशन को संबंधित पब्लिक अथॉरिटी को ट्रांसफर किया जाना चाहिए।
अगर कोई आवेदक ऐसी सूचना मांगता है जो किसी तीसरी पार्टी से संबंध रखती है अथवा उसके द्वारा उपलब्ध कराई जाती है और तीसरी पार्टी ने ऐसी सूचना को गोपनीय माना है तो जन सूचना अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह सूचना को प्रकट करने अथवा न करने पर विचार करें।
थर्ड पार्टी में ऐसी प्राइवेट कंपनियां आती हैं, जो सरकार से मदद नहीं लेती हैं और जो सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती। ऐसी कंपनियों की जानकारी केवल सरकारी माध्यम से मांगी जा सकती है। लेकिन ये कंपनियां जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं हैं।
अपील का अधिकार
अगर किसी ऐप्लिकेंट को तय समयसीमा में सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती है या वह दी गई सूचना से संतुष्ट नहीं होता है तो वह प्रथम अपीलीय अधिकारी के सामने अपील कर सकता है।
प्रथम अपील के लिए कोई फीस नहीं देनी होगी। अपनी ऐप्लिकेशन के साथ जन सूचना अधिकारी के जवाब और अपनी पहली ऐप्लिकेशन के साथ-साथ दूसरे जरूरी दस्तावेज अटैच करना जरूरी है।
प्रथम अपीलीय अधिकारी रैंक में जन सूचना अधिकारी से बड़ा अधिकारी होता है। ऐसी अपील सूचना उपलब्ध कराए जाने की समयसीमा के खत्म होने या जन सूचना अधिकारी का फैसला मिलने की तारीख से 30 दिन के अंदर की जा सकती है।
अपीलीय अधिकारी को अपील मिलने के 30 दिन के अंदर या विशेष मामलों में 45 दिन के अंदर अपील का निपटान करना जरूरी है।
दूसरी अपील एसआईसी में
अगर आपको पहली अपील दाखिल करने के 45 दिन के अंदर जवाब नहीं मिलता या आप उस जवाब से संतुष्ट नहीं हैं तो आप 45 दिन की अवधि समाप्त होते ही 90 दिन के अंदर राज्य सरकार की पब्लिक अथॉरिटी के लिए उस राज्य के स्टेट इन्फर्मेशन कमिशन से या केंद्रीय प्राधिकरण के लिए सेंट्रल इन्फर्मेशन कमिशन के पास दूसरी अपील दाखिल कर सकते हैं।
अगर फिर भी न हों संतुष्ट
अगर प्रथम अपीलीय अधिकारी इस तय समयसीमा में कोई आदेश जारी नहीं करता या ऐप्लिकेंट प्रथम अपीलीय अधिकारी के आदेश से संतुष्ट नहीं होता तो वह फैसला आने के 90 दिन के अंदर केंद्रीय सूचना आयोग के सामने सेकंड अपील दायर कर सकता है।
अगर आरटीआई को जन सूचना अधिकारी रिजेक्ट कर देता है, तो ऐप्लिकेंट को वह कुछ सूचनाएं जरूर देगा। ये हैं-रिजेक्शन की वजह, उस टाइम पीरियड की जानकारी जिसमें रिजेक्शन के खिलाफ अपील दायर की जा सके और उस अधिकारी का नाम व पता (ब्यौरा) जिसके यहां इस फैसले के खिलाफ अपील की जा सकती है।
सूचना का अधिकार ऐक्ट के तहत अपील पर फैसला करना एक अर्द्ध-न्यायिक काम है। इसलिए अपीलीय अधिकारी के लिए यह सुनिश्चित कराना जरूरी है कि सिर्फ न्याय हो ही नहीं, बल्कि वह होते हुए दिखाई भी दे। इसके लिए अपीलीय अधिकारी द्वारा पारित आदेश स्पीकिंग ऑर्डर होना चाहिए, जिसमें फैसले के पक्ष में तर्क भी दिए गए हों।
एक्स्ट्रा फीस
सूचना लेने के लिए आरटीआई ऐक्ट में ऐप्लिकेशन फीस के साथ एक्स्ट्रा फीस का प्रावधान भी है, जो इस तरह है:-
फोटो कॉपी किए गए हर पेज के लिए 2 रुपये।
बड़े आकार के कागज में कॉपी की लागत कीमत।
नमूनों या मॉडलों के लिए उसकी लागत या कीमत।
अगर दस्तावेज देखने हैं तो पहले घंटे के लिए कोई फीस नहीं है। इसके बाद हर घंटे के लिए फीस 5 रुपये है।
डिस्क या फ्लॉपी में सूचना लेनी है तो हर डिस्क या फ्लॉपी के लिए 50 रुपये।
जा सकते हैं केंद्रीय सूचना आयोग
आप सीधे केंद्रीय सूचना आयोग में शिकायत कर सकते हैं अगर
आप संबंधित पब्लिक अथॉरिटी में जन सूचना अधिकारी न होने की वजह से आरटीआई नहीं डाल सकते
केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी आपकी ऐप्लिकेशन को संबंधित केंद्रीय लोक (जन) सूचना अधिकारी या अपीलीय अधिकारी को भेजने से मना करता है
सूचना के अधिकार एक्ट के तहत सूचना पाने की आपकी रिक्वेस्ट को ठुकरा दिया जाता है
अधिनियम में तय समय सीमा के भीतर आपकी ऐप्लिकेशन का कोई जवाब नहीं दिया जाता है
फीस के रूप में एक ऐसी राशि की मांग की जाती है जिसे आप उचित नहीं मानते
लगता है कि अधूरी और बरगलाने वाली झूठी सूचना दी गई है
होगी कार्रवाई
अगर किसी शिकायत या अपील पर फैसला देते समय केंद्रीय सूचना आयोग का यह मत होता है कि केंद्रीय सूचना अधिकारी ने बिना किसी ठीक वजह के ऐप्लिकेशन को जमा करने में कोताही बरती या तय समय के भीतर सूचना नहीं दी या गलत भावना से ऐप्लिकेशन को रिजेक्ट किया या जान-बूझकर गलत व गुमराह करने वाली सूचना दी अथवा उस सूचना को नष्ट किया जिसे मांगा गया था तो आयोग उस सूचना अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है। इसके अलावा राज्य अथवा केंद्रीय सूचना आयोग को अधिकार है कि वह उस अधिकारी पर 250 रुपये रोजाना या अधिकतम 25,000 रुपये तक का जुर्माना भी कर सकता है।
केंद्रीय सूचना आयोग को अपील करते समय यह जानकारी दी जानी जरूरी है :
अपील करने वाले का नाम और पता
उस अधिकारी का नाम और पता जिसके फैसले के खिलाफ अपील की गई है
उस आदेश की संख्या जिसके खिलाफ अपील की गई है (अगर कोई हो)
अपील करने की वजह और उससे जुड़े फैक्ट
मांगी गई राहत
साथ ही उन आदेशों या दस्तावेजों की सेल्फ अटेस्टेड कॉपियां भी होनी चाहिए जिसके खिलाफ अपील की गई है और उन दस्तावेजों की कॉपी भी जिनके बारे में उसने अपील में ब्यौरा दिया है
यहां नहीं लागू होता कानून
किसी भी खुफिया एजेंसी की ऐसी जानकारियां, जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा हो, को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। निजी संस्थानों को भी इस दायरे से बाहर रखा गया है, लेकिन इन संस्थाओं की सरकार के पास उपलब्ध जानकारी को संबंधित सरकारी विभाग से प्राप्त किया जा सकता है। खुफिया एजेंसियों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन होने और इन संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की जानकारी ली जा सकती है। अन्य देशों के साथ भारत के संबंध से जुड़े मामलों की जानकारी को भी इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है।
'ओ' ब्लड ग्रुप की महिलाओं को गर्भधारण में परेशानी होती है
वैज्ञानिकों ने नए शोधों में पाया गया कि 'O' ब्लड ग्रुप की महिलाओं को गर्भधारण में परेशानी होती है। इसकी वजह उनके गर्भाशय में खराब गुणवत्ता के कम अंडे का बनना होता है। वहीं इसके विपरीत जिन महिलाओं का ब्लड ग्रुप 'A' होता है उनकी प्रजनन संभावनाएं बेहतर होती हैं। दरअसल वैज्ञानिकों ने विशेष ब्लड ग्रुप वाली महिलाओं में प्रजनन क्षमता को अपनी शोध का विषय बनाया था।
शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी महिला का एक विशेष ब्लड ग्रुप होने से यह उसकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करता है और उसके मां बनने के अवससरों को भी सीमित करता है।
शोध के दौरान याले यूनिवर्सिटी और न्यूयार्क के अल्बर्ट आइंसटाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के शोधकताकर्ताओं ने गर्भधारण करने के लिए उपचार हासिल कर रही 560 महिलाओं का परीक्षण किया जिनकी औसत आयु 35 वर्ष थी।
शोधकर्ताओं ने प्रजनन क्षमता का मापदंड माने जाने वाले फोलिकल स्टिमुलेटिंग हार्मोन (एफएचएच) का स्तर जांचने के लिए इन महिलाओं के रक्त के नमूने लिए। एफएसएच(FSH) का स्तर दस से अधिक होने से पता चलता है कि महिला को गर्भ धारण करने में दिक्कत होगी।
एफएसएच का उच्च स्तर इस बात का संकेतक है कि गर्भाश्य में अंडों की संख्या बेहद कम है और उपलब्ध अंडे भी अच्छी गुणवत्ता के नहीं हैं। शोध में यह भी पाया गया कि किसी अन्य ब्लड ग्रुप की महिलाओं के मुकाबले 'O' ब्लड ग्रुप की महिलाओं का एफएसएच(FSH) स्तर दस से अधिक होने की आशंका अधिक रहती है। ब्रिटिश मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि ब्रिटेन की 44 फीसदी आबादी का ब्लड ग्रुप ओ है।
प्रमुख शोधकर्ता डॉ. एडवड नेजात ने बताया कि प्रजनन उपचार हासिल कर रही दोनों रक्त समूहों की महिलाओं में से 'O' रक्त समूह की महिलाओं का एफएसएच(FSH) स्तर दस से अधिक होने की दोगुनी संभावना थी। उन्होंने बताया कि हमने पाया कि 'A' और 'एबी' निगेटिव समूह की महिलाएं गर्भ में अंडों की कम संख्या के प्रभाव से मुक्त थीं। ब्रिटिश फर्टिलिटी सोसायटी के अध्यक्ष टोनी रदरफोर्ड के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है, यह पहली बार है कि जब मुझे पता चला है कि शोधकर्ताओं ने प्रजनन क्षमता और रक्त समूह के बीच संबंध बताया है।
Monday, May 16, 2011
नेपाल में दिखते हैं हिमालय के खूबसूरत नजारे
नेपाल एशिया का सबसे महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। पूरब में यह भूटान, उत्तर-पूर्व में तिब्बत, उत्तर में चीन, दक्षिण पूर्व और पश्चिम में भारत से घिरा है। नेपाल में हिमालय के सबसे खूबसूरत दृश्य देखने को मिलते हैं जो दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर खींचते हैं। इस देश की खूबसूरती यहां की संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत, वास्तुकला और साहसिक खेलों में भी दिखती है। कहा जाता है कि यहां की सभ्यता का विकास काठमांडो की पहाडिय़ों में हुआ था। वही इस देश की राजधानी है।
नेपाल के पहाड़ों की खूबसूरती इस देश की सबसे बड़ी संपदा है। दुनिया की दस ऊंची हिमालयी पर्वतमालाओं में से आठ सिर्फ नेपाल में हैं। यहां आप कई साहसिक खेलों से रूबरू हो सकते हैं। यह देश बड़े पैमाने पर ट्रैंकिंग, माउन्टेनियरिंग, रॉक क्लाइम्बिंग, हाइकिंग, वाटर रैफ्टिंग आदि के लिए मशहूर है। नेपाल की पहाडिय़ों पर आप साहसिक खेलों का आनंद उठा सकते हैं। गर्मी की छुट्टियों में समय बिताने का बेहतरीन स्थान है नेपाल।
नेपाल में देखने लायक बहुत कुछ है। यहां पर्यटकों के आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र है माउंट एवरेस्ट। यहां का न्याटापोला मंदिर, कृष्ण मंदिर और दरबार चौक भी देखने लायक है। नेपाल में कई तरह के संग्रहालय हैं। नेशनल म्यूजियम और नेशनल आर्ट गैलरी तो पर्यटकों को विशेष रूप से पसंद आती है।
नेपाल न सिर्फ साहसिक खेलों के लिए मशहूर है बल्कि आप यहां बेहतरीन वन्य जीव अभयारण्य भी देख सकते हैं। अगर आपको वन्यजीवों से प्यार है और उन्हें करीब से देखना चाहते हैं तो नेपाल की बेहतरीन वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी देख सकते हैं। यहां चितवन नेशनल पार्क, रारा नेशनल पार्क, सागरमठ नेशनल पार्क और मकालु बरुन नेशनल पार्क हैं। आप इन स्थानों पर वन्य जीवों को उनके प्राकृतिक परिवेश में अठखेलियां करते देख सकते हैं।
यूं तो पूरा नेपाल ही बहुत खूबसूरत है लेकिन इसकी राजधानी काठमांडो का क्या कहना! यहां किसी भी मौसम में जा सकते हैं। भारत से दूरी बहुत कम होने का भी अपना लाभ है। यह शहर भारत के कई प्रमुख शहरों से सड़क और वायु मार्ग से जुड़ा है। काठमांडू का त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भी देखने लायक है।
Sunday, May 15, 2011
जीवन दर्शन की प्रणेता…. भगवदगीता
भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में गीता का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है. गीता को भारतीय जीवन दर्शन का प्रणेता कहा जा सकता है. विश्व के सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ भगवदगीता में प्रकृति के तीन गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है.
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः.
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम.
गीता में कहा गया है की प्रकृति तीन गुणों से युक्त है. सतो, रजो तथा तमोगुण. जब शाश्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह इन गुणों से बंध जाता है. दिव्य होने के कारण जीव को इस भौतिक प्रकृति से कुछ भी लेना-देना नहीं है. फिर भी भौतिक जगत में आने के कारण वह प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर कार्य करता है. यही मनुष्य के भौतिक जगत में सुख और दुःख का कारण है.
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम.
सुखसंगें बध्नाति ज्ञानसंगें चानघ .
सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सभी पापकर्मों से मुक्त करने वाला है. सतोगुणी लोग सुख तथा ज्ञान के भाव से बंध जाते हैं. सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीड़ित नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है. वास्तव में वैदिक साहित्य में कहा गया है की सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव. सतोगुण को प्रकृति के तीनों गुणों में प्रधान गुण माना गया है.
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवं.
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगें देहिनम.
रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णा से होती है. इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बंध जाता है. रजोगुण की विशेषता है, पुरुष तथा स्त्री का पारस्परिक आकर्षण. रजोगुण में वृद्धि के कारण मनुष्य विषयों के भोग के लिए लालायित रहता है. वह इन्द्रियतृप्ति चाहता है. रजोगुण के फलस्वरूप ही मनुष्य संतान, स्त्री सहित सुखी घर परिवार चाहता है. यह सब रजोगुण के ही प्रतिफल हैं. लेकिन आधुनिक सभ्यता में रजोगुण का मानदंड ऊंचा है. अर्थात समस्त संसार ही न्यूनाधिक रूप से रजोगुणी है. प्राचीन काल में सतोगुण को उच्च अवस्था माना जाता था. लेकिन आधुनिक सभ्यता में रजोगुण प्रधान हो गया है. इसका कारण भौतिक भोग की लालसा में वृद्धि होना है.
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम.
प्रमादालास्य निद्राभिस्तन्निबध्नाती भारत.
अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है. इस गुण के प्रतिफल पागलपन, आलस तथा नींद हैं, जो बद्धजीव को बांधते हैं. तमोगुण देहधारी जीव का अत्यंत विचित्र गुण है. यह गुण सतोगुण के सर्वथा विपरीत है.सतोगुण के विकास से मनुष्य यह जान सकता है की कौन क्या है, लेकिन तमोगुण इसके सर्वथा विपरीत है. जो तमोगुण के फेर में पड़ता है वह पागल सा हो जाता है और वह नहीं समझ पता है की कौन क्या है. वह प्रगति के बजाय अधोगति को प्राप्त हो जाता है. अज्ञान के वशीभूत होने पर मनुष्य किसी वस्तु को यथारूप नहीं समझ पाता है. तमोगुणी व्यक्ति जीवन भर लगातार विषयों की और दौड़ता है. और सत्य को जाने बिना पागल की तरह धन का संग्रह करता है. ऐसा व्यक्ति सदैव निराश प्रतीत होता है और भौतिक विषयों के प्रति व्यसनी बन जाता है. यह सभी तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं.
सत्त्वं सुखे संच्यति रजः कर्मणि भारत.
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संचयत्युत.
भगवदगीता गीता के उपदेश में श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं की हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख से बांधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बांधता है. वहीँ तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बांधता है. भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं की सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह संतुष्ट रहता है, जिस प्रकार दार्शनिक, वैज्ञानिक अपनी विद्याओं में निरत रहकर संतुष्ट रहते हैं. रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है, वह यथासंभव धन प्राप्त करके उत्तम कार्यों में खर्च करता है. अस्पताल आदि खोलता है और धर्मार्थ के कार्यों में व्यय करता है. ये रजोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं.
लेकिन तमोगुण तो व्यक्ति के ज्ञान को ही ढक लेता है. तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है, वह न तो उसके लिए, न किसी अन्य के लिए हितकर होता है. इसलिए सतोगुण ही व्यक्ति के जीवन को सफल बना सकता है, और मोक्ष की प्राप्ति का रास्ता भी सतोगुण से होकर ही जाता है.
Saturday, May 14, 2011
उन पांच दिनों के बारे में बदल रही है धारणा
ईशा
कई दशक पहले महिलाएं उन पांच दिनों के बारे में बताने में कतराती थी। छोटी लड़कियों को उन दिनों घर से निकलने नहीं दिया जाता था। महिलाएं रसोई में नहीं जाती थी। यौवन की दहलीज पर पहुंचते ही उन्हें सैनिटरी नैपकिन के बारे में बताया जाता था। पूजा-पाठ से उन्हें दूर ही रखा जाता था। सिवाएं घर की बड़ी बूढ़ी महिलाओं के, इसके बारे में किसी को भी जानकारी नहीं होती थी। पुरुषों को इन सब से अंजान ही रखा जाता था। इसलिए शादी के बाद जब पत्नियां इस बारे में उन्हें बताती थीं, तो अजीब सा लगता था। उन्होंने घर में कभी इस बारे में सुना नहीं था, न ही इसकी जानकारी दी जाती थी। बिना किसी परेशानी और तकलीफ के मां को हर वक्त काम में लगे देखा। आज पुरुष अपनी पत्नी के उन पांच दिनों को लेकर काफी सजग हो गए हैं। महिलाएं और युवतियां दुकान में जाकर सहजता से सेनेटरी नैपकिन खरीदती हैं। दूसरे ग्राहकों के सामने उन्हें झिझक नहीं होती। पुरुष अब महिलाओं के मासिक चक्र में रूचि लेने लगे हैं।
ब्रिटेन में महिलाएं उन पांच दिनों में कलाई पर एक बैंड लगा रही हैं, जिससे पतियों को यह पता चलता हैं कि उनकी पत्नी पीएमएस में हैं। इस बैंड से पति को भी मदद मिलती है और वह अपनी पत्नी को बेहतर समझ पाते है और ख्याल भी रख पाते हैं। इस बैंड में तापमान दिखाने का सूचक लगा होता हैं। पीएमएस के दौरान शरीर का तापमान बदलने लगता है। इससे यह पता चल जाता है कि महिलाएं उन पांच दिनों से गुजर रही हैं। इस बैंड को कार्ल डार्न ने बनाया और नतीजे में उन्होंने पाया कि पुरुष इस मामले में ज्यादा जागरूक हो रहे हैं। पत्नियों के उन पांच दिनों का ध्यान अब वे ज्यादा अच्छी तरह रखने लगे हैं। इससे महिलाओं को काफी राहत मिली है।
28 साल के अजय को जब उनकी पत्नी ने पीएमएस के बारे में बताया तो उन्हें सुनकर काफी हैरानी हुई। उनकी न ही कोई बहन थी और न ही कभी मां के इस बारे में जानकारी दी। उन्होंने कभी अपनी मां को अपना मूड बदलते देखा ही नहीं था। इसलिए यह शब्द ही उनके लिए नया था। पत्नी ने उसे समझाया और साथ में यह भी बताया कि महीने के इन कुछ दिनों में उनमें बदलाव आ सकता है। उसने अपने पति को इस बारे में ज्यादा चिंता करने के लिए नहीं कहा। अजय को यह सोचकर हैरानी हुई कि उनकी मां भी ऐसे दर्द और परेशानी से गुजरी होंगी। फिर उसने हर महीने पत्नी की परेशानी का ध्यान रखा और कैलेंडर में निशान लगाना शुरू कर दिया।
पुरुष अब हर वक्त मासिक चक्र को लेकर डरे हुए रहते हैं। इस बारे में उनकी अधूरी जानकारी ही उन्हें डरा कर रखती है। इस बारे में वे सिर्फ इंटरनेट से ही जानकारी हासिल कर सकते हैं। लगभग 75 प्रतिशत महिलाएं हर महीने इस पीड़ा और बदलाव से गुजरती हैं। शरीर में हार्मोनल, साइकोलाजिकल और सामाजिक बदलाव के कारण महिलाएं उन पांच दिनों में ज्यादा परेशान रहती हैं। कारण चाहे कुछ भी हो, पुरुष अब महिलाओं की इस तकलीफ को समझने लगे हैं। पश्चिमी देशों में महिलाओं इस पर खुलकर बात करती हैं इसलिए पुरुष भी वहां ज्यादा सजग रहते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में अभी भी इस सब विषयों पर बात नहीं होती। हालांकि धीरे-धीरे हमारे यहां भी बदलाव शुरू हो चुके हैं।
जब महिलाओं में ओव्यूलेशन होता हैं, तो इसका असर शरीर पर भी होता है और इसी वजह से उनके रोजमर्रा के काम में थोड़ा फर्क आ जाता हैं। उनका मूड़ भी थोड़ा बदला हुआ सा होता है। पर देखा जाए तो महिलाएं अपने आप में इतनी मजबूत होती हैं कि वह ऐसी स्थिति का भी सामना आसानी से कर लेती हैं। आज महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से बराबरी कर रही हैं तो फिर उन पांच दिनों का डर भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है।
अच्छी सोच का अच्छा परिणाम!
कैरेबियाई दौरे के लिए टीम इंडिया का सिलेक्शन को चुका है जिसमें गौतम गंभीर को इसकी कमान सौंपी गई और सचिन, जहिर, धोनी को आराम दिया गया है। शायद बीसीसीआई ने यह फैसला टीम इंडिया के भविष्य को सोचकर लिया है। जिसमें 16 सदस्यीय टीम इस प्रकार है:- गौतम गंभीर (कप्तान), सुरेश रैना, पार्थिव पटेल, विराट कोहली, युवराज सिंह, एस बद्रीनाथ, रोहित शर्मा, हरभजन सिंह, आर आश्विन, प्रवीण कुमार, ईशांत शर्मा, मुनफ पटेल, विनय कुमार, यूसुफ पठान, अमित मिश्रा, रिद्धिमान साहा को शामिल किया गया है। अब देखना ये है कि इस टीम में जो ज्यादातर युवा हैं और आईपीएल सीजन में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन जिस दौरे पर यह टीम जाएगी वहां आईपीएल नहीं होगा, वहां पीच पर समय बीताना होगा और हर कदम सोच समझकर रखना पड़ेगा, क्योंकि इस दौरे पर उनके भविष्य पर काफी कुछ निर्भर करता है।
Tuesday, May 10, 2011
शर्मनाक, इंस्पेक्टर ने अपनी पत्नी को कमिश्नर के सामने परोसा
भड़ास4पुलिस डेस्क
पटना
अग्नि के सात फेरे ले जन्म-जन्म तक साथ निभाने वाले पति ने उस वक्त हैवानियत की सारी हदें पार कर दी जब उसने अपनी ही पत्नी को दूसरे मर्द के हवाले कर दिया। बिहार के सारण जिले के शीतलपुर की सपना सिंह (45) (काल्पनिक नाम) ने कुछ ऐसे ही आरोप अपने इंस्पेक्टर पति पर लगाए हैं। पत्नी का कहना है कि उसके पति ने उसे खाने में बेहोशी की दवा मिलाकर अपने कमिश्नर बॉस के हवाले कर दिया।
जानकारी के मुताबिक सोमवार को सपना अपनी आप बीती लेकर मुख्यमंत्री के दरबार पहुंची। सपना ने बताया कि 5 मई 2010को लखनऊ में पदस्थापित उसके सब इंस्पेक्टर पति पीके राय ने धोखे में रख उसे नारकोटिक्स विभाग के कमिश्नर रैंक के अधिकारी को सौंप दिया। बेहोशी की दवा ज्यादा होने के कारण वह पांच दिनों तक अर्ध निंद्रा की हालत में थी। इस दौरान उसके पति के बॉस ने उसके साथ कई बार शारीरिक संबंध बनाए। जब वह पूरी तरह होश में आई तो 15 मई को उसने लखनऊ में अपने पति के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराई।
इस दौरान पीड़िता को पता चला कि वह गर्भवती हो चुकी है। वह गर्भ गिराना नहीं चाहती थी। लेकिन उसके भाईयों ने भी उसे बेहोशी की दवा खिला जबरिया उसका गर्भपात भी करा दिया।
जनता दरबार में सपना की गुहार को मुख्यमंत्री ने पूरी संजीदगी से सुना और यथा संभव कार्रवाई की बात कही। उन्होंने सपना के दोबारा मेडिकल जांच के आदेश भी दिए।
पटना
अग्नि के सात फेरे ले जन्म-जन्म तक साथ निभाने वाले पति ने उस वक्त हैवानियत की सारी हदें पार कर दी जब उसने अपनी ही पत्नी को दूसरे मर्द के हवाले कर दिया। बिहार के सारण जिले के शीतलपुर की सपना सिंह (45) (काल्पनिक नाम) ने कुछ ऐसे ही आरोप अपने इंस्पेक्टर पति पर लगाए हैं। पत्नी का कहना है कि उसके पति ने उसे खाने में बेहोशी की दवा मिलाकर अपने कमिश्नर बॉस के हवाले कर दिया।
जानकारी के मुताबिक सोमवार को सपना अपनी आप बीती लेकर मुख्यमंत्री के दरबार पहुंची। सपना ने बताया कि 5 मई 2010को लखनऊ में पदस्थापित उसके सब इंस्पेक्टर पति पीके राय ने धोखे में रख उसे नारकोटिक्स विभाग के कमिश्नर रैंक के अधिकारी को सौंप दिया। बेहोशी की दवा ज्यादा होने के कारण वह पांच दिनों तक अर्ध निंद्रा की हालत में थी। इस दौरान उसके पति के बॉस ने उसके साथ कई बार शारीरिक संबंध बनाए। जब वह पूरी तरह होश में आई तो 15 मई को उसने लखनऊ में अपने पति के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराई।
इस दौरान पीड़िता को पता चला कि वह गर्भवती हो चुकी है। वह गर्भ गिराना नहीं चाहती थी। लेकिन उसके भाईयों ने भी उसे बेहोशी की दवा खिला जबरिया उसका गर्भपात भी करा दिया।
जनता दरबार में सपना की गुहार को मुख्यमंत्री ने पूरी संजीदगी से सुना और यथा संभव कार्रवाई की बात कही। उन्होंने सपना के दोबारा मेडिकल जांच के आदेश भी दिए।
मीडिया भी तो आये जनलोकपाल के घेरे में
भ्रष्टाचार के खिलाफ 72 साल के सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के अनशन और आन्दोलन को भारत भर का मीडिया जबरदस्त कवरेज दे रहा है. इससे यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि इस देश का मीडिया भ्रष्टाचार के पूरी तरह से खिलाफ है, पर जानने वाले समझते हैं कि अन्ना हजारे को कवरेज देना मीडिया की मजबूरी है, क्योंकि जिस आन्दोलन में लाखों लोग स्वंयस्फूर्त जुड़ रहे हों उसकी अनदेखी करना मीडिया के लिये मुष्किल का काम है. वैसे मीडिया को एक मुद्दा चाहिये होता है जो उन्हें दिन भर को मसाला दे दे. मीडिया जिस तरह से अन्ना हजारे के आन्दोलन को समर्थन दे रहा है, उससे मीडिया के भ्रष्टाचार मुक्त होने की तस्वीर बनती है, पर क्या यह सचाई है?
यदि मीडिया वाले दिल पर हाथ रखकर सच कहें तो इसका उत्तर न में ही होगा. भ्रष्टाचार क्या सिर्फ किसी से रुपया लेना है? भ्रष्टाचार के तो हजारों रंग हैं. यदि आप पत्रकार हैं और किसी बिना लायसेंस में पकड़े गये व्यक्ति को अपने प्रभाव से यातायात पुलिस की गिरफ्त से छुड़वा देते हैं तो ये भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. अपने अखबार का भय दिखाकर सरकारों से कौडि़यों के दाम जमीन ले लेना, फिर उसका कामर्शियल उपयोग कर उससे करोड़ों रूपये बनाना ये भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है. चुनावों के दौरान पैसे लेकर किसी एक पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में खबरें छापना और मतदाताओं को भरमाना भी भ्रष्टाचार है. अखबारों की आड़ में सरकारों को धमकाना और उनसे अपने धंधे के लिये सुविधायें लेना ये भी तो भ्रष्टाचार ही है. अपने पत्रकारों को बंधुआ मजदूर बनाकर उन्हें कभी भी सेवा से पृथक कर देना यह भी किसी व्यक्ति के साथ किया गया मानसिक भ्रष्टाचार है. विज्ञापन न देने वाले संस्थानों के खिलाफ समाचारों की सीरीज छापना और सौदा तय होने के बाद उसकी तारीफों के पुल बांधना ये भी भ्रष्टाचार का एक रूप ही तो है.
मीडिया देश की जनता को एक दिशा देता है. उसका काम ‘‘वॉच डाग’’ का है कि वह समाज में फैली बुराइयों असमानताओं को उजागर कर मजलूम और पीड़ित व्यक्ति की आवाज को बुलंद करे, पर कितने चैनल या अखबार हैं जो अपने इस पत्रकारीय धर्म को निभा रहे है. शायद उंगलियों पर इनकी संख्या गिनी जा सकती है. अखबारों की आड़ में दूसरे धंधे चलाना यह तो एक परिपाटी बन चुकी है. अब पत्रकार, पत्रकार नहीं होता वह एक नौकर के रूप में अखबारों में काम करता है, क्योंकि उसके हाथ में कलम तो होती है पर उसे लिखना क्या है यह अखबार का मलिक तय करता है, जो पत्रकार या संपादक मालिकों की इस तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाते हैं या अपनी मतभिन्नता प्रकट करते हैं वे दूसरे ही दिन संपादक के चेम्बर से बाहर खड़े से नजर आते हैं.
दूसरों के भ्रष्टाचार को बड़े बड़े हरफों में छापने और दिखाने वाले मीडिया को पहले अपने गरेबां में झांकना होगा कि वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं. यदि जनलोकपाल बिल के घेरे में अधिकारी नेता, न्यायपालिका, सांसद, मंत्री सब आ रहे हैं तो मीडिया को उससे छूट क्यों? होना तो ये चाहिये कि इस लोकपाल बिल के घेरे में मीडिया भी आये क्योंकि अभी मीडिया की शिकायतों के लिये जो भी मंच बने हैं वे बिना नाखूनों वाले बूढ़े शेर हैं, जिनकी चिन्ता कोई मीडिया वाला नहीं करता चाहे वो प्रेस कांउसिल आफ इंडिया हो या फिर कोई दूसरी संस्था. यदि मीडिया वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ है, उसे लगता है कि भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है तो उसे सबसे पहले अपने घर में ही झाड़ू लगाने की शुरुआत करनी होगी और ये दिखाना होगा कि उसकी कथनी और करनी में कोइ फर्क नहीं है.
लेखक चैतन्य भट्ट जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे कई अखबारों में संपादक रहे हैं
यदि मीडिया वाले दिल पर हाथ रखकर सच कहें तो इसका उत्तर न में ही होगा. भ्रष्टाचार क्या सिर्फ किसी से रुपया लेना है? भ्रष्टाचार के तो हजारों रंग हैं. यदि आप पत्रकार हैं और किसी बिना लायसेंस में पकड़े गये व्यक्ति को अपने प्रभाव से यातायात पुलिस की गिरफ्त से छुड़वा देते हैं तो ये भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. अपने अखबार का भय दिखाकर सरकारों से कौडि़यों के दाम जमीन ले लेना, फिर उसका कामर्शियल उपयोग कर उससे करोड़ों रूपये बनाना ये भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आता है. चुनावों के दौरान पैसे लेकर किसी एक पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में खबरें छापना और मतदाताओं को भरमाना भी भ्रष्टाचार है. अखबारों की आड़ में सरकारों को धमकाना और उनसे अपने धंधे के लिये सुविधायें लेना ये भी तो भ्रष्टाचार ही है. अपने पत्रकारों को बंधुआ मजदूर बनाकर उन्हें कभी भी सेवा से पृथक कर देना यह भी किसी व्यक्ति के साथ किया गया मानसिक भ्रष्टाचार है. विज्ञापन न देने वाले संस्थानों के खिलाफ समाचारों की सीरीज छापना और सौदा तय होने के बाद उसकी तारीफों के पुल बांधना ये भी भ्रष्टाचार का एक रूप ही तो है.
मीडिया देश की जनता को एक दिशा देता है. उसका काम ‘‘वॉच डाग’’ का है कि वह समाज में फैली बुराइयों असमानताओं को उजागर कर मजलूम और पीड़ित व्यक्ति की आवाज को बुलंद करे, पर कितने चैनल या अखबार हैं जो अपने इस पत्रकारीय धर्म को निभा रहे है. शायद उंगलियों पर इनकी संख्या गिनी जा सकती है. अखबारों की आड़ में दूसरे धंधे चलाना यह तो एक परिपाटी बन चुकी है. अब पत्रकार, पत्रकार नहीं होता वह एक नौकर के रूप में अखबारों में काम करता है, क्योंकि उसके हाथ में कलम तो होती है पर उसे लिखना क्या है यह अखबार का मलिक तय करता है, जो पत्रकार या संपादक मालिकों की इस तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाते हैं या अपनी मतभिन्नता प्रकट करते हैं वे दूसरे ही दिन संपादक के चेम्बर से बाहर खड़े से नजर आते हैं.
दूसरों के भ्रष्टाचार को बड़े बड़े हरफों में छापने और दिखाने वाले मीडिया को पहले अपने गरेबां में झांकना होगा कि वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं. यदि जनलोकपाल बिल के घेरे में अधिकारी नेता, न्यायपालिका, सांसद, मंत्री सब आ रहे हैं तो मीडिया को उससे छूट क्यों? होना तो ये चाहिये कि इस लोकपाल बिल के घेरे में मीडिया भी आये क्योंकि अभी मीडिया की शिकायतों के लिये जो भी मंच बने हैं वे बिना नाखूनों वाले बूढ़े शेर हैं, जिनकी चिन्ता कोई मीडिया वाला नहीं करता चाहे वो प्रेस कांउसिल आफ इंडिया हो या फिर कोई दूसरी संस्था. यदि मीडिया वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ है, उसे लगता है कि भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है तो उसे सबसे पहले अपने घर में ही झाड़ू लगाने की शुरुआत करनी होगी और ये दिखाना होगा कि उसकी कथनी और करनी में कोइ फर्क नहीं है.
लेखक चैतन्य भट्ट जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे कई अखबारों में संपादक रहे हैं
दुनिया के सबसे बड़े आतंकी का न्याय होना बाकी है
राजेंद्र प्रसाद सिंह कहिन - विदेश-ब्रह्मांड
आतंक का साम्राज्य अजर-अमर नहीं होता, उसका अंत होना तय है। अंतरराष्ट्रीय आतंक का पर्याय बन चुका ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान की सरजमीं पर अमेरिकी नौसेना कमांडो दस्ते के हाथों 2 मई को जिस तरह मारा गया, उससे तो यही जाहिर होता है। मुसोलिनी व हिटलर का दुखद अंत अब विश्व इतिहास का हिस्सा बन चुका है। हालांकि उनके आतंक का खौफ़ अभी भी दुनिया के ज़ेहन से मिटा नहीं है। और ओसामा तो अभी-अभी मरा है। जाहिर है उसका आतंक इतना जल्द मिटने वाला नहीं है। अमेरिका के खिलाफ ओसामा का 9/11 का इस्लामी जिहाद भी लोगों ने अचरज से देखा। आज उसकी मौत को भी लोग उसी अंदाज में देख रहे हैं।
जिस अमेरिका को अपने विश्व व्यापार केंद्र पर बड़ा दंभ था, वह क्षण भर में ही ताश के घर की तरह धरती पर छितर गया और वह असहाय सा देखता रहा। अपने सैन्य सामर्थ्य पर अमेरिका को भरोसा था, उस रोज उसकी पोल खुल गयी। भीषण आग की लपटों और धूल-धुंआ के लापरवाह बादलों को अमेरिकी साम्राज्य पर पसरते हुए सबने देखा। दौड़ते-भागते व गिरते-पड़ते लोगों की चीख-पुकार सबने सुनी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश पर अलकायदा के बर्बर हमले ने उसके मिथ्या दंभ को सिर्फ एक धक्का दिया कि पूरा अमेरिका दहल गया। हजारों निर्दोष लोग आतंकी हमले में मारे गये। उनके अपनों के आंसू ने धरती को सराबोर कर दिया। हमें तो उस रोज भी आश्चर्य नहीं हुआ था न आज ही। हां, निर्दोष लोगों की अप्राकृतिक मौत पर गहरा सदमा जरूर पहुंचा था। जो अमेरिका खुद को दुर्भेद्य समझता था, अलकायदा सरगना ओसामा ने यह साबित कर दिया कि उसका साम्राज्य भी दुर्भेद्य नहीं है, उसे ध्वस्त किया जा सकता है। अमेरिकी-जनद्रोही नीतियों के खिलाफ़ यह कोई जनक्रांति नहीं थी, यह एक आतंकी हमला था। जाहिर है कोई भी विवेक संपन्न इंसान ऐसे हमलों की तरफ़दारी नहीं कर सकता।
निर्दोष-निहत्थे इराकी अवाम पर जिस तरह मखमूर अमेरिका ने अपना कहर बरपाया, और वह आज भी वहां की धरती और आकाश को जिस तरह रौंद रहा है, उसे भी देख कर कष्ट होता है। अफगानिस्तान के रौंदे जाने का भी दर्द कम नहीं है। आज अमेरिका दुनिया में जो कर रहा है उसे भी हम जायज़ नहीं ठहरा सकते। कुदरत ने अपने ढंग से धरती पर लकीरें खीचीं हैं। जरूरत के हिसाब से उसने हर भूखंड को नदी, पहाड़ और मरुभूमि में बांटा है। कुदरत ने अपने हिसाब से सबको कुछ न कुछ दिया है- किसी को वन-संपदा तो किसी को जल संपदा। किसी को खनिज संपदा तो किसी को उर्वर भूमि। कुदरत ने अगर किसी को मरुभूमि दिया तो उसे हीरे-जवाहरात भी दिये हैं। कुदरत का संदेश स्पष्ट है-मिलजुल कर रहने का। मिल-बांट कर खाने का। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। और इसके लिए भाव-विनिमय का दरकार है न कि युद्ध का। जबकि अमेरिका अकेले ही दुनिया के समस्त सुख-साधनों पर अपना एकाधिकार चाहता है और इसके लिए जो वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। जाहिर है कुदरत के संदेश की अवज्ञा ही युद्ध और महाविनाश के कारण हैं। अमेरिका के आतंकी हमले की फेहरिस्त तो द्रौपदी के चीर से भी लंबी है। फिर भी कोई कृष्ण इस धरती की संतानों को बचाने को ले अब तक आगे नहीं आया! कसक तो हमें इसकी भी है। न्याय तो सबके लिए बराबर होना चाहिए। अमेरिका ने अपने ढंग से ओसामा का न्याय तो कर दिया, मगर अमेरिका का न्याय कौन करेगा?
सभी जानते हैं अमेरिका दुनिया का प्रथम परमाणु बम हमलावर राष्ट्र है। उसने अपने साम्राज्यवादी मनसूबे को ले अबतक कितने षड़यंत्र रचे। अनेक देशों पर हमले किये। वहां की शांति-समृद्धि को ध्वस्त किया। महाविनाश के बीज बोये। कुदरत प्रदत्त जल-वायु को उसने प्रदूषित किया। उर्बर भूमि को बंजर बनाया। पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ा। करोड़ों लोगों के प्राण लिए। अनगिनत मासूमों को अपंग बनाये। मां-बहनों की अस्मत लुटे। एक द्रौपदी की अस्मत को बचाने को ले कृष्ण ने महाभारत रच डाला। अब दुनिया के सताए व सोये हुए लोगों के उठ खड़े होने की बारी है। दुश्मन के खिलाफ़ जिस रोज करोड़ों कृष्ण तन कर खड़े हो जायेंगे उसी रोज मानव-जीवन के महाकाव्य की रचना होगी। न तो हम अमेरिका के न्याय के पैरोकार हो सकते हैं न ही इस्लामी जिहाद का सर्मथन ही कर सकते। हमें यह समझना होगा, दोनों ही विश्व-शांति के लिए घातक हैं। आज दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है उसे भाववादी ईश-कृपा कह कर संतोष कर लेंगे। शांति व सकून के लिए कुछ लोग हवन और यज्ञ करेंगे। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। दुनिया में वियतनाम ने पहली बार अमेरिका को शिकस्त दी थी। लगभग 20 साल तक वियतनामी अवाम से लड़ने के बाद अमेरिका को दबे पांव लौटना पड़ा था। उसके विमानों ने जम कर बम बरसाये। पूरे वियतनाम को रौंद डाला। जिन हाथों में कलम व किताबें होनी चाहिए उन हाथों ने अपनी धरती, मां-बहनों की अस्मत की रक्षा को ले बंदूकें थाम लीं। तब वियतनाम के प्राण पुरूष 80 साल के हो-ची मिन्ह ने कहा था, 'जब तक हमारे शरीर में खून का एक भी कतरा रहेगा तब तक हम अमेरिका के खिलाफ़ लड़ते रहेंगे।' उन्होंने लड़कर दिखाया भी। अन्याय-अविचार अथवा थोपे गये युद्ध के खिलाफ़ यह भी एक जंग का तरीका है। जाहिर है अमेरिका अधिक खतनाक और दुर्दांत है। वह आतंक का प्रायोजक है।
अमेरिका ने ही अपने साम्राज्यवादी मंसूबे को अंजाम देने के लिए ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया, उसे हथियार व धन दिए, हर तरह की सुरक्षा व सहूलियतें उपलब्ध कराए। सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया की नज़रों में उसे नायक बनाया। ओसामा की जीवटता व बहादुरी पर कसीदे कसे। इस बात से पूरी दुनिया वाकिफ़ है कि एक समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तुलना अमेरिका व मैक्सिको की दुर्दांत सेनाओं से दशकों तक लड़ने वाले अमेरिका के मूल निवासी इंडियन के अजेय योद्धा जेरोमिनो से की थी। जब तक लादेन अमेरिकी हितों की रक्षा करता रहा, उसके इशारे पर चलता व खून-खराबा करता रहा तब तक वह अमेरिका का चहेता बना रहा। वह योद्धा रहा। ओसामा में उसे कोई खोट नज़र नहीं आया। और जब उसने अपने आका के नाजायज़ हुक्म को मानने से इनकार कर दिया और तन कर खड़ा हो गया तो अमेरिका ने उसे दुनिया का मोस्ट वांटेड आतंकी घोषित कर दिया। अमेरिका प्रारंभ से ही अपनी सहूलियत के हिसाब से हर चीज़ की पड़ताल करता है। उसकी व्याख्या करता है। यही कारण है कि विश्व व्यापार केंद्र के धाराशाही होने से बौखलाए जार्ज डब्ल्यू बुश ने पूरी दुनिया को दो खेमों में बांटते हुए साफ शब्दों में यह एलान कर दिया कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या आतंकवादियों के साथ हैं। अर्थात जो देश अमेरिका की अराजक नीतियों का समर्थन नहीं करेंगे वे आतंकी राष्ट्र घोषित कर दिये जायेंगे।
26/11 के मुंबई आतंकी हमले के गुनाहगारों के मामले में अमेरिका की चुप्पी और पाकिस्तान की सरजमीं पर ओसामा का मारा जाना काफी कुछ कह जाता है। आज की तारीख में पाकिस्तान क्या सार्वभौम राष्ट्र है? हमें ऐसा नहीं लगता। एक समय पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारत के तत्कलीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को संबोधित कर कहा था, 'पाकिस्तान ने कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं ...'। पाकिस्तान में आज जिस तरह अमेरिकी निशाचर विचरण कर रहे हैं उसे देखते हुए हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने सिर्फ चूड़ियां ही नहीं बल्कि साड़ी भी पहन रखी है। पाकिस्तानी अवाम को यह समझना चाहिए कि जो लोग सत्ता-सलतनत और धन की लालच में आतंकियों को पनाह दे रहे हैं और राष्ट्र की अस्मत अमेरिका के हाथों सौंप रहे हैं वे कतई उसके रहनुमा नहीं हो सकते। पाकिस्तान की धरती को आतंकवाद से मुक्त कराने की जिम्मेवारी अमेरिका की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की होनी चाहिए। पाकिस्तान की मिट्टी में जमहूरियत दिखनी चाहिए। यह हम दोनों मुल्कों की शांति-समृद्धि और स्थायित्व के लिए नितांत ज़रूरी है। भारत और पाकिस्तान अगर साथ-साथ चलने की ठान लें तो अमेरिका के लिए एक बड़ी समस्या उठ खड़ी हो जायेगी। हमें यह समझना चाहिए कि अमेरिका का मकसद आतंकवाद को खत्म करना नहीं है, सिर्फ लड़ते रहना है। युद्ध होंगे तभी तो उसके हथियार बिकेंगे, जबकि हमारा मकसद युद्ध नहीं बल्कि शांति व समृद्धि है। और यह तभी संभव हो सकता है जब दुनिया से सभी तरह के आतंकवाद का खत्मा हो। हमारी भलाई इसी में है कि अमेरिका के निहितार्थ को हम समझें। फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि ओसामा अपने ही गिरोह के खूनी संघर्ष का शिकार हो गया। अमेरिका का न्याय होना बाकी है।
लेखक डा. राजेंद्र प्रसाद सिंह वरिष्ठ पत्रकार तथा पश्चिम बंगाल से प्रकाशित आपका तिस्ता हिमालय के संपादक हैं.
आतंक का साम्राज्य अजर-अमर नहीं होता, उसका अंत होना तय है। अंतरराष्ट्रीय आतंक का पर्याय बन चुका ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान की सरजमीं पर अमेरिकी नौसेना कमांडो दस्ते के हाथों 2 मई को जिस तरह मारा गया, उससे तो यही जाहिर होता है। मुसोलिनी व हिटलर का दुखद अंत अब विश्व इतिहास का हिस्सा बन चुका है। हालांकि उनके आतंक का खौफ़ अभी भी दुनिया के ज़ेहन से मिटा नहीं है। और ओसामा तो अभी-अभी मरा है। जाहिर है उसका आतंक इतना जल्द मिटने वाला नहीं है। अमेरिका के खिलाफ ओसामा का 9/11 का इस्लामी जिहाद भी लोगों ने अचरज से देखा। आज उसकी मौत को भी लोग उसी अंदाज में देख रहे हैं।
जिस अमेरिका को अपने विश्व व्यापार केंद्र पर बड़ा दंभ था, वह क्षण भर में ही ताश के घर की तरह धरती पर छितर गया और वह असहाय सा देखता रहा। अपने सैन्य सामर्थ्य पर अमेरिका को भरोसा था, उस रोज उसकी पोल खुल गयी। भीषण आग की लपटों और धूल-धुंआ के लापरवाह बादलों को अमेरिकी साम्राज्य पर पसरते हुए सबने देखा। दौड़ते-भागते व गिरते-पड़ते लोगों की चीख-पुकार सबने सुनी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश पर अलकायदा के बर्बर हमले ने उसके मिथ्या दंभ को सिर्फ एक धक्का दिया कि पूरा अमेरिका दहल गया। हजारों निर्दोष लोग आतंकी हमले में मारे गये। उनके अपनों के आंसू ने धरती को सराबोर कर दिया। हमें तो उस रोज भी आश्चर्य नहीं हुआ था न आज ही। हां, निर्दोष लोगों की अप्राकृतिक मौत पर गहरा सदमा जरूर पहुंचा था। जो अमेरिका खुद को दुर्भेद्य समझता था, अलकायदा सरगना ओसामा ने यह साबित कर दिया कि उसका साम्राज्य भी दुर्भेद्य नहीं है, उसे ध्वस्त किया जा सकता है। अमेरिकी-जनद्रोही नीतियों के खिलाफ़ यह कोई जनक्रांति नहीं थी, यह एक आतंकी हमला था। जाहिर है कोई भी विवेक संपन्न इंसान ऐसे हमलों की तरफ़दारी नहीं कर सकता।
निर्दोष-निहत्थे इराकी अवाम पर जिस तरह मखमूर अमेरिका ने अपना कहर बरपाया, और वह आज भी वहां की धरती और आकाश को जिस तरह रौंद रहा है, उसे भी देख कर कष्ट होता है। अफगानिस्तान के रौंदे जाने का भी दर्द कम नहीं है। आज अमेरिका दुनिया में जो कर रहा है उसे भी हम जायज़ नहीं ठहरा सकते। कुदरत ने अपने ढंग से धरती पर लकीरें खीचीं हैं। जरूरत के हिसाब से उसने हर भूखंड को नदी, पहाड़ और मरुभूमि में बांटा है। कुदरत ने अपने हिसाब से सबको कुछ न कुछ दिया है- किसी को वन-संपदा तो किसी को जल संपदा। किसी को खनिज संपदा तो किसी को उर्वर भूमि। कुदरत ने अगर किसी को मरुभूमि दिया तो उसे हीरे-जवाहरात भी दिये हैं। कुदरत का संदेश स्पष्ट है-मिलजुल कर रहने का। मिल-बांट कर खाने का। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। और इसके लिए भाव-विनिमय का दरकार है न कि युद्ध का। जबकि अमेरिका अकेले ही दुनिया के समस्त सुख-साधनों पर अपना एकाधिकार चाहता है और इसके लिए जो वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। जाहिर है कुदरत के संदेश की अवज्ञा ही युद्ध और महाविनाश के कारण हैं। अमेरिका के आतंकी हमले की फेहरिस्त तो द्रौपदी के चीर से भी लंबी है। फिर भी कोई कृष्ण इस धरती की संतानों को बचाने को ले अब तक आगे नहीं आया! कसक तो हमें इसकी भी है। न्याय तो सबके लिए बराबर होना चाहिए। अमेरिका ने अपने ढंग से ओसामा का न्याय तो कर दिया, मगर अमेरिका का न्याय कौन करेगा?
सभी जानते हैं अमेरिका दुनिया का प्रथम परमाणु बम हमलावर राष्ट्र है। उसने अपने साम्राज्यवादी मनसूबे को ले अबतक कितने षड़यंत्र रचे। अनेक देशों पर हमले किये। वहां की शांति-समृद्धि को ध्वस्त किया। महाविनाश के बीज बोये। कुदरत प्रदत्त जल-वायु को उसने प्रदूषित किया। उर्बर भूमि को बंजर बनाया। पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ा। करोड़ों लोगों के प्राण लिए। अनगिनत मासूमों को अपंग बनाये। मां-बहनों की अस्मत लुटे। एक द्रौपदी की अस्मत को बचाने को ले कृष्ण ने महाभारत रच डाला। अब दुनिया के सताए व सोये हुए लोगों के उठ खड़े होने की बारी है। दुश्मन के खिलाफ़ जिस रोज करोड़ों कृष्ण तन कर खड़े हो जायेंगे उसी रोज मानव-जीवन के महाकाव्य की रचना होगी। न तो हम अमेरिका के न्याय के पैरोकार हो सकते हैं न ही इस्लामी जिहाद का सर्मथन ही कर सकते। हमें यह समझना होगा, दोनों ही विश्व-शांति के लिए घातक हैं। आज दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है उसे भाववादी ईश-कृपा कह कर संतोष कर लेंगे। शांति व सकून के लिए कुछ लोग हवन और यज्ञ करेंगे। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। दुनिया में वियतनाम ने पहली बार अमेरिका को शिकस्त दी थी। लगभग 20 साल तक वियतनामी अवाम से लड़ने के बाद अमेरिका को दबे पांव लौटना पड़ा था। उसके विमानों ने जम कर बम बरसाये। पूरे वियतनाम को रौंद डाला। जिन हाथों में कलम व किताबें होनी चाहिए उन हाथों ने अपनी धरती, मां-बहनों की अस्मत की रक्षा को ले बंदूकें थाम लीं। तब वियतनाम के प्राण पुरूष 80 साल के हो-ची मिन्ह ने कहा था, 'जब तक हमारे शरीर में खून का एक भी कतरा रहेगा तब तक हम अमेरिका के खिलाफ़ लड़ते रहेंगे।' उन्होंने लड़कर दिखाया भी। अन्याय-अविचार अथवा थोपे गये युद्ध के खिलाफ़ यह भी एक जंग का तरीका है। जाहिर है अमेरिका अधिक खतनाक और दुर्दांत है। वह आतंक का प्रायोजक है।
अमेरिका ने ही अपने साम्राज्यवादी मंसूबे को अंजाम देने के लिए ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया, उसे हथियार व धन दिए, हर तरह की सुरक्षा व सहूलियतें उपलब्ध कराए। सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया की नज़रों में उसे नायक बनाया। ओसामा की जीवटता व बहादुरी पर कसीदे कसे। इस बात से पूरी दुनिया वाकिफ़ है कि एक समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तुलना अमेरिका व मैक्सिको की दुर्दांत सेनाओं से दशकों तक लड़ने वाले अमेरिका के मूल निवासी इंडियन के अजेय योद्धा जेरोमिनो से की थी। जब तक लादेन अमेरिकी हितों की रक्षा करता रहा, उसके इशारे पर चलता व खून-खराबा करता रहा तब तक वह अमेरिका का चहेता बना रहा। वह योद्धा रहा। ओसामा में उसे कोई खोट नज़र नहीं आया। और जब उसने अपने आका के नाजायज़ हुक्म को मानने से इनकार कर दिया और तन कर खड़ा हो गया तो अमेरिका ने उसे दुनिया का मोस्ट वांटेड आतंकी घोषित कर दिया। अमेरिका प्रारंभ से ही अपनी सहूलियत के हिसाब से हर चीज़ की पड़ताल करता है। उसकी व्याख्या करता है। यही कारण है कि विश्व व्यापार केंद्र के धाराशाही होने से बौखलाए जार्ज डब्ल्यू बुश ने पूरी दुनिया को दो खेमों में बांटते हुए साफ शब्दों में यह एलान कर दिया कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या आतंकवादियों के साथ हैं। अर्थात जो देश अमेरिका की अराजक नीतियों का समर्थन नहीं करेंगे वे आतंकी राष्ट्र घोषित कर दिये जायेंगे।
26/11 के मुंबई आतंकी हमले के गुनाहगारों के मामले में अमेरिका की चुप्पी और पाकिस्तान की सरजमीं पर ओसामा का मारा जाना काफी कुछ कह जाता है। आज की तारीख में पाकिस्तान क्या सार्वभौम राष्ट्र है? हमें ऐसा नहीं लगता। एक समय पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारत के तत्कलीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को संबोधित कर कहा था, 'पाकिस्तान ने कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं ...'। पाकिस्तान में आज जिस तरह अमेरिकी निशाचर विचरण कर रहे हैं उसे देखते हुए हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने सिर्फ चूड़ियां ही नहीं बल्कि साड़ी भी पहन रखी है। पाकिस्तानी अवाम को यह समझना चाहिए कि जो लोग सत्ता-सलतनत और धन की लालच में आतंकियों को पनाह दे रहे हैं और राष्ट्र की अस्मत अमेरिका के हाथों सौंप रहे हैं वे कतई उसके रहनुमा नहीं हो सकते। पाकिस्तान की धरती को आतंकवाद से मुक्त कराने की जिम्मेवारी अमेरिका की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की होनी चाहिए। पाकिस्तान की मिट्टी में जमहूरियत दिखनी चाहिए। यह हम दोनों मुल्कों की शांति-समृद्धि और स्थायित्व के लिए नितांत ज़रूरी है। भारत और पाकिस्तान अगर साथ-साथ चलने की ठान लें तो अमेरिका के लिए एक बड़ी समस्या उठ खड़ी हो जायेगी। हमें यह समझना चाहिए कि अमेरिका का मकसद आतंकवाद को खत्म करना नहीं है, सिर्फ लड़ते रहना है। युद्ध होंगे तभी तो उसके हथियार बिकेंगे, जबकि हमारा मकसद युद्ध नहीं बल्कि शांति व समृद्धि है। और यह तभी संभव हो सकता है जब दुनिया से सभी तरह के आतंकवाद का खत्मा हो। हमारी भलाई इसी में है कि अमेरिका के निहितार्थ को हम समझें। फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि ओसामा अपने ही गिरोह के खूनी संघर्ष का शिकार हो गया। अमेरिका का न्याय होना बाकी है।
लेखक डा. राजेंद्र प्रसाद सिंह वरिष्ठ पत्रकार तथा पश्चिम बंगाल से प्रकाशित आपका तिस्ता हिमालय के संपादक हैं.
पुलिस के वांटेड लिस्ट में मीडियाकर्मी भी
भड़ास4मीडिया
जमीन अधिग्रहण के मामले में यमुना एक्सप्रेस वे पर आगरा में रविवार को हुए बवाल के चौबीस घंटे बाद पुलिस ने ग्रामीणों के पोस्टर जारी कर दिए हैं. पुलिस ने उपद्रवियों की लिस्ट में सोलह लोगों का फोटो जारी किया है. इस पोस्टर में पुलिस ने एक मीडियाकर्मी तथा एक नाबालिग बच्चे को भी शामिल किया है. बाद मीडियाकर्मी की तस्वीर छपने की सूचना के बाद डीआईजी ने तस्वीर हटाने के निर्देश दे दिए.
आगरा के गढ़ी रामी में हुए बवाल की तस्वीरों से पुलिस ने 'इनकी तलाश है' शीर्षक से पोस्टर जारी किए. इसमें कुल सोलह तस्वीरें प्रकाशित की गई हैं. इस पोस्टर के दूसरे कॉलम की तीसरी तस्वीर एत्मादपुर के एक मीडिया कर्मी की है. समझौता वार्ता के दौरान जब पुलिस-प्रशासन की तरफ से ग्रामीणों को पोस्टर दिखाया गया तो उन्होंने तस्वीर में दिख रहे मीडियाकर्मी को निर्दोष बताया.
डीआईजी असीम अरुण ने बताया कि यह पोस्टर इसलिए जारी किया गया है, जिससे तस्वीरें देखकर ग्रामीण जानकारी दे सकें. उन्होंने कहा कि जिन निर्दोष लोगों की तस्वीर पोस्टर में छप गई है, उन्हें हटाने के निर्देश जारी कर दिए गए हैं. डीआईजी ने बताया कि पोस्टर में प्रकाशित लोगों के बारे में सूचना देने वालों के नाम गोपनीय रखे जाएंगे. उन्होंने बताया कि बवाल करके मुकदमे के बवालियों पर डकैती और बलवे के धाराओं के साथ गैंगस्टर में भी बढ़ो की गई है, परन्तु जांच पूरी होने तक किसी की गिरफ्तारी नहीं होगी.
जमीन अधिग्रहण के मामले में यमुना एक्सप्रेस वे पर आगरा में रविवार को हुए बवाल के चौबीस घंटे बाद पुलिस ने ग्रामीणों के पोस्टर जारी कर दिए हैं. पुलिस ने उपद्रवियों की लिस्ट में सोलह लोगों का फोटो जारी किया है. इस पोस्टर में पुलिस ने एक मीडियाकर्मी तथा एक नाबालिग बच्चे को भी शामिल किया है. बाद मीडियाकर्मी की तस्वीर छपने की सूचना के बाद डीआईजी ने तस्वीर हटाने के निर्देश दे दिए.
आगरा के गढ़ी रामी में हुए बवाल की तस्वीरों से पुलिस ने 'इनकी तलाश है' शीर्षक से पोस्टर जारी किए. इसमें कुल सोलह तस्वीरें प्रकाशित की गई हैं. इस पोस्टर के दूसरे कॉलम की तीसरी तस्वीर एत्मादपुर के एक मीडिया कर्मी की है. समझौता वार्ता के दौरान जब पुलिस-प्रशासन की तरफ से ग्रामीणों को पोस्टर दिखाया गया तो उन्होंने तस्वीर में दिख रहे मीडियाकर्मी को निर्दोष बताया.
डीआईजी असीम अरुण ने बताया कि यह पोस्टर इसलिए जारी किया गया है, जिससे तस्वीरें देखकर ग्रामीण जानकारी दे सकें. उन्होंने कहा कि जिन निर्दोष लोगों की तस्वीर पोस्टर में छप गई है, उन्हें हटाने के निर्देश जारी कर दिए गए हैं. डीआईजी ने बताया कि पोस्टर में प्रकाशित लोगों के बारे में सूचना देने वालों के नाम गोपनीय रखे जाएंगे. उन्होंने बताया कि बवाल करके मुकदमे के बवालियों पर डकैती और बलवे के धाराओं के साथ गैंगस्टर में भी बढ़ो की गई है, परन्तु जांच पूरी होने तक किसी की गिरफ्तारी नहीं होगी.
कहीं ये तीसरे विश्व युद्ध की नींव तो नहीं
आज जब देर रात्रि को मैंने पढ़ा की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी 17 मई से चीन यात्रा पर जा रहे हैं। चीन यात्रा...चीन यात्रा वो भी ऐसे हाल में की जब लादेन के मारे जाने के बाद अमेरिका का पाकिस्तान पर जवाब देही का इतना दबाव जो बना हुआ है। चीन यात्रा का ख्याल उनके दिमाग में आया भी तो कैसे? शायद यह तीसरे विश्व युद्ध की नींव तो नहीं रखी जा रही है, क्योंकि लादेन के मारे जाने पर पाकिस्तान अमेरिका का कोई कुछ बिगाड़ सकता नहीं, लेकिन ऐसे में चीर प्रतिद्वंद्वी भारत पर नजरें गड़ाए बैठा है कहीं अमेरिका जैसी कार्रवाई भारत भी तो नहीं करने की सोच रहा है, दूसरी ओर अमेरिका भी कुछ हद तक चीन से कटता है और हमेशा से ही खटपट रहती है। गिलानी तीन दिनों तक चीन में ही रहेंगे और न जाने क्या-क्या बातचीत होगी किसी को कोई जानकारी नहीं है। इस विषय में भारत-अमेरिका को सोचने के लिए एक गंभीर मुद्दा भी बन सकता है। इस विषय में मिली जानकारी के अनुसार यह यात्रा दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना के 60वें वर्ष में प्रवेश करने के संबंध में आयोजित की जा रही है। जियांग ने कहा, चीन और पाकिस्तान एक दूसरे के अच्छे पड़ोसी, मित्र और भाई हैं। उन्होंने कहा कि इस यात्रा के दौरान गिलानी दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से राष्ट्रपति हू जिंताओ और प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ से बातचीत करेंगे। जियांग ने कहा कि चीन इस मौके का इस्तेमाल दोनों पक्षों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने के साथ व्यवहारिक सहयोग को बढ़ाने के लिए करने को तैयार है।
WWE Champion John Cena vs. The Miz (“I Quit” Match)
Wearing his signature virtues of hustle, loyalty and respect on his sleeve every time he heads to the ring, WWE Champion John Cena doesn’t have an ounce of quit in him … and neither does his fiercely competitive rival The Miz. However, at WWE Over the Limit, both of these battle-tested ring warriors will put their bodies and careers on the line for WWE’s richest prize in an “I Quit” Match, among the most arduous and brutal contests WWE has to offer.
In an “I Quit” Match, the only way to emerge victorious is to punish one’s opponent to the point where they have no choice but to utter the words “I quit.” In this encounter – its stipulation chosen by Cena himself – there will be no pinfalls, no submissions, no disqualifications, no count-outs and absolutely no mercy from either side. On May 22, there will be no doubt as to which of these Superstars deserves to call themselves “WWE Champion.”
The Cenation Commander-in-Chief vied for The Awesome One’s WWE Championship at WrestleMania XXVII, aiming to end The Era of Awesome on The Grandest Stage of Them All. However, due to outside interference from WrestleMania Host The Rock, The Miz’s WWE Championship reign extended to Extreme Rules in Tampa the following month. There, Cena humbled the self-professed most “must-see” WWE Champion in history with a ring-shaking Attitude Adjustment. Just shy of its 160th day, The Miz’s first WWE Championship reign was over.
The next night on Raw, The Miz’s rule-bending tendencies got the better of him in his explosive rematch with The Champ but was disqualified – an inconclusive outcome. Furious, the former WWE Champion affirmed to his associate Alex Riley that he is not a quitter, and would not rest until Cena’s title was around his “awesome” waist once again.
With 10 World Championships to his credit, Cena’s veteran expertise and familiarity with “I Quit” scenarios involving the WWE Title – including definitive victories over Randy Orton, Batista and JBL – make him seem like the odds-on favorite to remain WWE Champion once the dust has cleared at WWE Over the Limit. However, as the WWE Universe is well aware, The Miz has a mean streak, and will no doubt take full advantage of the callous conditions of this match to vent his frustrations on Cena and take back what he believes is rightfully his.
Will The Champ turn back The Miz once more in this grueling “I Quit” Match? Or will The Awesome One make The Cenation Commander-in-Chief say the two words that have never been in his vocabulary? To find out, order WWE Over the Limit, May 22, live on pay-per-view.
पायलट की बहनों का क्या होगा?
अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री दोरजी खांडू के साथ उनके हेलीकाप्टर में मारे गये पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल तेजेन्दर सिंह ममिक तीनों बहनों चरणजीत, पिंकी तथा रेनू का एकमात्र सहारा थे। सरकार ने उनके मरने भाई के नाम से राशि को देने की घोषणा कर दी, लेकिन उनके भविष्य के बारे में अभी शायद किसी ने कुछ भी नहीं सोचा है। उनका भाई उनका एकमात्र सहारा था जोकि अब इस दुनिया में नहीं रहा है। सरकार को इस बारे में एक बार गहनता से जरूर सोचने की जरूरत है और वह भी ऐसी स्थिति में कि जब तीनों बहने अविवाहित हैं। उनका पेट अब कौन भरेगा सरकार या फिर कोई गैर। मेरा मानना है कि इस दुनिया में जब समय पर अपने तक साथ छोड़ जाते हैं तो गैर तो कौन किसका लगता है। उन्हें अभी पढऩा है, सपनों को पूरा करना है, कुछ बनना है न जाने क्या-क्या सपनों को अपने जीवन में संजौया होगा। इसलिए सरकार को उनके ही नहीं बल्कि अपने प्रदेश और इस देश के तीन भविष्यों के बारे में जरूर सोचना चाहिए। यू तो सरकार कहती है कि लड़कियां लड़कों से कम नहीं होती, लेकिन ऐसी स्थिति जब सिर पर किसी का हाथ ही ना हो वह क्या-क्या कर सकती है। क्या वह अब ऐसी अनाथ कहलाएंगी जिनका अपना कोई भी नहीं है। यहां तक कि जिनके साथ पायलट ने अपनी जान गवा दी उसके परिवार वालों ने उनके बारे में सोचा तक नहीं। या फिर सरकार के विशेष आला अधिकारी ने उनकी सुध ली और आश्वासन दिया हो की उनका खर्च अब सरकार उठाएगी।
गौरतलब है कि मातमी सन्नाटे में उनकी तीन बहनों की चीखों और सिसकियों के अलावा कोई और आवाज नहीं है। मूलत: पंजाब के निवासी ममिक भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद पवन हंस के लिये अपनी सेवाएं दे रहे थे। खांडू के साथ उन्हें भी अपनी जान गंवानी पड़ी है। उनके परिवार में वर्तमान में केवल तीन अविवाहित बहनें हैं जिनकी सीधी जिम्मेदारी ममिक पर ही थी। पत्नी के साथ उनका अलगाव हो चुका था।
गौरतलब है कि मातमी सन्नाटे में उनकी तीन बहनों की चीखों और सिसकियों के अलावा कोई और आवाज नहीं है। मूलत: पंजाब के निवासी ममिक भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद पवन हंस के लिये अपनी सेवाएं दे रहे थे। खांडू के साथ उन्हें भी अपनी जान गंवानी पड़ी है। उनके परिवार में वर्तमान में केवल तीन अविवाहित बहनें हैं जिनकी सीधी जिम्मेदारी ममिक पर ही थी। पत्नी के साथ उनका अलगाव हो चुका था।
लादेन तो मर गया अब रोणा पिटणा क्यातैं?
आजकल सुर्खियों को विषय अभी भी बना हुआ है लादेन। लादेन वो जो पिछले दिनों अमेरिकी सेना के हाथों मारो गया जिसे कफन तक नसीब न हुआ और उसे संमन्दर के अन्दर दफना दिया गया और उसे परिवार को गिरफ्तार कर पुछताछ शुरू कर दी गई। इस दौरान यह बात सबसे बड़ी सामने आई है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा झूठा पाकिस्तान साबित हुआ और उसे अमेरिका को जवाब देना मुश्किल हो गया है। पाकिस्तान हर बार कहता रहा लादेन हमारे पास नहीं है और ना ही वह पाकिस्तान में है, लेकिन उसे परिवार (लादेन) ने बताया कि लादेन पिछले पांच सालों से पाकिस्तान में रह रहा था। खैर लादेन तो मर गया अब बात पाकिस्तान की जोकि लठ और दिवार के बीच फंस चुका है। जवाब देता तो मरेगा या फिर नहीं देगा तो भी मरेगा क्योंकि पाकिस्तान में बैठे राजनेता कभी कोई-कभी कोई कहता है लादेन के बारे में हमें पता नहीं, लादेन के साथ अमेरिका ने गलत किया, भारत ऐसी कार्यवाही करेगा उसे देख लेंगे।
पाकिस्तान भाई जब अमेरिका ने आपके देश में घुसकर इतने बड़ सरगना को ढ़ेर कर दिया और पता तक नहीं चला फिर यह तो भारत देश है। यह तो सुरंग बनाकर भी आक्रमण करने में माहिर है। लादेन पाकिस्तान में ही था, वहीं पर मारा गया, लेकिन अब देखना यह है कि पाकिस्तान अमेरिका को क्या जवाब देता है और उस पर अमेरिका क्या कार्रवाई करता है? उसके बाद भारत का रोल भी अलग से पैदा होगा।
पाक से लडऩे को तैयार था अमेरिका
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को पकडऩे या मारने के मिशन पर भेजे कमांडरों को ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से संघर्ष होने पर उनसे मुकाबला करने के लिए अधिकृत किया था।
न्यू यॉर्क टाइम्स में छपी एक खबर में कहा गया है कि अपने कुछ सलाहकारों की इच्छा को खारिज करते हुए ओबामा ने अपने लड़ाकू दल का आकार बड़ा करने पर जोर दिया, ताकि ऑपरेशन के दौरान संघर्ष होने पर वे पाकिस्तानी बलों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सकें।
पाकिस्तान पहले ही यह कह चुका है कि उसने ऐबटाबाद में अपने जेट विमानों और सौनिकों को बुला लिया था लेकिन अमेरिकी नेवी सील के कमांडो 40 मिनट में ऑपरेशन पूरा करके वहां से जा चुके थे।
न्यू यॉर्क टाइम्स ने कहा है कि पाकिस्तान भेजे गए दल का आकार बढ़ाने का ओबामा का फैसला बताता है कि ओबामा को अल कायदा प्रमुख को पकडऩे या मारने के लिए अपने एक करीबी सहयोगी के साथ सैन्य टकराव का खतरा मोल लेने में भी कोई परहेज नहीं था।
खबर में कहा गया है ऐसा टकराव होता तो ऑपरेशन की तुलना में पाकिस्तान की संप्रभुता के साथ कहीं अधिक बड़ा उल्लंघन होता। इस्लामाबाद में अधिकारियों को पता चल गया था कि नेवी सील दल के सदस्यों को लेकर हेलिकॉप्टर उनके किसी शहर की ओर गए हैं। इन हेलीकॉप्टरों का पता नहीं चल पाया था और फिर ऐबटाबाद के कैंपस पर हमला हुआ, जहां लादेन छिपा था।
ओबामा प्रशासन के एक सीनियर अधिकारी ने कहा, 'आदेश दिया गया था कि जहां तक संभव हो, वह कोई भी टकराव टालें। लेकिन यदि स्थिति प्रतिकूल होती तो उन्हें इसका मुकाबला करने के लिए अधिकृत किया गया था।' रिपोर्ट में कहा गया है योजना से यह भी पता चलता है कि ओबामा प्रशासन ने पाकिस्तानियों पर कितना कम भरोसा किया। उन्होंने पाकिस्तानियों को ऑपरेशन से जोडऩे का प्रस्ताव भी खारिज कर दिया था।
मूल योजना थी कि दो हेलिकॉप्टर ऐबटाबाद भेजे जाएंगे और दो हेलिकॉप्टर सीमा पर अफगानिस्तान के हिस्से में रुक कर यह इंतजार करेंगे और यदि उनकी जरूरत पड़ती है तो वे जाएंगे। इनकी लादेन के कैंपस से दूरी 90 मिनट होगी। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से टकराव की स्थिति में जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन सशस्त्र संघर्ष टालने के लिए अपने पाकिस्तानी समकक्षों से बात करते।
अखबार के अनुसार, प्रशासनिक अधिकारियों ने कहा कि ओबामा ने हमले से 10 दिन पहले योजनाओं की समीक्षा की और चिंता जताई कि ऑपरेशन पर जाने वाले सैनिकों की सुरक्षा के लिए यह पर्याप्त नहीं है। इसके बाद अतिरिक्त बलों को लेकर दो और हेलिकॉप्टर भेजने का फैसला किया गया। इन हेलिकॉप्टरों के पीछे दो प्रमुख ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर भेजे गए, जिनमें हमला करने वाला वास्तविक दल था।
जब पाकिस्तानियों के साथ कोई टकराव नहीं हुआ और उतरते समय एक ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर क्षतिग्रस्त हो गया तो साथ आए दो अतिरिक्त में से एक हेलिकॉप्टर को हमले वाले स्थान पर लाया गया।
अखबार ने यह भी कहा है कि पूरे ऑपरेशन के दौरान विशेषज्ञों के दो दल बिल्कुल तैयार खड़े थे। पहला दल लादेन के मारे जाने की स्थिति में उसे दफनाने के लिए तैयार था और दूसरा दल लादेन के जीवित पकड़े जाने की स्थिति में उससे पूछताछ के लिए तैयार था। इस दल में वकील, पूछताछ करने वाले और दुभाषिए शामिल थे।
न्यू यॉर्क टाइम्स में छपी एक खबर में कहा गया है कि अपने कुछ सलाहकारों की इच्छा को खारिज करते हुए ओबामा ने अपने लड़ाकू दल का आकार बड़ा करने पर जोर दिया, ताकि ऑपरेशन के दौरान संघर्ष होने पर वे पाकिस्तानी बलों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सकें।
पाकिस्तान पहले ही यह कह चुका है कि उसने ऐबटाबाद में अपने जेट विमानों और सौनिकों को बुला लिया था लेकिन अमेरिकी नेवी सील के कमांडो 40 मिनट में ऑपरेशन पूरा करके वहां से जा चुके थे।
न्यू यॉर्क टाइम्स ने कहा है कि पाकिस्तान भेजे गए दल का आकार बढ़ाने का ओबामा का फैसला बताता है कि ओबामा को अल कायदा प्रमुख को पकडऩे या मारने के लिए अपने एक करीबी सहयोगी के साथ सैन्य टकराव का खतरा मोल लेने में भी कोई परहेज नहीं था।
खबर में कहा गया है ऐसा टकराव होता तो ऑपरेशन की तुलना में पाकिस्तान की संप्रभुता के साथ कहीं अधिक बड़ा उल्लंघन होता। इस्लामाबाद में अधिकारियों को पता चल गया था कि नेवी सील दल के सदस्यों को लेकर हेलिकॉप्टर उनके किसी शहर की ओर गए हैं। इन हेलीकॉप्टरों का पता नहीं चल पाया था और फिर ऐबटाबाद के कैंपस पर हमला हुआ, जहां लादेन छिपा था।
ओबामा प्रशासन के एक सीनियर अधिकारी ने कहा, 'आदेश दिया गया था कि जहां तक संभव हो, वह कोई भी टकराव टालें। लेकिन यदि स्थिति प्रतिकूल होती तो उन्हें इसका मुकाबला करने के लिए अधिकृत किया गया था।' रिपोर्ट में कहा गया है योजना से यह भी पता चलता है कि ओबामा प्रशासन ने पाकिस्तानियों पर कितना कम भरोसा किया। उन्होंने पाकिस्तानियों को ऑपरेशन से जोडऩे का प्रस्ताव भी खारिज कर दिया था।
मूल योजना थी कि दो हेलिकॉप्टर ऐबटाबाद भेजे जाएंगे और दो हेलिकॉप्टर सीमा पर अफगानिस्तान के हिस्से में रुक कर यह इंतजार करेंगे और यदि उनकी जरूरत पड़ती है तो वे जाएंगे। इनकी लादेन के कैंपस से दूरी 90 मिनट होगी। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से टकराव की स्थिति में जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन सशस्त्र संघर्ष टालने के लिए अपने पाकिस्तानी समकक्षों से बात करते।
अखबार के अनुसार, प्रशासनिक अधिकारियों ने कहा कि ओबामा ने हमले से 10 दिन पहले योजनाओं की समीक्षा की और चिंता जताई कि ऑपरेशन पर जाने वाले सैनिकों की सुरक्षा के लिए यह पर्याप्त नहीं है। इसके बाद अतिरिक्त बलों को लेकर दो और हेलिकॉप्टर भेजने का फैसला किया गया। इन हेलिकॉप्टरों के पीछे दो प्रमुख ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर भेजे गए, जिनमें हमला करने वाला वास्तविक दल था।
जब पाकिस्तानियों के साथ कोई टकराव नहीं हुआ और उतरते समय एक ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर क्षतिग्रस्त हो गया तो साथ आए दो अतिरिक्त में से एक हेलिकॉप्टर को हमले वाले स्थान पर लाया गया।
अखबार ने यह भी कहा है कि पूरे ऑपरेशन के दौरान विशेषज्ञों के दो दल बिल्कुल तैयार खड़े थे। पहला दल लादेन के मारे जाने की स्थिति में उसे दफनाने के लिए तैयार था और दूसरा दल लादेन के जीवित पकड़े जाने की स्थिति में उससे पूछताछ के लिए तैयार था। इस दल में वकील, पूछताछ करने वाले और दुभाषिए शामिल थे।
मिटने लगी इंटरनेट से खरीददारी की झिझक
भारत में जिस तेजी से इंटरनेट ने पांव पसारे हैं, उसके मुकाबले यहां ई-कॉमर्स के विस्तार को लेकर आशंकाएं जताई जाती रही हैं। दस करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूज़र्स के देश में ऑनलाइन खरीद-फरोख्त की मात्रा छोटे-छोटे यूरोपीय देशों से भी कम रही है जिसके लिए सरकारी प्रोत्साहन की कमी से लेकर ढांचागत समस्याओं और पेमेंट गेटवे सेवाओं की खामियों को दोषी माना गया है। लेकिन विश्व व्यापी वेब सेवाओं के आगमन के डेढ़ दशक बाद अब हालात तेजी से बदलते दिखाई दे रहे हैं। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) की ताजा रपट के अनुसार सन 2011 में भारत का ई-कॉमर्स व्यापार 46,520 करोड़ के स्तर को छूने जा रहा है।
ई-कॉमर्स एक ऐसा तंत्र है बाजार को उपभोक्ता के घर तक ला रहा है। वह आपको अपने ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे घर की जरूरतें पूरी करने का जरिया मुहैया करा रही हैं। अपनी कंप्यूटर स्क्रीन पर बैठे-बैठे ही विभिन्न कंपनियों के उत्पादों और सेवाओं के बीच तुलना करने और चुनाव करने की आजादी भी कोई छोटी चीज नहीं है। समय और दूरी की अवधारणाओं को अप्रासंगिक बनाते हुए वह एक बड़ी किंतु मौन व्यापारिक क्रांति करने में लगी हुई है।
देश में इंटरनेट के जरिए होने वाले कारोबार का आकार 2009 के अंत में 19,688 करोड़ था जो अगला साल खत्म होते-होते 31,598 करोड़ तक जा पहुंचा था, यानी कि करीब 12 हजार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी। इस साल यही बढ़ोतरी 15 हजार करोड़ तक जा पहुंची है जिससे जाहिर है कि भारत में ई-कॉमर्स का बाजार और सुविधाएं धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर बढ़ रही हैं। न सिर्फ कारोबार का आंकड़ा बढ़ रहा है बल्कि वृद्धि दर में भी वृद्धि हो रही है। यह आंकड़ा यह भी सिद्ध करता है कि आम हिंदुस्तानी नागरिक आर्थिक मजबूती की ओर बढ़ रहा है और उसमें शिक्षा, जागरूकता तथा तकनीकी सक्षमता का स्तर भी लगातार बेहतर हुआ है। लगता है, इंटरनेट से चीजें खरीदने के प्रति लोगों की झिझक धीरे-धीरे दूर हो रही है।
इस बीच, ऑनलाइन कारोबार करने वाली भारतीय कंपनियों की विश्वसनीयता में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। इंटरनेट आधारित बाजार में यह पहलू बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां यूज़र और विक्रेता एक दूसरे से सैंकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर होते हैं और उपभोक्ता को अपना फैसला उत्पाद के चित्र या विवरण भर के आधार पर करना होता है।
कुछ साल पहले भारत में ई-कॉमर्स को नाकाम बताने वाले मार्केटिंग जगत के दिग्गजों का कहना था कि भारतीय उपभोक्ता पारंपरिक ढंग से खरीददारी करने का आदी है और जब तक वह उत्पाद को अच्छी तरह देख-भाल और उलट-पलट न ले,उसकी जेब से एक पैसा भी निकवालना टेढ़ी खीर है। बहरहाल,ई-कॉमर्स संबंधी ताजातरीन अनुमानों से जाहिर है कि भारतीय इंटरनेट उपभोक्ता भी इस मामले में एक व्यापक वैश्विक रूख के अनुरूप आचरण करने लगा है। भारत की प्रमुख ईकॉमर्स कंपनी ईबे इंडिया का अनुभव भी इससे मेल खाता है जिसका मानना है कि इस साल उसके कारोबार में 50 से 60 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होने जा रही है।
ई-कॉमर्स एक ऐसा तंत्र है बाजार को उपभोक्ता के घर तक ला रहा है। वह आपको अपने ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे घर की जरूरतें पूरी करने का जरिया मुहैया करा रही हैं। अपनी कंप्यूटर स्क्रीन पर बैठे-बैठे ही विभिन्न कंपनियों के उत्पादों और सेवाओं के बीच तुलना करने और चुनाव करने की आजादी भी कोई छोटी चीज नहीं है। समय और दूरी की अवधारणाओं को अप्रासंगिक बनाते हुए वह एक बड़ी किंतु मौन व्यापारिक क्रांति करने में लगी हुई है।
देश में इंटरनेट के जरिए होने वाले कारोबार का आकार 2009 के अंत में 19,688 करोड़ था जो अगला साल खत्म होते-होते 31,598 करोड़ तक जा पहुंचा था, यानी कि करीब 12 हजार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी। इस साल यही बढ़ोतरी 15 हजार करोड़ तक जा पहुंची है जिससे जाहिर है कि भारत में ई-कॉमर्स का बाजार और सुविधाएं धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर बढ़ रही हैं। न सिर्फ कारोबार का आंकड़ा बढ़ रहा है बल्कि वृद्धि दर में भी वृद्धि हो रही है। यह आंकड़ा यह भी सिद्ध करता है कि आम हिंदुस्तानी नागरिक आर्थिक मजबूती की ओर बढ़ रहा है और उसमें शिक्षा, जागरूकता तथा तकनीकी सक्षमता का स्तर भी लगातार बेहतर हुआ है। लगता है, इंटरनेट से चीजें खरीदने के प्रति लोगों की झिझक धीरे-धीरे दूर हो रही है।
इस बीच, ऑनलाइन कारोबार करने वाली भारतीय कंपनियों की विश्वसनीयता में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। इंटरनेट आधारित बाजार में यह पहलू बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां यूज़र और विक्रेता एक दूसरे से सैंकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर होते हैं और उपभोक्ता को अपना फैसला उत्पाद के चित्र या विवरण भर के आधार पर करना होता है।
कुछ साल पहले भारत में ई-कॉमर्स को नाकाम बताने वाले मार्केटिंग जगत के दिग्गजों का कहना था कि भारतीय उपभोक्ता पारंपरिक ढंग से खरीददारी करने का आदी है और जब तक वह उत्पाद को अच्छी तरह देख-भाल और उलट-पलट न ले,उसकी जेब से एक पैसा भी निकवालना टेढ़ी खीर है। बहरहाल,ई-कॉमर्स संबंधी ताजातरीन अनुमानों से जाहिर है कि भारतीय इंटरनेट उपभोक्ता भी इस मामले में एक व्यापक वैश्विक रूख के अनुरूप आचरण करने लगा है। भारत की प्रमुख ईकॉमर्स कंपनी ईबे इंडिया का अनुभव भी इससे मेल खाता है जिसका मानना है कि इस साल उसके कारोबार में 50 से 60 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होने जा रही है।
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