शायद आज देश की जनता के पास विपक्ष में कोई ऐसी पार्टी नहीं बची है जो केंद्र में कांग्रेस को छोड़कर शासन कर सके, क्योंकि आज जिस दौर से देश गुजर रहा है वहां फिर उसी मोड पर लाकर खड़ा कर दिया गया जब यह इस्ट इंडिया कंपनी के समय में हुआ था। हुआ था यूं कि कंपनी ने अपनी धाक जमाने के लिए इंडिया में व्यापार ही शुरू किया था और उसे बड़ी मेहनत के बाद यहां से भगाया गया था। फिर वही होने वाला है। आज देश में पक्ष-विपक्ष के चक्कर में जहां एक ओर गरीबों को एक वक्त की रोटी के लाले पड़े होते हैं वहीं किसी एक मुद्दे को लेकर विपक्ष-पक्ष में खिंचतान के चलते संसद बार-बार ठप्प होने से करोड़ों रुपए का नुकसान हो रहा है। बात भी सिरे नहीं चढ़ रही है। आज भारत देश कप्र्सन से भरा हुआ है। यहां तक की यदि कोई गांव का सरपंच तक भी कोई नीलामी सूचना लगता है तो यदि बिल यदि 500 रुपए का होता है तो वह चाहता है कि बिल 1000 रुपए का हो जाए तो 500 रुपए से खर्चा-पानी निकल जाएगा। इसी छोटी सी सोच एक दिन बड़ी होती चली जाती है। यदि कारण हैं कि एक सरपंच और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर आज बड़़े-बड़े पदों का नाम भी इस कप्र्सन की लिस्ट में शामिल हो चुका है। कमी इस बात कि है की देश की जनता के पास आज विपक्ष में कोई मजबूत शासन नहीं मिल रहा है।
मजबूत शासक मिल भी सकता है यदि भाजपा चाहे तो। भाजपा चाहे तो हां और और अपना नरेंद्र मोदी। नरेंद्र मोदी की सोच, विचार, हाव-भाव, एक राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए उसे तरक्की की ओर लेकर जाना इस बात का सूचक है कि भाजपा के पास एक ऐसा विकल्प है जिस आज के समय में देश की जनता नहीं नकार सकती है। सभी उसी को मानते हैं, लेकिन भाजपा के बड़े विपक्षी नेता इस बात से सहमत तक नहीं है यहां तक कि भाजपा के वरिष्ठï नेता लालकृष्ण आडवाणी तक भी नरेंद्र मोदी को आगे लाने कतरा रहे हैं। वो भी क्यों, क्योंकि यदि वो केंद्र में पीएम की होड़ में शामिल हो जाते हैं तो आडवाणी को कोई पूछने वाला तक नहीं बचेगा। आज पक्ष या विपक्ष सभी को अपनी कुर्सी से लगाव है सभी सुर्खियों में आने को बेताब होने लगते हैं और रही बात केंद्र सरकार की केंद्र को जब सोसल नेटवर्कींग साईटों पर उनके खिलाफ चित्र डालना या लिखना तक पसंद नहीं आया तो उसे बंद करने के लिए कपिल सिब्बल को आगे लाया गया जिन्होंने पिछले दिनों खूब अपनी भडांस निकाली। इस बात से यह साबित होता है कि केंद्र सरकार हर बात को लेकर अपनी बूराई नहीं सहज करना चाहती है। यह केंद्र सरकार का हिटलर रूपी कारनामा है जो वो आज इस समय आजमा रही है। देश की जनता जागो और इस देश को बचाने में अन्ना हजारे की मदद करो ताकि यह देश फिर से सोने की चिडिय़ा कहला सके। हमें मांगने के लिए बाहर नहीं जाना पड़े, बल्कि अन्य देशों को मांगने के लिए हमारे पास आना पड़े।
Tuesday, December 13, 2011
हाए..रे...हाए...लगे रहो अन्नाभाई
भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध में दुश्मन के विमानों की बमबारी का मुकाबला करने वाले सेना के जीप चालक अन्ना हजारे जब स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद अपने गांव लौटे थे, तब उनका लक्ष्य भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ना नहीं था लेकिन इस आंदोलन के वह सबसे मुखर व्यक्ति बन गए हैं। भ्रष्टाचार निरोधक कानून को लेकर अन्ना हजारे के नाम से मशहूर किसान बाबूराव हजारे नई दिल्ली स्थित जंतर मंतर पर आमरण अनशन कर रहे हैं। मैग्सायसाय पुरस्कार से नवाजे जा चुके हजारे का जन्म महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के रोलेगन सिद्धी में एक कृषक परिवार में 15 जून 1938 को हुआ था। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार ने युवकों से सेना में शामिल होने की अपील की। हजारे उन युवकों में शामिल थे जो 1963 में सेना में शामिल हुए। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वह खेमकारन सेक्टर में तैनात थे, जहां पाकिस्तानी लड़ाकू विमानों ने भारतीय मोर्चे पर बमबारी की। उन्होंने अपने साथियों को वहां शहीद होते देखा, जिसके चलते उन्होंने अविवाहित रहने का फैसला किया।
सेना में 1960 में वाहन चालक के पद पर रहने के दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे के बारे में काफी अध्ययन किया। सेना में 15 साल की सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर वह 1975 में अपने गांव रालेगण सिद्धी लौट आए। उन्हें अपने गांव में सूखा, गरीबी, अपराध और मद्यपान जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने ग्रामीणों को नहर बनाने और बांध बनाकर पानी का संग्रह करने में मदद करने के लिए प्रेरित किया ताकि गांव में सिंचाई की संभावनाएं बढ़ सकें। साक्षरता कार्यक्रम भी चलाए गए, जिससे उनके गांव को एक आदर्श गांव बनने में मदद मिली। इस प्रयोग ने उन्हें देश भर में मशहूर कर दिया। उस वक्त उनका सामना महाराष्ट्र के वन विभाग के अधिकारियों के भ्रष्टाचार से हुआ। वह पुणे के नजदीक अलंदी में भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनके आंदोलन ने शासन को हिला कर रख दिया और आरोपी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हुई। उन्होंने 1991 में ‘भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन‘ का गठन किया जिसका धीरे धीरे राज्य में प्रसार हो गया। उन्होंने 1997 में सूचना का अधिकार की मांग करते हुए अभियान चलाया, जिसके चलते महाराष्ट्र सरकार को इस बारे में एक कानून बनाना पड़ा। आगे चलकर केंद्र ने भी 2005 में इस कानून की तर्ज पर सूचना का अधिकार कानून बनाया। हजारे अपने गांव के यादवबाबा मंदिर से लगे एक छोटे से कमरे में रहते हैं।
हजारे ने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को भ्रष्ट कह दिया, जिस पर पवार ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गठित मंत्री समूह को छोड़ दिया। उन्होंने पिछले तीन दशक में महाराष्ट्र के राजनीतिक प्रतिष्ठान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, उनके आंदोलन के चलते शिवसेना-भाजपा और कांग्रेस-राकांपा की सरकार के मंत्रियों को इस्तीफा तक देना पड़ गया। महात्मा गांधी के बाद हजारे उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने आमरण अनशन को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में आठ बार आमरण अनशन किया है। वर्ष 1995 में हजारे के आमरण अनशन से महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा सरकार के कैबिनेट के दो मंत्रियों को अपने पद से हाथ धोना पड़ गया। हजारे ने कांग्रेस-राकांपा शासन को भी नहीं बख्शा। इस सरकार के चार मंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए वह आमरण अनशन पर चले गए। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ उनके अभियान ने उनके लिए कई दुश्मन भी पैदा कर दिए। वर्ष 2009 में कांग्रेस नेता पवनराजे निम्बालकर की हत्या के आरोप में गिरतार दो लोगों ने बताया कि उन्हें हजारे की हत्या की सुपारी मिली थी। उनके परिवार में सिर्फ दो शादीशुदा बहनें हैं। एक मुंबई में रहती है जबकि दूसरी अहमदनगर जिले में रहती है। उनकी मां लक्ष्मी बाई का 2002 में निधन हो गया था।
Tuesday, November 1, 2011
जीवन में असफलता भी जरूरी है
'यदि आप रसातल में पहुंच चुके हैं तो आप खुशकिस्मत हैं कि अब आपकी यात्रा केवल एक ही दिशा में होगी और वह है ऊपर की ओर।' अनूठे सकारात्मक चिंतन को दर्शाता 'नार्मन विसेंट पील' का उक्त मूलमंत्र असफलताओं से घिरे व्यक्ति की इच्छा-शक्ति को जगा सकता है।
असफलता एक सामान्य प्रक्रिया है और यदि असफलताओं को सकारात्मक नजरिए से देखा जाए तो ये बेहद रचनात्मक साबित हो सकती है। यदि आप भी असफलताओं के दौर से गुजर रहे हैं तो ये कुछ कारगर उपाय अपना सकते हैं:-
कहते हैं हर बाधा के पार एक अवसर इंतजार करता है। बस आप उम्मीद का दामन थामे रहिए। असफलता के कड़वे घूंट में सृजन के तत्व समाए रहते हैं। इसलिए बहुत बार असफलता किसी महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य की शुरुआत बन भाग्योदय की वजह बन जाती है। यदि आप असफलताओं के दौर में हैं तो धैर्यपूर्वक अपना उत्साह पूर्ववत कायम रखें।
हम अपनी छोटी-सी जिंदगी में ढेरों सपने संजोए रहते हैं। असफलता का दौर हमें अपने जीवन के लक्ष्यों से इतर सोचने का मौका देता है। इसलिए यह समय काफी अनुकूल साबित हो सकता है। इस समय किसी नई तकनीक या कला का प्रशिक्षण लिया जा सकता है। ऐसी कोशिशें न केवल नकारात्मकता के भाव को कुछ कम कर सकती हैं, बल्कि कुछ नया करने का एहसास उक्त समय की पीड़ा पर मरहम का काम करेगा और दिलो-दिमाग को एक नए रोमांच एवं अनुभूतियों से भर देगा।
एक प्रसिद्ध लेखक कहते हैं महान लोग वे भी हैं, जो इंतजार करते हैं। समय की ताकत का भरोसा कीजिए, क्योंकि बड़ी से बड़ी निराशा घोर मानसिक पीड़ा या भारी असफलाओं से उपजा दुख भी वक्त बीतने पर भर जाता है। वक्त हमेशा एक-सा नहीं रहता। बुरा वक्त यही दर्शाता है कि अब आपका अच्छा वक्त शुरू होने वाला है।
नाजुक दौर में अपनी दुख तकलीफें, किसी अपने के साथ बाँट लीजिए। इससे आप हल्का महसूस करेंगे। कहा जाता है कि कहने से दुख कुछ कम हो जाता है।
ऐसे दौर में आप हताश न हों, बल्कि स्वयं के लिए नई संभावनाएं तलाशें। एक रास्ता बंद होता है तो अनेक रास्ते खुल जाते हैं। याद रखें सबसे बड़ी हार स्वयं को हारा मान लेना है। अगर आपके मन में जुनून है तो उन्नाति का पथ बेहद विस्तृत एवं सीमाहीन होता है।
Friday, September 23, 2011
चरित्र में दृढ़ता, विचारों में प्रतिबद्धता लाएं
आज मुझे फिल्मी गीत की एक पंक्ति याद आ रही है, जिसे मैं आपके साथ शेयर करना चाहूंगा। इस गीत की पहली लाइन है-"जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम।" कितनी सुन्दर पंक्ति है यह। थम जाने के बाद तो जीवन खत्म ही हो जाता है, फिर चाहे हमारा सीना सांस के आने-जाने से धौकनी की तरह फूलता-पिचकता ही क्यों न रहे। जब यहां मैं चलने की बात कह रहा हूं, तो वह शरीर के ही चलने की बात नहीं है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक चेतना के चलने की बात है।
यह ऎसे चलने की बात है, जहां हम कहीं भी न तो थककर बैठते हैं और न ही घबराकर अपना रास्ता छोड़ देते हैं। यह वह चलना है, जब जीवन के हर पल को हम पूरे उल्लास से जीने की कोशिश करते हैं और यहां तक कि तब भी, जबकि हमें मालूम है कि अगले ही पल मृत्यु होने वाली है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक को अपने कर्म से पकड़ लेना सही मायने में जिन्दगी भर चलते चले जाना है। तो इसके बारे में मैं आपको इतिहास की एक ऎसी सच्ची घटना सुनाने जा रहा हूं, जिस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
सनाका रोम के महान दार्शनिक और सम्राट नीरो के गुरू थे। उन्होंने नीरो को सम्राट बनाने में उसकी मां की मदद भी की थी। नीरो को शक हो गया कि उसके राजगुरू सनाका उसके विरूद्ध षडयंत्र कर रहे हैं। नीरो ने सनाका को राजदरबार में नस काटकर बूंद-बंूद रक्त के बहने से होने वाली मौत की सजा दी। सनाका ने घर जाकर परिवार से विदा लेना चाहा। लेकिन नीरो ने इसकी तक इजाजत नहीं दी। सनाका ने कहा-""दर्शन की पुस्तके मंगवा दो।"" उनकी यह इच्छा भी ठुकरा दी गई। तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा-""आ जाओ! हम दर्शन पर यहीं चर्चा करेंगे। इससे अच्छा अवसर भला और क्या होगा।"" सचमुच, मुझे विश्वास ही नहीं होता ऎसे लोगों के बारे में सुनकर कि ये सब किस धातु के बने हुए होंगे? कैसा होगा इनका मन और इनकी आत्मा कितनी अधिक शक्तिशाली होगी। ये वे लोग थे, जिन्हें यमराज तक नहीं डरा सका फिर भला जीवन की अन्य परेशानियां तो इन्हें क्या डरा पातीं।
महान दार्शनिक सुकरात और सनाका जैसे लोगों में यह जो शकित आती है, यह मूलत: उनके चरित्र की दृढ़ता और अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण आती है। यदि हम अपने उद्देश्यों के प्रति संकल्पबद्ध हो जाते हैं, और संकल्पबद्ध होकर उसमें अपने-आपको पूरी तरह झोंक देते हैं, तो हमारे लिए कोई भी भय, भय नहीं रह जाता। हम अभय हो जाते हैं। तभी तो प्रेम दीवानी मीरा के लिए जहर का प्याला भी अमृत का प्याला बन गया था। मुझे लगता है कि हमें भी अपने जीवन में आत्मा की इस शक्ति को पाने के प्रयास करने चाहिए। ऎसा हो सकता है, इसमें कतई सन्देह नहीं है। अपनी चेतना में सात्विक भावों को स्थान देकर धीरे-धीरे हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
नौकरी ढूंढना हुआ आसान
नौकरी के लिए कोई एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज में नाम लिखवाता है तो कोई जॉब सर्चिग साइट्स पर खुद को रजिस्टर करता है। क ोई लगातार अखबारों में नौकरियों की तलाश करता है तो कोई मैगजीन्स में छपे जॉब एलर्ट खंगालता रहता है। नौकरी के लिए मची मारामारी में सही व्यक्ति तक उसकी योग्यता के अनुसार उपलब्ध नौकरी की सूचना पहुंच जाए यह आसान भी नहीं। क्योंकि अक्सर कम पढ़े लिखे और गरीब लोगों की पहुंच इन सारे माध्यमों तक भी मुश्किल ही होती है। इन समस्याओं को समझते हुए बंग्लोर के सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल ने एक ऎसा डिवाइस तैयार किया है जो एंप्लाई और एंप्लायर के बीच उपलब्ध नौकरियों से संबंधी सीधा संवाद स्थापित करता है, और वह भी बिना किसी जटिलता के।
अचानक मिली प्रेरणा
इस मशीन को बनाने की प्रेरणा राजन को उस समय मिली जब उन्हें एक कुक की तलाश थी। पास ही के किसी व्यक्ति ने उन्हें एक बूढ़ी औरत के बारे में बताया था, जिसे काम की जरूरत थी। वह उस व्यक्ति को अपना नंबर बूढ़ी औरत को देने का कह कर चला आया। लेकिन उस औरत से संपर्क ही दो सप्ताह के बाद हो सका। जब उसने राजन को फोन किया तब वह कुक रख चुका था। इस घटना ने राजन को सोचने पर मजबूर कर दिया कि शायद उस औरत को उस वक्त इस फोन कॉल के पैसे जुटाने में भी परेशानी उठानी पड़ी हो। तो ऎसा क्या जरिया हो सकता है जिससे एक गरीब व्यक्ति तक नौकरी की जानकारी समय रहते पहुंचाई जा सकें।
डिवाइस बनेगी मददगार
इस डिवाइस के लिए फ्री यूजर आईकार्ड बनवाते समय यूजर को अपने काम के बारे में बताना होगा। अपने पेशे की सही जानकारी देने से उन तक पहुंचने वाली नौकरियों को कैटेगराइज किया जा सकेगा। जैसे कोई माली होगा तो कोई नाई, कोई होम सर्वेँट होगा तो कोई धोबी। कॉलसेंटर डाटा बेस के जरिए उनके पेशों का रिकार्ड रखा जाएगा। इससे होगा यह कि जब अगली बार कोई व्यक्ति अपना यूजर कार्ड इंसर्ट करवाएगा, उसे उसकी योग्यता के अनुसार उपलब्ध नौकरियों की जानकारी मिल जाएगी।
ज्यादा नहीं कीमत
फिलहाल तो यूजर्स को मत्थुकत्थे के लिए कुछ भी भुगतान नहीं करना प्रड़ रहा, लेकिन आने वाले समय में प्रोजेक्ट के प्रसार के लिए रेवन्यू जुटाने के लिए यूजर्स को एक छोटी सी फीस देनी होगी। ताकि इसका और प्रसार किया जा सके। शुरूआती दौर में मत्थुकत्थे को बंग्लौर के मल्लेस्वर्म इलाके में लगाने की योजना है। साथ ही इसके पड़ोसी इलाक को भी इस डिवाइस से जोड़ा जाएगा। बस स्टैण्ड के पास लगाए जाने वाले इन बूथों तक ज्यादा से ज्यादा यूजर्स की पहुंच सुनिश्चित की जाने की योजना है।
एक नया प्लेटफार्म
अपने काम के लिए एंप्लाई तलाशने वाले लोगों के लिए यह एक नए प्लेटफार्म के रूप में है। एंप्लायर्स कॉल सेंटर को संपर्क करके अपने यहां उपलब्ध नौकरियों की लिस्टिंग करवा सकते हैं। इन नौकरियों की जानकारी मत्थुकत्थे के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने का काम कॉल सेंटर करेगा। उपलब्ध रिक्ति की लिस्टिंग कराने में 150 रूपए की फीस एंप्लायर से ली जाएगी। इसके बाद मौजूद डाटा बेस के हिसाब से नौकरियों को वर्गीकृत किया जाएगा। फिर रजिस्टर्ड लोगों के प्रोफेशन्स के हिसाब से उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर नौकरियों की सूचना मत्थुकत्थे के जरिए पहुंचा दी जाएगी।
क्या है यह डिवाइस
नंदन राजन ने एक ऎसा डिवाइस तैयार किया है जो दिखने में एक बक्से जैसा है और उसमें सिर्फ दो ही बटन हैं। एक हरा और एक लाल। डिवाइस का नाम मत्थुकत्थे है, जिसका कन्नड़ में अर्थ है बातचीत। इसे एक पब्लिक टेलीफोन की तरह प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के लिए आपको एक मत्थुकत्थे आईकार्ड बनवाना होगा। इस कार्ड को इन्सर्ट करवाने से आपकी योग्यता अनुसार नौकरी से संबंधित सूचनाएं मिल सकती हैं।यह डिवाइस प्रयोग करने में सरल और सस्ती है। इस डिवाइस के चालू हो जाने पर इसमें रिकार्डिड आवाज के जरिए ऑप्शन चुनने के लिए कहा जाता है। स्वीकार करने के लिए हरे तथा दूसरे ऑप्शन पर जाने के लिए सिर्फ लाल बटन दबाना है।
बेसिक साइंस में है दम...
"बेसिक साइंस में जबरदस्त दम है। बीटेक की बात छोडिए.. अब कई नामचीन कम्पनीज अपने यहां बीएससी के स्टूडेंट्स को मौका दे रही हैं। स्टूडेंट्स को यदि कॅरियर की राह पकड़नी है तो यह सबसे अच्छा रास्ता है और देश के लिए कुछ करना हो तो भी साइंस रिसर्च महत्वपूर्ण है।"
देश के नामचीन संस्थानों में शामिल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च मुम्बई के एटोमिक और मोलिक्यूलर साइंस के सीनियर प्रोफेसर डॉ. दीपक माथुर ने मंगलवार को जयपुर में यह बात कही। राजस्थान यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर डवलपमेंट ऑफ फिजिक्स एजुकेशन में डीएसटी की ओर से प्रायोजित "इंस्पायर कैम्प" में स्कूली बच्चों से मुखातिब हुए माथुर ने स्टूडेंट्स को बेसिक साइंस का महत्व बताते हुए इसमें जॉब अपॉच्र्यूनिटीज के बारे में जानकारी दी। पांचवें इंस्पायर कैम्प में राज्य के नवोदय विद्यालयों के स्टूडेंट्स शामिल हुए हैं।
विभिन्न तकनीकी सत्रों में पीलीभीत से आए डॉ. लक्ष्मीकांत और डॉ. उर्मिला शर्मा ने लाइव डेमोंस्ट्रेशन कर चमत्कारों की वैज्ञानिक सच्चाई बताई। जूलॉजी विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. पी. के. गोयल ने स्टूडेंट्स को कॅरियर की दृष्टि से इस संकाय का महžव बताया। स्टूडेंट यदि बेसिक साइंस में आता है, तो जॉब तो मिलता ही है, साथ ही उस छात्र का नॉलेज लेवल बढ़ जाता है।
मापदंडों का पालन जरूरी
देश के हर बड़े शहर में अब दर्जनों बीटेक कॉलेज खुल गए हैं। जबरदस्त आक्रामक मार्केटिंग के चलते ये बच्चों को अपनी और लुभा रहे हैं, जबकि वहां स्तरीय शिक्षा नहीं मिल पा रही है। प्रो. दीपक माथुर का कहना है कि इन संस्थानों में स्टूडेंट्स के साथ धोखा हो रहा है। शायद ही किसी संस्थान में फैकल्टी के योग्यता मापदंडों का पालन किया जा रहा है।
लिंक जुड़े तो बदले तस्वीर
प्रो. माथुर ने बताया कि विज्ञान के क्षेत्र में विशेष कार्य कर रहे देश के नामचीन संस्थानों का यूनिवर्सिटीज से लिंक टूटा हुआ है। यह लिंक होना जरूरी है। इस वजह से ही यूनिवर्सिटीज के स्टूडेंट्स को कम अवसर मिलते हैं। अगर एक बार यह लिंक बन गया तो साइंस एजुकेशन की तस्वीर में बदलाव होगा और स्टूडेंट्स को फायदा मिलेगा।
यह सब होना चाहिए रेज्युमे में
बहुत से शोधों से पता चला है कि किसी एक वैकेंसी के लिए कंपनी या एम्प्लॉयर के पास करीब 500 रेज्युमे आते हैं। एक रेज्युमे पर नजर डालने के लिए रिक्रूटर के पास औसतन 30 से 40 सेकंड होते हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो रिक्रूटर या कंपनी के एच आर को इंप्रेस करने के लिए आपके रेज्युमे के पास ज्यादा से ज्यादा आधा मिनट होता है। ऎसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि हमारे रेज्युमे में ऎसा क्या खास हो कि वह अन्यों के मुकाबले में रिक्रूटर या एच आर का ध्यान खींचने में सफल हो सके।
पहली और अहम बात तो यह है कि योग्यता साबित करने के लिए रेज्युमे प्रभावशाली होना चाहिए। एक अच्छे रेज्युमे का यह गुण होता है कि वह आपकी गैरमौजूदगी में आपकी तरफदारी करता है, दूसरी ओर एक कमजोर रेज्युमे रिक्रूटर की निगाहों में आप्रांसगिक बना देता है। सो , जाने उन बातों को जिनको ध्यान में रखने से रेज्युमे बनता है , प्रभावशाली।
डिटेल्स:छोटा पर पूरा हो विवरण
रेज्युमे बनाते वक्त लेफ्ट साइड में सबसे ऊपर नाम लिखना चाहिए और उसके ठीक नीचे अपनी ईमेल आईडी और उसके नीचे फोन नंबर। कई लोग नाम के साथ ही जेंडर भी लिख देते हैं ऎसा न करें। जेंडर व्यक्तिगत सूचना वाले कॉलम में लिखें। रेज्युमे में ऎसी आईडी न दें जो देखने में अजीब लगे। आईडी बिल्कुल सादा होनी चाहिए।
अड्रेस: पत्राचार हेतु पता
टॉप राइट साइड में हमेशा पत्राचार करने हेतु वाला पता दिया जाना चाहिए। इससे रिक्रूटर को पत्राचार करने में सुविधा होती है। उसे इसे रेज्यूमे में तलाशना नहीं पढ़ता है।
ऑब्जेक्टिव: साफ और स्पष्ट
ऑब्जेक्टिव हमेशा छोटा, सादा और सीधा हो। साफ और कम शब्दों में यह बताएं कि आप कंपनी के लिए कैसे फायदेमंद हो सकते हैं। इसके लिए अपनी स्किल्स का हवाला दे सकते हैं।
शैक्षिक योग्यता: टू द प्वाइंट
योग्यता बताते वक्त रिवर्स कोनोलॉजी
का इस्तेमाल करे। लेटेस्ट `ॉलिफिकेशन सबसे पहले लिखें और फिर नीचे की तरफ बढ़ते जाएं।इसका उल्लेख करते समय यह ध्यान रखें कि आप किसी पोस्ट के एप्लाय कर रहे हैं।
अनुभव: संक्षिप्त और क्रमानुसार
कुल अनुभव वर्षो में बता सकते हैं। अनुभव के बारे में बताते हुए जिस कंपनी में अभी काम कर रहे हैं, वह सबसे ऊपर, उसके बाद उससे पहले के अनुभवों का जिक्र करें। इसके अलावा निभाए गए अहम प्रॉजेक्ट्स का जिक्र कर सकते हैं।
व्यक्तिगत सूचनाएं:
रेज्युमे के सबसे अंत में आप अपने पिता और माता का नाम, डेट ऑफ बर्थ, मैरिटल स्टेटस भी देना चाहिए। डेट ऑफ बर्थ बताते वक्त साथ में यह भी लिख दें कि वर्तमान में आप कितने वर्ष के हैं।
सिर्फ बर्थ ईयर से आपकी उम्र पता करने में कैलकुलेशन करनी होगी, जिसके लिए एम्प्लॉयर के पास वक्त नहीं होता। इसी तरह मैरिटल स्टेटस की जानकारी भी देनी चाहिए। इसके अलावा अपनी रूचियों का विवरण भी देना चाहिए।परमानेंट अड्रेस भी देना चाहिए।
इनका ध्यान रखे हर दम
1. फॉन्ट का प्रयोग
याद रखें कि पूरे रेज्युमे में ज्यादा से ज्यादा दो फॉन्ट का ही प्रयोग करना चाहिए। फॉन्ट साइज आसानी से पढ़ने में आना चाहिए। इसे 10 रख सकते हैं।
2. बोल्ड ,अंडरलाइन, इटैलिक
शब्दों को बोल्ड, अंडरलाइन या इटैलिक जरूरत से ज्यादा न करें। वाक्यों के बीच गैप भी ठीकठाक हो। याद रखिए एम्प्लॉयर को अगर उन्हें पढ़ने में दिक्कत हुई तो उन्हें आगे बढ़ते देर नहीं लगती।
3. आकार
रेज्यूमे का आकार इंडस्ट्री और अनुभव पर निर्भर करता है। दो पेज से बडे रेज्यूमे बनाने से बचना चाहिए।
4. सीधी सपाट हो भाषा
पूरे रेज्युमे की भाषा सीधी और सपाट रखें। तथ्यों को गोलमोल घुमाकर न रखें।
5. ज्यादा मैं,मैं नहीं
आई, माई, मी जैसे शब्दों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल न करें। अपने बारे में ज्यादा बखान करने का रिक्रूटर पर बैड इंप्रेशन पड़ता है।
6. रेफरेंस कहने पर ही दें
रेफरेंस का जिक्र तब तक न करें, जब तक निर्देश न दिए गए हो। ऎसे लोगों को तैयार जरूर रखें, जो आपको अच्छी तरह जानते हों। मांगने पर उनका जिक्र करें ,साथ उनका संपर्क नबंर भी दें।
7. ग्रामर व स्पेलिंग गलत न हो
स्पेलिंग पूरी लिखें। प्रूफ रीडिंग जरूर करा लें। पंच्चुएशन का खास ध्यान रखें। ग्रामर के मामले में बहुत सावधान रहने की जरूरत है।
8. फोटो न लगाएं
फोटो न लगाएं क्योंकि जिस साइज में आप फोटो पेस्ट करेंगे, वह न तो क्वालिटी में अच्छा आएगा और न देखने में। जाहिर है इसका अच्छा इंप्रेशन भी नहीं पड़ेगा।
कृषि में बनाएंं कैरियर
कृषि प्रधान होने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान सबसे ज्यादा है। इसी कारण देश का आधा से ज्यादा श्रमिक वर्ग इस क्षेत्र से जुड़ा है। कृषि के मूलभूत भाग खेती को अलग कर दिया जाए तो इससे जुड़े कई ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें कैरियर की अपार संभावनाएंं हैं।
अगर कोई विद्यार्थी कृषि क्षेत्र में कैरियर बनाने का विचार कर रहा है तो उसके लिए कई विकल्प उपलब्ध है जैसे बागवानी, दुग्ध उत्पादन क्षेत्र, मुर्गी पालन, पशु पालन, मछली पालन इत्यादि।
बागवानी भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टी और तरह-तरह के वातावरण के कारण यहां की धरती बागवानी के उपयुक्त फसलों के विकास के लिए अनुकूल है। बागवानी के तहत कई सब्जियों और फलों के खेतों की देखभाल की जाती है। बागवानी से भारत के कई ग्रामीण इलाकों को फायदा हुआ है।
इसमें कई ग्रामीण मजदूरों को रोजगार के अवसर मिलते हैं साथ ही ये आय का एक प्रमुख जरिया भी है। भारत में कुल २८.२ मिलियन टन फलों और ६६ मिलियन टन सब्जियों का बाजार है। सब्जियों और फलों के उत्पाद में भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। सब्जियों और फलों को न केवल निजी उपभोग के लिए ही नही बल्कि अन्य उत्पादों के लिए भी उपयोग किया जाता है। इसीलिए यह उद्योग काफी बड़ा है।
दुग्ध उत्पादन (डेरी टेक्नोलॉजी)रू डेयरी ऐसी जगह है जहां दूध और दूध से बने उत्पादों की देखरेख होती है। यहां कई अत्याधुनिक तकनीकों के जरिए दूध, मख्खन, दही, घी, चीज, आइक्रीम आदि का उत्पादन किया जाता है। पिछले कई दशकों में दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में अभूत्पूर्व विकास हुआ है। भारत विश्व भर के दिग्ग्ज दुग्ध उत्पादक देशों के शीर्ष पर है। अनेक राज्यों में दुग्ध उत्पादन से जुड़े को-ऑपरेटिव खुल जाने से इस क्षेत्र का डेयरीरी क्षेत्र खूब फला-फूला है। देश में पशुओं की संख्या इस क्षेत्र के विकास का आधारस्तंभ है। आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल) ह्लह्लह्ल.ंउनस.बवउ जैसी दुग्ध उत्पादक संस्थाओं ने डेयरी उद्योग में क्रांति लाकर इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी है। पशुओं की संख्या बढ़ाना, अच्छी नस्लों के पशुओं को इस क्षेत्र में शामिल करना जिससे बढि़या उत्पाद मिल सके ये हेतु से ग्रामीण विभागों को ही विकास की दृष्टि से चुना गया है।
शिक्षा के अवसररू नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीटयूट (करनाल और बैंगलोर)
डिप्लोमा स्तर के कोर्स उपलब्ध करवाने वाले संस्थान हैं
१- डेयरी साइंस इंस्टीटयूट (आरे, मुम्बई)
२- इलाहाबाद एग्रीकल्चर इंस्टीटयूट (इलाहाबाद)
३- स्टेट इंस्टीटयूट ऑफ डेयङ्क्षरग (हङ्क्षरघाटा, पश्चिम बंगाल)
आईआईटी (खडग़पुर) ह्लह्लह्ल.पपजाहच.मतदमज.पदध् में डेयरी इंजीनियङ्क्षरग और डेयरी टेक्नोलॉजी में पीएचडी कोर्स के अलावा डेयरी इंजीयङ्क्षरग में बीटेक और एमटेक के कोर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं। इस क्षेत्र में अध्ययन करने के बाद आपको कृषि से जुड़े बैंकों और दुग्ध उत्पादक इकाइओं में डेयरी टेक्नोलॉजिस्ट के रूप में कार्य कर सकते हैं। आप नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीटयूट से इसका अध्ययन कर सकते हैं।
मुर्गी पालनरू आजादी के बाद मुर्गी पालन क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। खासतौर पर पिछ्ले दो दशकों में भारतीय मुर्गी पालन क्षेत्र में १५ से २० प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और यह व्यापार कुल मिलाकर ६५ बिलियन रुपए का हो गया है। घरेलू बाजार का बढ़ता दायरा, तेजी से हो रहे औद्योगिकरण और आॢथक उदारीकरण ने इस क्षेत्र में विकास की असीमित संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।
अंडों का उत्पाद सालाना ८ से १० प्रतिशत बढ़ा है और दुनिया में अंडा उत्पादक देशों की फेहरिस्त में भारत का स्थान पाचवां है।
भारत में जहां मुर्गी पालन से संबंधित प्रशिक्षण दिया जाता है वह हैरू डॉ. बी.वी. राव इंस्टीटयूट ऑफ पोल्ट्री मैनेजमेंट एंंड टेक्नोलॉजी, उरुली कंचन, ४१२२०२, पुणे।
योग्यता
इनमें से किसी भी कोर्स करना हो तो प्रवेश पाने के लिए उम्मीदवारों का विज्ञान विषय से १०़२ होना जरूरी है और ४ साल के कृषि में बीएससी कोर्स के लिए प्रवेश परीक्षा उत्तााह्म्र्ण करना जरूरी है। प्रवेश परीक्षा में आपका विषय होना चाहिए फिजिक्स, केमेस्ट्री, बायोलॉजी और मैथ्स या एग्रीकल्चर।
कृषि में एमएससी करने के लिए बीएससी में अच्छे अंक प्राप्त करना जरूरी है। आपके पास किसी एक विषय में विशेषज्ञता हासिल करने का विकल्प भी है जैसे बागवानी (हॉॢटकल्चर), कृषि अर्थशा एग्रीकल्चर इकोनोमिक्स, एग्रीकल्चर केमेस्ट्री, पशु पालन इत्यादी।
रोजगार की संभावनाएंं कृषि क्षेत्र को कैरियर के रूप में चुनने वाले विद्याॢथयों के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएंं होती हैं
१- कृषि से संबंधित उद्योगों में जैसे फसलों की उत्पादक प्रक्रिया से जुड़े उद्योग, बीज उत्पादक कम्पनियां, शोध करने वाले संगठन आदि।
२- दुग्ध और खाद्य उत्पादन से संबंधित उद्योग
३- केंद्र और राज्य के कृषि विश्वविद्यालय के विभाग
इसके अलावा कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो कृषि संबंधित कार्यों से जुड़े हैं। ये खासतौर पर ग्रामीण भागों में कार्यरत हैं जो कृषि में स्नातकोत्तार छात्रों को रोजगार मुहैय्या कराते हैं।
नाबार्ड जैसे ग्रामीण भागों के विकास से जुड़े बैंकों में द्वारा आपको ग्रामीण बैंकों में अधिकारी पद पर रोजगार के अवसर मिल सकते हैं।
आप कृषि वैज्ञानिक के रूप में कई कृषि से संबंधित शोध संगठनों में शोध कार्य कर सकते हैं। देश में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ाह्म्जजचरूध्ध्ह्लह्लह्ल.पबंत.वतह.पदध् जैसे कई शोध संगठन हैं। भारतीय खाद्य संगठन जैसी अन्य सरकारी और राज्य स्तर के विभागों और निदेशालय में बीज उत्पादन अधिकारी, कृषि संबंधित कार्यों में सहायक, फार्म सुपिङ्क्षरटेंनडेंट और ऐसे ही अन्य आधिकारिक पदों पर आपकी नियुक्ति हो सकती है।
कृषि से संबंधित कुछ इंस्टीटयूट-
१- कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चरल इंजीनियङ्क्षरग एंंड टेक्नोलॉजी, डॉ. पंजाबराव देशमुख कृषि विद्यापीठ देशमुख कृषि विद्यापीठ, पी.ओ. कृषिनगर, अकोला ४४४१०४।
२- इलाहाबाद एग्रीकअल्चर इंस्टीटयूट, एग्रीकल्चर, इलाहाबाद, उत्तार प्रदेश
३- आनंद निकेतन कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, मूॢतजापुर रोड, कृषि नगर, अकोला, महाराष्ट्र
४- गुजरात एग्रीकल्चर यूनिवॢसटी, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चरल, जूनागढ, गुजरात
५- इंस्टीटयूट ऑफ एग्रीकल्चर, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवॢसटी, अलीगढ़ २०२ ००२
६- केरल एग्रीकल्चर यूनिवॢसटी, वेल्लानिक्कारा, केरल ६८०६५४ फोन नम्बररू०४८७- ३७०८२२
७- कोंकण कृषि विद्यापीठ , दापोली, कोंकण, महाराष्ट्र ४१५७१२।
८- कैरी इंस्टीटयूट ऑफ हॉॢटकल्चर, कोलकाता, पश्चिम बंगाल, ७०००२७।
९- गुरू नानक देव यूनिवॢसटी, खालसा कॉलेज, अमृतसर, पंजाब
१०- कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर पिलोकोड, निलेशवर, केरल फोन नम्बररू ०४९९-७८०६१६।
११- इंस्टीटयूट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस, फैकल्टी ऑफ एग्रीकल्चर एट बीएचयू, वाराणसी
१२- कोंकण कृषि विद्यापीठ, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, दापोली, रत्नागिरी, महाराष्ट्र
१३- गुजरात एग्रीकल्चरल यूनिवॢसटी, एनएम कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, नवसारी, वलसाड़, गुजरात
१४- नॉर्थ- ईस्टर्न हिल यूनिवॢसटी स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंंड रूरल डेवलपमेंट मेडीपेम, नागालैंड
१५- शेर-ए-कश्मीर यूनिवॢसटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस एंंड टेक्नोलॉजी, शालीमार कैम्पस, श्रीनगर- १९११२१ध् कैम्प ऑफिसरू रेलवे रोड, जम्मू-१८० ००४
१६- श्री दुर्गाली पी.जी. कॉलेज, चंदेसर, आजमगढ़, उत्तार प्रदेश
१७- मोहनलाल सुखाडिया, यूनिवॢसटी ऑफ राजस्थान कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर, उदयपुर, राजस्थान
१८- आंध्र प्रदेश एग्रीकल्चरल यूनिवॢसटी, राजेंद्र नगर, हैदराबाद ५०००३०
रियल एस्टेट में कैरियर
बदलते वक्त के साथ रियल एस्टेट कारोबार का स्वरूप काफी व्यवस्थित हो गया है और किसी भी दूसरे सेक्टर की तरह कॉरपोरेट कल्चर की सारी विशेषताएंं इसमें नजर आने लगी हैं। मंदी के बाद सुधरती आॢथक स्थिति के कारण रियल एस्टेट सेक्टर में विकास की दर भी काफी तेज हो गई है। पिछले साल इस सेक्टर में हुए विकास की रफ्तार इस साल भी जारी है। वर्तमान कंस्ट्रक्शन डेवलपमेंट से इस सेक्टर में जॉब के शानदार मौके उपलब्ध हो रहे हैं। रिटेल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में हो रही गतिविधियों से भी इस सेक्टर को बल मिला है और जॉब के अवसरों में इजाफा हुआ है। भारतीय रोजगार ट्रंड पर क्वमा फोई रैंडस्टैड एम्प्लॉइमेंट ट्रंड सर्वे (एमईटीएस)ज् की रिपोर्ट में २०११ के अग्रणी जॉब प्रदाता सेक्टरों में रियल एस्टेट सेक्टर को भी शामिल किया गया है, जिसके तहत १६.८ प्रतिशत की विकास दर से लगभग १,४४,७०० जॉब के मौके उपलब्ध होंगे।
कार्य का स्वरूप
रियल एस्टेट सिर्फ एक फील्ड नहीं है, बल्कि यह एक पूरा सेक्टर है, जिसमें कई फील्ड्स समाहित हैं। इसके तहत कंस्ट्रक्शन, इंटीरियर डिजाइङ्क्षनग, प्रॉपर्टी मैनेजमेंट, ब्रोकरेज सिस्टम, अर्बन प्लाङ्क्षनग, रियल एस्टेट काउंसङ्क्षलग, रियल एस्टेट रिसर्च, मार्केङ्क्षटग, एचआर, लीगल, प्रॉपर्टी टैक्स, इन्वेस्टमेंट आदि तमाम तरह के कार्य किए जाते हैं। यह अलग बात है कि इसमें सामान्य तौर पर मार्केङ्क्षटग और कंस्ट्रक्शन का काम ज्यादा नजर आता है। लैंड डेवलपमेंट इस सेक्टर का अहम पहलू है। खाली पड़ी जमीन में बिङ्क्षल्डग, शॉङ्क्षपग आर्केड, ऑफिस कॉम्पलेक्स, होटल, फैक्ट्री आदि बनाकर उसे उपयोग के लायक बना देना रियल एस्टेट के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है।
योग्यता
इस सेक्टर के अंतर्गत कई फील्ड्स शामिल हैं। ऐसे में किसी खास फील्ड में जॉब के लिए उससे संबंधित डिप्लोमा या डिग्री का होना अनिवार्य है। मार्केङ्क्षटग में जॉब के लिए एमबीए, डिप्लोमा इन मार्केङ्क्षटग या रियल एस्टेट संबंधी कोई डिग्री जरूरी है। इसी तरह यदि आप कंस्ट्रक्शन से जुड़ना चाहते हैं तो सिविल इंजीनियङ्क्षरग में बीटेक या डिप्लोमा जरूरी है। बेहतर कम्युनिकेशन स्किल इस सेक्टर की अधिकांश फील्ड्स के लिए जरूरी है।
कहां मिलते हैं मौके
कंस्ट्रक्शन में संलग्न कंपनियों में ही सबसे ज्यादा मौके मिलते हैं। इसके अलावा प्रॉपर्टी बिजनेस एसोसिएट्स, प्रॉपर्टी मैनेजमेंट फम्र्स, प्रॉपर्टी रिसर्च एजेंसी, इंश्योरेंस कंपनी आदि के द्वारा भी मौके उपलब्ध कराए जाते हैं। इसके अलावा रियल एस्टेट से संबंधित पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट में भी रियल एस्टेट के जानकारों की मांग बनी रहती है। आप चाहें तो कंसल्टेंसी का भी काम कर सकते हैं। रेजिडेंशियल या कॉमॢशयल खरीदारी के लिए प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स की मांग अब काफी बढ़ गई है। अनुभव के साथ इस सेक्टर की किसी भी फील्ड में आमदनी के मौके बढ़ते जाते हैं। इसमें कई फील्ड क्रिएटिविटी की मांग करते हैं, जैसे आॢकटेक्चर, लैंडस्केङ्क्षपग डिजाइङ्क्षनग आदि। ऐसे में आपका कल्पनाशील होना आपको अन्य के मुकाबले आगे बढ़ने का बेहतर मौका देता है।
कहां से करें पढ़ाई
वैसे तो इस सेक्टर से जुड़ने के लिए अलग-अलग फील्ड्स से संबंधित अलग-अलग शैक्षणिक योग्यता का सहारा लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। फिर भी कुछ संस्थान हैं, जहां से आप रियल एस्टेट से संबंधित डिग्री हासिल कर सकते हैं-
-नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट ऐंंड रिसर्च, मुंबई व अन्य केंद्र
-इंडिया स्कूल ऑफ रियल एस्टेट, पुणे
-एमिटी यूनिवॢसटी, नोएडा
-नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ रियल एस्टेट मैनेजमेंट, नई दिल्ली
आजीविका का चुनाव कैसे करें!
प्राय शिक्षा समाप्त करते ही लोग आजीविका की तलाश में जुट जाते हैं। नये लोगों के लिये आजीविका का चुनाव करना एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आती है। वास्तव में देखा जाये तो पूर्व में हमारे देश में अध्ययन किये गये विषय और प्राप्त नौकरी में अधिकतर किसी प्रकार का सम्बन्ध दिखाई नहीं देता था। जो व्यक्ति भौतिक शा , रसायन शा , गणित आदि का अध्ययन करता था वही व्यक्ति बैंक में नौकरी लग कर अकाउङ्क्षन्टग का काम करने लगता था। किन्तु अब समय बदल गया है और वर्तमान पीढ़ी आजीविका के चुनाव के प्रति जागरूक हो गई है।
आजीविका का चुनाव करने के लिये स्वयं की रुचि , व्यक्तित्व , पूर्व में किये गये अध्ययन के विषय, कार्य सम्बन्धित मान्यताएँ तथा मान आदि अनेक बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये।
किसी भी आजीविका का चुनाव अत्यन्त सोच-समझ कर ही करना बहुत आवश्यक है वरना बाद में पछताना पड़ सकता है। किसी भी निश्चय पर पहुँचने के पहले स्वयं का आकलन कर लेना बहुत अच्छा होता है। साथ ही जिस आजीविका को हम अपनाना चाहते हैं उसका आकलन (जैसे कि वर्तमान में तो यह आजीविका तो बहुत अच्छी है किन्तु इसका भविष्य क्या है, क्या यह आजीविका मेरी समस्त या अधिकतम आकांक्षाओं को पूर्ण कर पायेगी आदि) कर लेना भी अति आवश्यक है।
दुर्भाग्य से हमारे शिक्षण संस्थाओं में आजीविका के चुनाव वाले किसी प्रकार के विषय नहीं होते और इसी कारण से अधिकतर लोग गलत फैसला कर लेते हैं जिसका परिणाम बाद में पछताना ही होता है। अत किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले हर पहलू पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर लेना बहुत जरूरी है।
स्वयं का आकलन करने के लिये निम्न ङ्क्षबदुओं पर अवश्य ही ध्यान दें।
इसके अन्तर्गत वे वस्तुएँ आती हैं जिनका महत्व आपकी नजरों में बहुत अधिक होता है, जैसे कि उपलब्धियाँ , प्रतिष्ठा , स्वत्व आदि।
रुचियाँ इसके अन्तर्गत आपको आनन्द प्रदान करने वाली वस्तुएँ आती हैं, जैसे कि मित्रों के साथ लिप्त रहना, क्रिकेट खेलना , नाटक में अभिनय करना आदि।
व्यक्तित्व अलग अलग लोगों का अलग अलग व्यक्तित्व होता है जो उनकी विलक्षणता, आवश्यकता , रवैया , व्यवहार आदि का निर्माण करती हैं।
अहर्ताएँ अलग अलग व्यक्तियों की अहर्ताएँ या योग्यताएँ भी अलग अलग होती हैं जैसे कि किसी को लेखन कार्य में आनन्द आता है तो किसी को शिक्षण कार्य (जमंबीपदह) या फिर किसी को कम्प्यूटर प्रोग्राङ्क्षमग में।
उपरोक्त सभी बातें आप स्वयं का प्रतिनिधित्व करते हैं अत आजीविका का चुनाव करते समय इनका समावेश होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
आजीविका का चुनाव करने के लिये स्वयं की रुचि , व्यक्तित्व , पूर्व में किये गये अध्ययन के विषय, कार्य सम्बन्धित मान्यताएँ तथा मान आदि अनेक बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये।
किसी भी आजीविका का चुनाव अत्यन्त सोच-समझ कर ही करना बहुत आवश्यक है वरना बाद में पछताना पड़ सकता है। किसी भी निश्चय पर पहुँचने के पहले स्वयं का आकलन कर लेना बहुत अच्छा होता है। साथ ही जिस आजीविका को हम अपनाना चाहते हैं उसका आकलन (जैसे कि वर्तमान में तो यह आजीविका तो बहुत अच्छी है किन्तु इसका भविष्य क्या है, क्या यह आजीविका मेरी समस्त या अधिकतम आकांक्षाओं को पूर्ण कर पायेगी आदि) कर लेना भी अति आवश्यक है।
दुर्भाग्य से हमारे शिक्षण संस्थाओं में आजीविका के चुनाव वाले किसी प्रकार के विषय नहीं होते और इसी कारण से अधिकतर लोग गलत फैसला कर लेते हैं जिसका परिणाम बाद में पछताना ही होता है। अत किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले हर पहलू पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर लेना बहुत जरूरी है।
स्वयं का आकलन करने के लिये निम्न ङ्क्षबदुओं पर अवश्य ही ध्यान दें।
इसके अन्तर्गत वे वस्तुएँ आती हैं जिनका महत्व आपकी नजरों में बहुत अधिक होता है, जैसे कि उपलब्धियाँ , प्रतिष्ठा , स्वत्व आदि।
रुचियाँ इसके अन्तर्गत आपको आनन्द प्रदान करने वाली वस्तुएँ आती हैं, जैसे कि मित्रों के साथ लिप्त रहना, क्रिकेट खेलना , नाटक में अभिनय करना आदि।
व्यक्तित्व अलग अलग लोगों का अलग अलग व्यक्तित्व होता है जो उनकी विलक्षणता, आवश्यकता , रवैया , व्यवहार आदि का निर्माण करती हैं।
अहर्ताएँ अलग अलग व्यक्तियों की अहर्ताएँ या योग्यताएँ भी अलग अलग होती हैं जैसे कि किसी को लेखन कार्य में आनन्द आता है तो किसी को शिक्षण कार्य (जमंबीपदह) या फिर किसी को कम्प्यूटर प्रोग्राङ्क्षमग में।
उपरोक्त सभी बातें आप स्वयं का प्रतिनिधित्व करते हैं अत आजीविका का चुनाव करते समय इनका समावेश होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
Monday, August 15, 2011
संगीत को ईश्वर का दर्जा प्राप्त
संगीत को ईश्वर का दर्जा प्राप्त है, इसीलिए इस विधा में शुद्धता और शास्त्रीयता का विशेष महत्व है। सात शुद्ध और पांच कोमल स्वरों के माध्यम से मन को साधने का उपाय है संगीत। एक तरफ जहां 'योग' से मनुष्य शरीर, मन और मस्तिष्क को साधता है, वहीं 'संगीत' हमारी आत्मा को शुद्ध करता है।
संगीत का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है, आधुनिक एवं मीडिया में बने रहने के इच्छुक संगीतज्ञों को छोड़ दिया जाए तो हर तरह का संगीत शुद्धता व पवित्रता पर जोर देता है। स्वरों की उपासना, रियाज, शास्त्र शुद्ध पद्धति द्वारा नाद ब्रह्म की आराधना कर अंतर्मन में गहराई तक उतारना संगीत का मुख्य लक्ष्य है। इसलिए संगीत शास्त्र व आध्यात्मिक एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, क्योंकि दोनों का उद्देश्य समान है आत्म साक्षात्कार।
मानव जीवन की आवश्यकताओं में पहला सुख निरोगी काया माना गया है। निरोगी शरीर व मस्तिष्क हर किसी के लिए आवश्यक है। आत्म साक्षात्कार हेतु प्रयासरत कई साधक बीमार शरीर के कारण प्रगति नहीं कर पाते हैं। जिस प्रकार संगीत एक उपासना का तरीका है। उसी प्रकार का 'योग शास्त्र' जीवन का मित्र है। यदि शरीर स्वस्थ रहे तो हम जीवन का आनंद ले सकते हैं।
संगीत में रियाज के लिए एकाग्रता की आवश्यकता होती है। योग शास्त्र हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक है। मन की, मस्तिष्क की एकाग्रता, प्रसन्नचित्त व्यक्तित्व योग शास्त्र की देन है।
संगीत में स्वरों की शुद्धता पर जोर दिया जाता है, पर योग शास्त्र में आसन व मुद्राओं पर जोर दिया जाता है। दोनों में ही स्वर व मुद्रा की श्रेष्ठता से आनंद और स्वास्थ्य पाया जा सकता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो दोनों शास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं।
संगीत साधना फिर चाहे गायन हो, वादन हो, कलाकार को एक ही मुद्रा में घंटों बैठे रहना पड़ता है। उसी तरह से योग में भी एक अवस्था में बैठना आवश्यक है। संगीत में एक ही स्थान पर साधना करने के लिए शरीर, मन व मस्तिष्क पूर्ण स्वस्थ होना चाहिए। और इसके लिए योग सर्वश्रेष्ठ है। योग से शरीर, मन, मस्तिष्क स्वस्थ रहता है। मनुष्य एकाग्र रहता है व प्रसन्न मन से काम करता है।
विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि संगीत साधना व योग साधना दोनों से मनुष्य के जीवन में शक्ति का विकास होता है। अतः कहा जा सकता है कि शरीर तथा मन को स्वस्थ्य, प्रफुल्लित रखने के लिए योग शास्त्र व संगीत शास्त्र दोनों समान रूप से आवश्यक है। दोनों से शरीर, मन, मस्तिष्क स्वस्थ रहता है, एकाग्रता रहती है। योग की तरह ही संगीत से तनाव भी दूर होता है।
संगीत का असली आनंद सड़क पर, बगीचे में, बरामदे में, छत पर सुबह, शाम घूमते हुए उठाना चाहिए। रात में सोने से 2 घंटे पहले सुपाच्य भोजन करना चाहिए और दिन में कम से कम एक बार दिल खोलकर हंसना चाहिए।
Thursday, August 11, 2011
रक्षा के प्रतीक पर्व पर योद्धाओं को सलाम
रक्षा के बंधन को आज के परिवेश में प्रतीकात्मक रूप देते हुई असुरक्षा की भावना को दूर करने वाले सामाजिक त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए। फिर वह रक्षा या तो एक मित्र दूसरे की करे या फिर कोई भी। इस बंधन में खून के रिश्ते की अनिवार्यता जरुरी नहीं बल्कि सामाजिक सौहार्द की ताजगी होना चाहिए। बगैर किसी बंधन से जुड़े इन्सान के रिश्ते में इंसानियत के नाते रक्षा का संकल्प, यह समाज रक्षाबंधन के पर्व पर इस मर्तबा संकल्प ले तो यह पर्व की सबसे बड़ी सार्थकता और सार्वभौमिकता होगी।
रक्षाबंधन, यानि भाई-बहन के स्नेहिल रिश्ते को मधुर प्रेम की गर्माहट से नई उर्जा देने का पावन प्रसंग। सामाजिक दृष्टि से रक्षाबंधन का यह महत्व सर्वथा प्रासंगिक है। हाँलाकि बदलते परिवेश मे इस पर्व के मायने भी विस्तृत होना अपेक्षित है। इस पर्व को अब रक्षा के संकल्प के प्रतीकात्म रूप में मनाना चाहिए। जिससे इस प्रसंग के सही मायने लोगों की समझ में आए। आज होना यह चाहिए कि जो भी जिस किसी की रक्षा का संकल्प ले, वही रक्षा का वचन एक स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करने वाला लोक कल्याणकारी बंधन होना चाहिए।
यदि हम रक्षा के इस पर्व को प्रतीकात्मक रूप में देखे तो हम पाएँगे कि हमारे आसपास कई ऐसे योद्धा है जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर किसी की बहन, बेटी, पिता, भाई या माँ की जान बचाकर सही मायनों में राखी के मर्म अर्थात रक्षा के वचन को निभाया है। इन लोगों को न तो किसी पुरस्कार और नही किसी नाम की चेष्टा है। इन्हें जुनून है तो बस किसी को जीवनदान देने का।
नहर में कूदकर बचाई जान
धनोटू के पास सुंदरनगर में रात करीब साढ़े आठ बजे एक युवक पानी से उफनती नहर में जा गिरा और वाहनों के शोर में उसकी मदद की पुकार भी धीमी व गुम होती गई। कुछ लोगों ने उसे डूबते देखा पर उसे बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने का जज़्बा किसी ने नहीं दिखाया। ऐसे में जगत सैनी, यशपाल चंदेर और मनोज कुमार नामक तीन युवक नहर में कूद गए। कुछ समय बाद बड़ी मशक्कत करके इन तीनों जाँबाज योद्धाओं ने नहर में डूबते उस युवक की जान बचाई।
1500 जिंदगियों को बचाने वाला दसई
जबलपुर में दोपहर के 12 बजकर 20 मिनट पर जब राजकोट एक्सप्रेस ट्रेन भेड़ाघाट के करीब स्थित गेट नंबर 308 पर आने वाली थी तब मास्टर क्राफ्टमैन दसई को गेट के करीब पटरी की फिश प्लेट में कुछ गड़बड़ नजर आई। जब दसई ने हथोड़े से फिश प्लेट पर वार किए तो उन्हें पता लगा कि फिश प्लेट के बोल्ट खुले हुए है। यह देखकर दो खलासियों के साथ दसई फिश प्लेट के नटों को कसने में जुट गए। लेकिन जब राजकोट एक्सप्रेस ट्रेन के आगमन का कंपन उन सभी को पटरियों पर महसूस होने लगा तो दोनों खलासी अपनी जान बचाने के लिए पटरी से उठ खड़े हुए। लेकिन दसई ने हिम्मत नहीं हारी और वह पटरी पर तेजी से नट कसने के लिए हाथ चलाने लगे। दसई को उस वक्त अपनी मौत से ज्यादा उन 1500 लोगों की जिंदगी की फिक्र थी जो उस वक्त उस ट्रेन में सवार थे। अंततः हजारों जिंदगियों को बचाने वाले दसई को मौत मिली।
बहादुरी का कारनामा
यह ओंकारेश्वर में घटित हुई ताजा घटना है। नदी किनारे खेल रहे 10 वर्षीय बालक ईवान को जब नर्मदा में अपनी लहरों की तीव्र गति से जकड़ लिया तब घाट पर खेल रहे 12 से 14 वर्षीय चार बालकों मिथुन केवट, लव भवरिया, राजकुमार केवट और राजा केवट ने उसे डूबते देखा और चारों ने अपनी जान की बाजी लगाकर ईवान को डूबने से बचाया।
भारत माता की पीड़ा कौन समझेगा
आजादी के बाद से हमारे देश में राजनीतिक पार्टियों, राजनेताओं व नौकरशाहों के चरित्र और नैतिक मूल्यों में लगातार गिरावट ने दर्शाया है कि धृतराष्ट्र का कुर्सी प्रेम किन-किन विचित्र खेलों को जन्म देता है। चुनाव लडऩा अब हिंसा, धन और बाहुबल का खेल होकर रह गया है।
हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं में अपराधियों की भरमार होती जा रही है। क्या यही बापू के सपनों का भारत है? मंत्री, अफसर, धन्नासेठ सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं। कुल मिलाकर देश का भविष्य इन्हीं के हाथों में कैद होता जा रहा है।
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, के नारे, और संकल्प को साकार करने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसा दूसरा नेता आजादी के बाद देश में न होना दुर्भाग्य की बात है। अपने अतीत से सबक नहीं लेने वाले देशों का इतिहास ही नहीं, भूगोल भी बदल जाता है। आज देश में धीरे-धीरे ही सही आजादी के पहले की स्थिति येन-केन-प्रकारेण निर्मित होती दिख रही है।
लेकिन, सत्ता में काबिज राजनेताओं की आंखों पर राजनीतिक स्वार्थ की पट्टी बंधी हुई है। वे तो बस अपना घर भरने और कुर्सी बचाने में ही अपनी शक्ति लगा रहे हैं। वहीं, विपक्षी राजनेताओं का एक सूत्री कार्यक्रम है कि उन्हें सत्ता कैसे हासिल हो?
इन दो पाटों के बीच में आम जनता पिस रही है और मां भारती खून के आंसू बहा रही है। वो बिलख-बिलख कर कह रही हैं कि कहां हैं मेरे प्यारे महात्मा गांधी, बच्चों के चाचा जवाहरलाल नेहरू, आजादी के दीवाने सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह ....? जिन्होंने मुझे अंग्रेजों की कैद से तो आजादी दिला दी, लेकिन अपनों के हाथों घुट-घुटकर जीने को छोड़ दिया।
अरे, मेरे बच्चों कोई तो मेरे इन लालों के आदर्शों पर चलो, उनके स्वप्नों को साकार करो। जीवनभर उनके बताए मार्गों पर नहीं चल सकते तो दो-चार कदम ही बढ़ो। इतने में ही मेरा मान-सम्मान बढ़ सकेगा और मेरे ऊपर आए नक्सलवाद, आतंकवाद, दंगा, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, धर्म, भाषा व क्षेत्रवाद की मुसीबतें टल जाएंगी।
देशवासियों के सामने एक प्रश्न यह भी है कि आखिर हम क्यों पी रहे हैं, पानी खरीदकर? प्रकृति प्रदत्त हवा, पानी पर तो सभी का समान अधिकार है। फिर कौन लोग हैं जो पानी बेच रहे हैं? लोग आखिर क्यों खरीद रहे हैं,पानी? सरकार क्या कर रही हैं। जीने के लिए दो जून की रोटी की जरूरत तो सभी को है, लिहाजा कुछ लोग गरीबी, भुखमरी, तंगहाली के चलते तो कुछ पैसे कमाने की खातिर खून बेचने, खरीदने का धंधा कर रहे हैं।
अब पानी का व्यवसाय फल-फूल रहा है। ऐसी स्थिति में वह दिन दूर नहीं जब सांस लेने के लिए हवा खरीदनी पड़ेगी? आखिर लोग विरोध क्यों नहीं करते?
देश में प्रजातंत्र है। सरकार जनता की है। जनता के लिए है, और जनता ने ही चुनी है। तो फिर ऐसी सरकार की जरूरत क्यों है, जिनके राज में पानी खरीद कर पीना पड़े, शुद्ध हवा भी न मिले, दो जून की रोटी के लिए खून बेचना पड़े? अगर समय रहते केंद्र और राज्य सरकारों की आंखें नहीं खोली गईं तो वह दिन दूर नहीं जब सांस लेने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ेगी?
अब देश में ऐसी कौन सी चीज बची है जो नहीं बिकतीं? स्वयंभू धर्माचारी, राजनेता, अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, उद्योगपति बिके हुए हैं, पुलिस व कथित तौर पर न्यायाधीश पर भी बिकने का आरोप है।
ऐसे हालात में क्या देश का कोई नागरिक गर्व से यह कह सकता है कि वह देवताओं की भूमि भारतवर्ष में रहता है, जहां धर्म, कर्म, नैतिकता ही प्रधान रही क्या यह बलिदानी भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस जैसे शूरवीर की भूमि है, महात्मा गांधी, महावीर, नानक, गौतम बुद्ध, कबीर जैसे संत-महात्माओं की कर्मभूमि है?
जरा सोचिए! कहते हैं एक व्यक्ति से बड़ा परिवार, परिवार से बड़़ा समाज और समाज से बड़ा देश होता है। विपत्ति के समय परिवार के लिए खुद को, समाज के लिए परिवार को और देश के लिए समाज को कुर्बान कर देना चाहिए। लेकिन, आज देश में ऐसा होते कहीं दिखाई नहीं देता? उल्टे ऐसे लोग हैं जो स्वयं को परिवार, समाज और देश से बड़ा समझने लगे हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो कोई राजनेता भ्रष्ट न होता, अधिकारी-कर्मचारी ईमानदार व कर्तव्यपरायण होते, व्यापारी, उद्योगपति देश की संपत्ति नहीं लूटते और जनता सरकारी संपत्ति की समुचित सुरक्षा करते, बात-बेबात पर आगजनी, तोडफ़ोड़ कभी न करते।
विकास के नारे लगाने वाले लोग क्या पैसे की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं? जिन्हें लाखों भूखे, नंगे, अशिक्षित, भिखारी, गंदी बस्तियों व झोपड़पट्टियों में रहने वाले लोग, जंगलों में निवासरत आदिवासियों की दशा दिखाई नहीं देती। क्या ये भारत के वासी नहीं है?
समाज सेवा का क्षेत्र हो या धर्म-अध्यात्म अथवा राजनीति का, चारों ओर अवसरवादी, सत्तालोलुप, आसुरी वृत्ति के लोग ही दिखाई देते हैं। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र, जहां कभी सेवा के उच्चतम आदर्शों का पालन होता था, आज व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के केंद्र बन गए हैं। व्यापार में तो सर्वत्र कालाबाजारी, चोर बाजारी, बेईमानी, मिलावट, टैक्सचोरी आदि ही सफलता के मूलमंत्र समझे जाते हैं। त्याग, बलिदान, शिष्टता, शालीनता, उदारता, ईमानदारी, श्रमशक्ति का सर्वत्र उपहास उड़ाया जाता है। गरीबी और महंगाई आज देश की विकट समस्या है।
गरीबी का अर्थ समाज की क्षमताओं और विचारों के अनुरूप जीवनस्तर और जीवन-प्रणाली से वंचित होना है। गरीबी निवारण का अर्थ है लोगों को ऐसा जीवनस्तर और जीवन-प्रणाली प्रदान करना जिससे वे सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन में संयुक्त रूप से सहभागिता प्राप्त कर सकें।
क्या यह सही नहीं है कि आज देश में आजादी की क्रांति की भांति ही एक और बगावत की सख्त जरूरत है। ताकि, भ्रष्टाचार, बेईमानी, बेरोजगारी, हिंसा, अशिक्षा, असमानता, गरीबी, महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद का अंत हो सके। भारत माता की इस पीड़ा को कौन समझेगा?
अच्छी नींद से खूबसूरती बढ़ती है
एक दिन में 24 घंटे होते हैं। प्रकृति के अनुसार दिन का समय कार्य के लिए एवं रात्रि का समय विश्राम के लिए निर्धारित किया गया है, किंतु कुछ लोग सोचते हैं कि 24 घंटे में जितना काम कर सकें, कर लें। वे 7-8 घंटे सोने को विलासिता मानते हैं, किंतु विभिन्न शोधों के अनुसार वयस्कों का इतने घंटे सोना कतई विलासिता नहीं है, यह तो शारीरिक जरूरत है। बच्चों और बुजुर्गों को तो इससे भी ज्यादा समय के लिए सोने की सलाह दी जाती है। हां, कम सोना शरीर के साथ ज्यादती अवश्य है।
आधुनिक सुख-सुविधाओं के चलते अब लोगों की शारीरिक गतिविधियों का कम होना, खान-पान पर ध्यान न देना, सारे दिन बंद कमरों में बैठे रहना, अवसादग्रस्त रहना, मोटापा बढऩा आर्थेराइटिस, डायबिटीज जैसी बीमारियां, महिलाओं में हॉट फ्लेशेज (मेनोपॉज के समय हार्मोन में बदलाव की प्रक्रिया), पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रंथि का बढऩा, नींद में चलने की बीमारी होना भी नींद की कमी के लिए जिम्मेदार है।
चिकित्सकों द्वारा किए गए अध्ययनों में भरपूर नींद न लेने के कई दुष्परिणाम सामने आए हैं। यह भी पाया गया है कि कम नींद लेने वाले लोगों का वजन बढऩे की अधिक संभावना रहती है।
अध्ययनों के अनुसार कम सोने से मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस में सक्रिय न्यूरॉन्स के एक समूह की कार्यशैली गड़बड़ा जाती है। यहीं पर ओरेक्सिन नामक हार्मोन भी सक्रिय होता है, जो खानपान संबंधी व्यवहार को नियंत्रित करता है। कम सोने से आपके कार्य की गुणवत्ता में कमी आ सकती है और यहां तक कि सोचने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है और कोई दुर्घटना भी घटित हो सकती है, जैसे गाड़ी चलाते समय नींद का झोंका आ सकता है।
अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों पर नींद को लेकर किए गए एक अध्ययन में कम नींद लेने वाले लोग अस्वस्थ्य, थके-थके, कम आकर्षक नजर आए, वहीं भरपूर नींद लेने वाले लोगों के परिणाम ठीक इसके उलट पाए गए। शोधों में यह बात सामने आई है कि पर्याप्त नींद लेने से लोग बेहतर काम कर पाते हैं, क्योंकि शरीर और मस्तिष्क दोनों को आराम की सख्त जरूरत होती है।
गहरी नींद से सोकर उठने पर आप स्वयं को तरोताजा तो महसूस करते ही हैं, साथ ही इससे एकाग्रता और याददाश्त भी बढ़ती है। रोग प्रतिरोधक तंत्र भलीभांति काम करता है। आपकी उत्पादकता और संवेदनशीलता बढ़ाने तथा खूबसूरती को निखारने में भी पर्याप्त नींद की अहम भूमिका है।
अच्छी और मीठी नींद के लिए कुछ आसान से टिप्स पेश है :
नियमित व्यायाम करें एवं सोने के 3 घंटे पूर्व ज्यादा थकाने वाला व्यायाम न करें।
अपनी दिनचर्या में सोने के लिए समय निर्धारित करें और सप्ताहांत के दौरान भी उसे अमल में लाएं।
यदि आप दिन में झपकी लेते हैं तो कोशिश करें कि वह 20 से 30 मिनट की हो और दोपहर की शुरुआत में हो।
यदि सोने के समय आपको कोई विचार परेशान कर रहा है तो उसे कागज पर लिख लें और सुबह तक उसे भूलने की कोशिश करें।
दिन के 3 बजे बाद कैफीनयुक्त पदार्थों का सेवन न करें।
सोने के पहले गरिष्ठ भोजन न करें और न ही भूखे पेट सोएँ। कार्बोहाइड्रेट से भरपूर हल्का-फुल्का नाश्ता ले सकते हैं।
यदि आप धूम्रपान करते हैं तो छोड़ दें। निकोटिन का सेवन भी नींद में बाधक है। अल्कोहल लेना भी नींद खराब करता है।
यदि रात्रि में आपको बार-बार बाथरूम जाने की जरूरत महसूस होती है तो रात्रि के समय पेय पदार्थ लेने की मात्रा कम कर दें।
Wednesday, July 27, 2011
सेक्स लाइफ को बनाएं बेहतर
अक्सर ऎसा देखने में आता है कि बच्चों के जन्म के बाद पत्नी को सेक्स में पहले जैसी रूचि नहीं रह जाती। जबकि अध्ययन तो बताते हैं कि बच्चों के जन्म के बाद क्लाइमेक्स (चरमोत्कर्ष) की तीव्रता बढ़ जाती है। निम्न बातों पर गौर करें तो पाएंगे कि अध्ययन ही सही हैं।
1. शरीर का बेडौल होना या शेप में न होना कई बार महिलाओं में हीनता की भावना भर देता है। याद रखें शादी और बच्चों के बाद अब आप इस स्तर पर आ गए हैं जहां शायद इन चीजों का इतना महत्व नहीं रह जाता। ईश्वर द्वारा बनाए गए इस अनमोल शरीर में रंग, रूप, आकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि आप संतुलित खानपान और व्यायाम का बिल्कुल भी ध्यान न रखें।
2. सेक्स में आप क्या चाहती हैं, आपको क्या अच्छा लगता है, इस बारे में जीवनसाथी से खुलकर बात करें।
3. एक-दूसरे के साथ अधिक से अधिक समय बिताएं। टहलने के लिए हो सके तो प्रतिदिन आसपास ही कहीं जाएं या टेरेस पर चहलकदमी करें।
4. साल या डेढ़ साल में शहर से बाहर घूमने जरूर जाएं। यह ब्रेक आपको तरोताजा रखता है। यह आम समस्या है कि आदमी कहता रहता है समय नहीं है, लेकिन इन चीजों के लिए यदि समय नहीं निकालेंगे तो जीवन का नीरस लगना स्वाभाविक है।
5. बाजार में आ रही सेक्स दवाओं आदि का अंधभक्त होकर उपयोग न करें। विज्ञापन आदि से भ्रमित होकर ऐसा लग सकता है कि इनके बिना कुछ कमी सी है। लेकिन प्राकृतिक रूप से भी आप इसका आनंद उठा सकते हैं।
6. मैगजीन्स आदि में प्रकाशित सेक्स से संबंधित आर्टिकल्स या इमेजेस, सीडी आदि का सहारा ले सकते हैं।
7. सप्ताह में कितनी बार सेक्स किया आदि बातों पर ध्यान न देते हुए यह ध्यान रखें जब भी करें इसे पूरी तरह से एंज्वॉय करें तो आप पाएंगे कि इसमें संख्या का विशेष महत्व नहीं है। सप्ताह में 4 बार से ज्यादा मजा आपको 2 बार में भी आ सकता है।
8. यदि पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं। समयाभाव और थकान के कारण सेक्स लाइफ खत्म जैसी हो जाती है। ऎसे में बेहतर होता है कि सुबह उठकर फ्रेश मूड में सेक्स का आनंद उठाएं। या मौका मिलने पर साथ नहाने भी जा सकते हैं।
9. पोजीशन वगैरह चेंज करके भी सेक्स से अच्छा आनंद मिल सकता है। इस बारे में भी दोनों खुलकर बात करें।
10. सेक्स दोनों को शारीरिक ही नही मानसिक रूप से भी करीब लाता है। इस जुड़ाव से दांपत्य जीवन मजबूत होता है।
11. रतिक्रिया (सेक्स) को कभी भी काम की तरह या खाना खाने की भांति न निपटाएं। भूख लगी है तो खाना खाना ही है। काम की तरह निपटाने से जल्द ही इससे ऊब जाएंगे।
12. बेहतर सेक्स के लिए तनावमुक्त होना बहुत जरूरी है। इससे आप बहुत आरामदायक फील करेंगे। कम से कम इस समय अपनी सारी चिंताओं, समस्याओं को एक तरफ रख दें। सभी कुछ भूलकर बस एक-दूसरे में खो जाएं। तनाव के समाधान के लिए आपके पास इसके अतिरिक्त भी ढेर सा समय है।
सावधानी रखने वाली सबसे जरूरी बात कि किसी भी हालत में नशे का सहारा न लें। सिगरेट या शराब में अपने को डुबोते हैं तो मान कर चलें आप अपना और नुकसान ही कर रहे हैं। नशे की लत से आपको इन समस्याओं से छुटकारा तो नहीं मिलेगा उलट ये बढ़ जाएंगी। इन छोटे-छोटे उपायों को आजमाकर आपका सेक्स जीवन लंबे समय तक सुरक्षित रह सकता है और शादी के कई वर्षों बाद
भी इसका आनंद उठाते रहेंगे।
‘खाप’ बनाम ‘खाप’ के निहितार्थ चन्द यक्ष प्रश्न
-राजेश कश्यप
उत्तरी भारत की खाप-प्रथा के खिलाफ अमरीश पुरी द्वारा अभिनीत फिल्म ‘खाप’ आगामी २९ जुलाई को रीलिज होने जा रही है। क्योंकि फिल्म अत्यन्त संवेदनशील मुद्दे पर बनी है, तो फिल्म के निहितार्थ कुछ तथ्यों पर गहन मन्थन करना अत्यन्त अनिवार्य हो जाता है। चूंकि सिनेमा, समाज का दर्पण होता है और उसने खाप को केन्द्रित करके पूरी फिल्म का निर्माण किया है तो निश्चित तौरपर मसला कोई मामूली नहीं है। फिल्म के प्रोमो देखकर पूरी फिल्म का सारांश सहज स्पष्ट हो जाता है। फिल्म मीडिया रिपोर्टों, कुछ कानूनी फैसलों और प्रकाश में आई आWनर किलिंग की सनसनीखेज घटनाओं के आधार पर बनाई गई है। साधारण तौरपर तो फिल्म का मुख्य मुद्दा मात्र गोत्र के नाम पर होने वाली कथित प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या का विरोध करना है। क्या वास्तव में ही इतना-सा मसला है? नहीं, मसला इससे कहीं अधिक गंभीर है। वरना खाप-पंचायतें फिल्म का इतना मुखर विरोध कदापि नहीं करतीं।
अगर फिल्म की गंभीरता से विवेचना की जाए तो कई विवादास्पद पहलू नजर आएंगे। सबसे पहले फिल्म के मुख्य मुद्दे ‘सगोत्र विवाह की पैरवी’ को लेते हैं। यह बिल्कुल सही है कि हमारे देहात में ‘सगोत्र विवाह’ को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा रहा है। ऐसा केवल वर्तमान दौर में नहीं हो रहा है। यह तो सदियों से चली आ रही परंपरा और रीति-रिवाज है। ऐसा क्यांे है, ‘गोत्र’ क्या हैं और इस मान्यता के पीछे क्या भेद है, क्या इस बारे में आलोचकों ने कभी गहराई से सोचा है? शायद नहीं। देहात में सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार, ‘गौती भाई, बाकी अश्नाई’ अर्थात गौत्र वाले सभी भाई हैं और बाकी सभी रिश्तेदारी से हैं। इसका मतलब यह है कि ‘गौत्र’ अपने मूल दूध-खून से निर्मित एक परिवार का नाम है। क्या एक खून-दूध से जन्में हुए व्यक्तियों का आपसी रिश्ता बहन-भाई का नहीं बन जाता? यदि हाँ तो देश का कौन सा कानून या सभ्य समाज भाई-बहन को प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी बनाने की इजाजत दे सकता है? क्या एक व्यक्ति की संतानों की संतानें और उनकीं संतानें आगे दो-चार पीढ़ियों के बाद अपने खूनी-रिश्तों से मुक्त हो जाएंगी? कदापि नहीं। तो फिर ‘सगौत्र’ अर्थात एक ही गौत्र यानी आपसी बहन-भाईयों का विवाह कैसे संभव हो सकता है? यहां यह स्पष्ट करना अत्यन्त अनिवार्य है कि ‘सगौत्र विवाह’ और ‘अंतरजातीय विवाह’ में जमीन-आसमान का अंतर है। पहले तो देहात में जाति बन्धनों को अटूट बनाया गया था, लेकिन बदलते दौर में यह अटूट नहीं रह गए हैं और संभवत: खापों ने भी अंतरजातीय विवाहों को दबी जुबान में अपनी सहमति दी हुई है। अब यदि सिर्फ दूध-खून के रिश्ते को छोड़कर अन्य कहीं भी शादी करने की स्वीकृति मिल रही है तो फिर विवाद किस बात का?
फिल्म में खापों को खूंखार और हैवान रूप में दिखाया गया है। अब फिर सवाल उठता है कि क्या कोई शहरी व्यक्ति ‘खाप’ के अर्थ, उनकी प्रकृति और उनके इतिहास के बारे में जानता है? यदि नहीं, तो उन्हें स्वयं खापों के बीच बैठकर जानना चाहिए, सिर्फ कुछ अल्पबुद्धिजीवियों की मनघड़ंत लेखनी को पढ़कर अथवा सुनकर अपनी राय नहीं बनानी चाहिए। खाप का प्रचलन महाराजा हर्षवद्र्धन काल से चला आ रहा है और विदेशी आक्रान्ताओं व हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को छिन्न-भिन्न करके पश्चिमी संस्कृति को लादने वाले षड़यंत्रकारियों के खिलाफ डटकर लोहा लेने तथा अपने राजा-महाराजाओं व देश के मान-सम्मान के लिए मर-मिटने की पहचान रखती आई हैं, खाप पंचायतें। यह दूसरी बात है कि आधुनिक खाप पंचायतों में कुछ सिरफिरे, गैर-जिम्मेदार, असामाजिक तत्व और संकीर्ण राजनीतिक प्रवृति के लोग खापों के रहनुमाओं का मुखौटा पहने हुए हैं। ऐसे में मुद्दा खापों के गौरवशाली अतीत पर कीचड़ फेंकने के बजाय, खापों में आई विकृतियों को समूल नष्ट करने का आन्दोलन चलना चाहिए। स्वयं खाप प्रतिनिधियांे को भी आत्म-मंथन करना चाहिए कि उनके नेतृत्व में गौरवशाली खाप परंपरा के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह क्यों लग रहे हैं?
फिल्म के पोस्टर में ग्रामीण बुजुर्गों द्वारा हाथ में पकड़ी हुई छड़ी को विषैले नाग के फन में चित्रित करके दिखाया गया है। यह चित्रण करते समय किसी ने क्या यह तनिक भी सोचा कि इस छड़ी का क्या मतलब है और इसकी क्या गरिमा है? दरअसल यह छड़ी, देहात में ‘डोगा’ के नाम से जानी जाती है और यह बुजुर्गों के सम्मान की प्रतीक होती है। किसी भी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा एवं मान्यता के तहत जिस चीज को सम्मानजनक स्थान दिया गया हो, उस पर घिनौना प्रहार करना, क्या आपराधिक श्रेणी में नहीं आता है? यदि देश के सम्मान की प्रतीक किसी भी चीज से छेड़छाड़ करके विकृत अथवा आपत्तिजनक रूप दिया जाए तो क्या वह गंभीर अपराध की श्रेणी में नहीं आता है? तो फिर ग्रामीण समाज के सम्मान की प्रतीक छड़ी को विषैले नाग के रूप में प्रदर्शित करके क्या फिल्मकारों ने भयंकर भूल नहीं की है?
इसके बाद फिल्म एक अत्यन्त गंभीर प्रश्न खड़ा करती है, कि क्या आज भी प्यार करने की सजा, मौत है? प्रश्न जितना पेचीदा है, उत्तर उतना ही आसान। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हमेशा से ही समाज की प्रचलित परंपराओं और रीति-रिवाजों के आधार पर कानूनों का निर्माण होता आया है अर्थात् परंपराओं से कानून बने हैं, न कि कानूनों से सामाजिक परंपराएं बनी हैं। जब सदियों से समाज की परंपरा व रिवाज रहा हो कि खून-दूध से जुड़े सदस्य और गाँव व गौहाण्ड (साथ लगते गाँव) के लोगों के बीच एक पारिवारिक व भाईचारे का रिश्ता रहेगा तो इसे गैर-कानूनी कैसे ठहराया जा सकता है? जब देहात के व्यक्ति को गाँव-गौहाण्ड अथवा गौत्र की कोई लड़की मिलती है तो वह उसे सम्मान के रूप में दस रूपये देकर आशीर्वाद देने और अपनी बहन-बेटी का दर्जा देने जैसी परंपराओं के निर्वहन में अपना गौरव समझता हो, तो भला वह गंवार कैसे ठहराया जा सकता है? और वह अपनी गौरवमयी सामाजिक परंपराओं से हो रही खिलवाड़ पर अपना विरोध दर्ज करवाता है तो उसे जानवर और हैवान की संज्ञा देने का क्या आधार बनता है?
अब रही प्यार करने वालों की बात। प्यार क्या होता है? क्या पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में पथ-भ्रष्ट हुई आधुनिक युवा पीढ़ी को पता है? आजकल के युवा सिर्फ विषय-वासना और शारीरिक भूख मिटाने वाली पाश्विक प्रवृति को ही ‘प्रेम’ का आवरण दे रहे हैं। पाश्विक प्रवृति के चलते वह अपने-पराए, अच्छे-बुरे आदि हर तरह के ज्ञान को भूल चुका है। उदाहरण के तौरपर हरियाणा में रोहतक जिले के गाँव कबूलपूर की घटना को लिया जा सकता है। गाँव की एक लड़की सोनम ने अपने सामने वाले घर में रहने वाले लड़के, जिसे वह सार्वजनिक रूप में भाई के तौरपर संबोधित करती थी, के साथ अपनी वासना के वशीभूत होकर नाजायज सम्बंध बनाए। पता लगने पर, परिवार वालों ने उन्हें समझाया। उनपर कोई असर पड़ता न देख, परिवार वालों ने लड़की को रोहतक के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्रावास में भेजा। वहां पर भी इस रासलीला में कोई कमी नहीं आई। अंतत: दु:खी होकर उसे वापिस घर पर रखा गया। जब परिवार में काफी विरोध बढ़ा तो उस लड़की ने १४ सितम्बर, २००९ की रात को पहले अपने परिवार के सभी सात सदस्यों माता-पिता, दादी और चार बहन-भाईयों को खाने में बेहोशी की दवा खिलाई और फिर अपने कथित प्रेमी के साथ मिलकर परिवार के सभी सदस्यों को बड़ी बेरहमी से मौत की नींद सुला दिया। बात यहीं खत्म नहीं हुई। इस भयंकर और हृदय विदारक घटना को अंजाम देने के बाद परिवार की लाशों के बीच लेटकर उन दोनों ने पूरी रात खुलकर सेक्स किया। इससे और अधिक चौंकाने वाली बात यह रही कि कानून की पकड़ में आने के बावजूद उस लड़की ने सीना ठोंककर बयान दिया कि उसे अपने इस कृत्य पर किसी तरह का कोई मलाल नहीं है। क्या आधुनिक युवा पीढ़ी द्वारा थोपे गए इस विकृत पैशाचिक विषय-वासना को एक सभ्य समाज अपनी स्वीकृति दे सकता है? क्या पे्रम के नाम पर ऐसे कुसंस्कारी कुसंतानों के कुकर्मों पर समाज की मान-मर्यादाओं को स्वाहा किया जा सकता है? मेरे हिसाब से इसका जवाब देने की आवश्यकता नहीं है।
देहात में प्यार करने को बुराई नहीं समझा जाता है। यदि कायदे-कानूनों के दायरे में रहकर कोई प्यार-प्रेम करता है तो समाज उसका सम्मान करता है। लेकिन रीति-रिवाजों को तोड़कर पाश्विक आचरण करना, उन्हें तनिक भी नहीं भाता है। ऐसे में एक पारिवारिक इकाई से लेकर, पड़ौसी, ग्रामवासी, रिश्तेदारी, गौत्र और खाप जैसी सामाजिक इकाईयां तक वासना के वशीभूत सामाजिक मर्यादाओं से खिलवाड़ करने वाले युवकों एवं युवतियों को बड़े लाड़-प्यार से समझाया जाता है। घर के बड़े-बुजुर्ग अपने स्वाभिमान की प्रतीक पगड़ी उनके पैरों में रखकर अच्छे-बूरे का भेद समझाने की कोशिश करते हैं और यहां तक माताएं अपने दूध का वास्ता तक देती हैं, लेकिन तब भी कथित पे्रमी-प्रेमिकाओं के सिर से वासना का भूत नहीं उतरता है। जिस माता-पिता ने उन्हें बड़े कष्टों के साथ पाला-पोषा हो, खून-पसीना एक करके उन्हें पढ़ाया लिखाया हो, उनके बड़े-बड़े नाज नखरे उठाए हों, उनसे कुछ अभिलाषाएं एवं उम्मीदें पाल ली हों तो ऐसे में उनपर क्या बीतती होगी, क्या कभी किसी ने इस बारे में तनिक भी सोचा है? समाज में उन्हें किन-किन कटाक्षों को झेलना पड़ता है, उसका किसी ने जरा सा भी अहसास किया है? जब वे अपने कलेजे के टूकड़े को बुरी मौत मरते देखते हैं तो क्या उससे बढ़कर अभिशाप उनके लिए और कोई हो सकता है? हालांकि कोई भी खून-खराबे की पैरवी नहीं करता है। यदि कोई आWनर किलिंग के नाम पर किसी तरह का खून खराबा करता है तो वह कानूनी सजा भुगतता है।
इसके बाद फिल्म के मूल प्रश्न का शेष हिस्सा है प्यार करने की सजा, मौत? कब तक? वर्तमान समीकरणों के अनुसार इसका बेहद आसान सा जवाब है, ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५ में संशोधन होने तक’। यदि इस विवाह अधिनियम की धारा ३ के अन्तर्गत उपधारा (छ) की उपधारा (पअ) के बाद संशोधन करके यह जोड़ दिया जाए कि ‘एक ही गौत्र या माँ के गौत्र, एक दूसरे की साथ लगती रिहायश, तथा भाईचारे का गाँव में हो, चाहे वह किसी गोत्र या जाति का हो, या एक दूसरे की रिहायश उस गाँव में हो, जहां पर खासी तादाद में एक दूसरे गौत्र के लोग रहते हों तो उन्हें प्रतिसिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के अन्दर माना जाएगा।’ सिर्फ इतना सा संशोधन इस तरह के कथित आWनर किलिंग के नाम पर हो रहे खून खराबे पर अंकुश लग सकता है। क्योंकि जब समाज की संस्कृति व रीति-रिवाज के खिलाफ होने वाली शादियों को कानून इजाजत ही नहीं देगा तो निश्चित तौरपर अनैतिक प्रेम संबंधों की घटनाओं मंे कमी आएगी और यदि इसके बावजूद यदि कोई गैर-कानूनी शादी करता है तो माता-पिता व समाज कानून हाथ में लेने की बजाय, उलटा कानून का ही सहारा लेगा। इससे समाज व कानून के बढ़ते टकरावों की समस्या से भी निजात मिल सकेगी।
अब रहा खापों द्वारा फिल्म का विरोध करने का मसला। तो खापों को ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर प्रदेश में फिल्म के प्रदर्शन पर ऐतराज नहीं करना चाहिए। चूंकि सिनेमा अभिव्यक्ति का एक साधन है तो उस पर अंकुश नहीं लगाया जाना चाहिए। यदि फिल्म के किसी पक्ष पर किसी को कोई ऐतराज है तो कानूनी सहारा लिया जा सकता है। अपनी ताकत के बलपर फिल्म प्रदर्शित करने से रोककर, खापें अपनी नकारात्मक छवि ही बनाएंगी, उससे उसका भला होने वाला नहीं है। खाप प्रतिनिधियों को पता होना चाहिए कि इस तरह विरोध करके तो फिल्म को और ज्यादा प्रचार मिलेगा। इससे पहले पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनी प्रेम कहानी ‘आक्रोश’ प्रदर्शित हुई थी, वह कब आई और कब गई, क्या किसी को पता चला? तो फिर ‘खाप’ फिल्म पर विरोध जताकर अपनी छवि को नकारात्मक बनाने में कौन सी समझदारी है? वैसे समझदारी तो इसी में है कि खाप पंचायतों द्वारा अपने वैचारिक पक्ष को मजबूत किया जाए और अपनी आक्रामक शैली पर अंकुश लगाकर धैयै एवं संयम का परिचय देते हुए तार्किक आधार पर अपने रीति-रिवाजों एवं परंपराओं का बोध अज्ञानी व अबोध लोगों को करवाया जाए।
Thursday, June 16, 2011
बच्चों के साथ ज्यादती है डराना-धमकाना
अक्सर माता-पिता अपने जिद्दी बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए उन्हें डांटते हैं और कभी-कभार तो पिटाई भी कर देते हैं। भारत में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी बच्चों को अनुशासित बनाए रखने के लिए उनके साथ सख्त बर्ताव किए जाने की खबरें पढऩे को मिलती रहती हैं। हाल ही में यूनिसेफ के एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि हर चार में से तीन बच्चे माता-पिता के हिंसक व्यवहार और गुस्से को झेलते हैं। कई बच्चों को शारीरिक दंड भी दिया जाता है।
भारत में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक बच्चों को अनुशासित करने के लिए उन पर चिल्लाना या दंड देना लगभग हर माता-पिता के लिए सामान्य बात है। उनका मानना है कि बच्चों को अगर अनुशासन में रखना है तो यह सब करना ही पड़ता है। कई अध्यापक तो आज भी बच्चों की पिटाई जरूरी मानते हैं मगर स्कूलों में इस पर पाबंदी के कारण अब वे ऐसा नहीं कर पाते।
मानसिक तरीके से बच्चों को अनुशासित करने के तरीके में जोर-जोर से उसका नाम लिया जाता है और फिर काफी बुरा-भला सुनाया जाता है। धमकी देना भी आम बात है। यह न सिर्फ भारत मिस्र, ब्राजील, फिलीपींस और अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी होता है। भारत में 70 से 95 फीसदी अभिभावक अपने बच्चों पर चीखते-चिल्लाते देखे गए हैं। कुछ समुदायों में बच्चों को सार्वजनिक तौर पर धमकी भी दी जाती है कि उन्हें घर से बाहर निकाल दिया जाएगा या हॉस्टल भेज दिया जाएगा।
एक अध्ययन के अनुसार बच्चों को मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के साथ-साथ शारीरिक दंड देना भी आम बात है। अगर ब्राजील और अमेरिका की बात करें तो वहां बच्चों की कमर के निचले हिस्से पर पिटाई की जाती है। जबकि भारत में बच्चों को थप्पड़ मारना आम बात है। छोटे शहरों की ज्यादातर माएं बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए काफी आक्रामक हो जाती हैं। करीब 42 फीसदी माताएं तो शारीरिक दंड भी देती हैं। चीन में 48 फीसदी बच्चों (जो 14 साल से कम उम्र वाले हैं) को बोल कर अनुशासित किया जाता है वहीं 23 प्रतिशत बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाता है। पंद्रह फीसदी बच्चे कठोर दंड पाते हैं।
बच्चों पर चीखना-चिल्लाना और उनके साथ मारपीट करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं जैसे माता-पिता का ज्यादा पढ़ा-लिखा न होना, परिवार का निरक्षर होना, घर का माहौल खराब होना, बच्चों में किशोरावस्था के दौरान जिद्दीपन, शराबी पति का गाली-गलौज करना और घर के दूसरे सदस्यों से बुरा बर्ताव करना। इन सबका खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है। भारत में करीब 39 फीसदी बच्चों को अनुशासित करने के लिए शारीरिक दंड दिया जाता है। इक्यासी प्रतिशत बच्चे मौखिक और मानसिक तौर पर दंडित किए जाते हैं। दस फीसदी से भी कम बच्चों को सामान्य तरीके से बात कर अनुशासित बनाने की कोशिश की जाती है। इसी तरह 89 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जिन्हें अनुशासित करने के लिए माता-पिता कठोर बर्ताव करते हैं।
यूनिसेफ चाइल्ड प्रोटेक्शन के सर्वे में यह बात सामने आई है कि घर में बच्चों साथ हो रहे बुरे व्यवहार को अक्सर छिपाया जाता है। अध्ययन के अनुसार अगर कोई यह माने कि वह अपने बच्चों के साथ घर में बुरा व्यवहार करता है या वह बच्चों से बात करते समय हिंसक हो उठता है तो यह स्थिति न सिर्फ परेशानी का कारण बनेगी बल्कि समाज में परिवार की बदनामी भी होगी। बच्चों के लिए थोड़ी सी सजा उनके कोमल बचपन के लिए हानिकारक होती है। वह उनके विकास में बाधा डालती है। भविष्य में उनमें हिंसात्मक प्रवृत्ति बढ़ाने में भी मदद करती है। बच्चे की हंसी उड़ाना, उसे धमकाना आदि उनके बचपन के साथ ज्यादती है।
बच्चों के ऐसा करने के लिए हम जिम्मेदार
बच्चे जोकि देश का भविष्य हैं। आज के दौर में बच्चे अपने आप को एक दूसरे से आगे निकलने की पूरी-पूरी कौशिश करते हैं। यह नहीं है कि हम उन्हें कहे की पड़ौसी का बच्चा ऐसा है, उसका बच्चा ऐसा है तो यह उनके साथ ज्यादती होगी, क्योंकि जब हम अपने बच्चों के सामने दूसरे की बढ़ाई करते हैं तो इस बात का बच्चों की दिमाग पर काफी गहरा असर पड़ता है औैर यह असर काफी हद क नुकसान दायक ही सिद्ध होता है।
बच्चों को स्कूल जाने से पूर्व औैर स्कूल आने के बाद माता-पिता से भी अध्यापकों की बजाय काफी कुछ सिखने को मिलता है। मैं मानता हूं कि बच्चे ज्यादातर समय स्कूल या फिर स्कूल के दोस्तों के साथ बिताते हैं। बच्चे स्कूल में होते हैं तो अध्यापक ये नहीं सिखाते कि बच्चों घर जाते ही माता-पिता को जी, आप न करें और उन्हें तू कहकर बोले। वे नहीं सिखाते ही बच्चों गलत तरीका की सबसे बेहतरीन तरीका है, एक-दूसरे से लडऩा ही अच्छा है, लड़ाई के समय गाली-गलौच करना सही है।
ऐसा बिल्कूल भी नहीं है, बल्कि अध्यापक बच्चों को आज के समय में केवल-औैर-केवल उन्हें पढ़ाते ही हैं वे उन्हें बोलना, उठाना, बैठना, दोस्ती करना आदि कैसे करना चाहिए। आज समय में अध्यापक केवल स्कूल में अनुसाशन, शांत करना और अच्छे अंकों से पास होना ही सिखाया जाता है। यदि हम अपने बच्चों को आप, जी, दोस्त कैसे हों, पढऩा कैसे हो आदि बातों के बारे में हम ही उन्हें यह जानकारी बेहतर दे सकते हैं।
मैंने देखा भी है और सुना भी है जब मैं गांव से दूर स्कूल के लिए जाता था तो वहां शहर में जब माताएं अपने बच्चों को स्कूल बस में बैठाने के लिए घर से निकलती थी तो उन्हें खुशी महसूस होती थी। एक बार एक बच्चे ने मां के साथ जाते हुए किसी पड़ौसन को कुछ गलत कर दिया, जरा सोचो बच्चा बिल्कुल छोटा था और करीब छ: साल का ही होगा, ऐसे में मां को क्या करना चाहिए उसे मारना, धमकाना या फिर समझाना। बच्चे की मां कहती है कि बेटा ऐसा नहीं बोलते, वो आप से बड़ी हैं और उन्हें ऐसा नहीं कहा जाएगा। उनकी माता ने कहा कि बेटा वो आप से बड़ी हैं। इसमें मां अपने बच्चे को आप कहती है औैर बच्चा शांत होकर साथ-साथ हो लेता है।
बच्चे के दिमाग में आप शब्द चला जाएगा और वह सभी को आप कहकर बोलने लगेगा और इस बात से पता चलता है कि बच्चा लायक हो जाएगा। कहा भी गया है कि आप कहोगे आप कहलाओगे यदि तू कहोगे तो तू कहलाओगे। हमें सिखाना होगा कि दोस्त कैसे चुने जाएं, क्या बोलना चाहिए औैर क्या नहीं। हमें ही आज के समय में बच्चों के बारे में कुछ सोच समझकर कदम उठाना चाहिए जैसे :-
बच्चों को कभी-भी इतना अधिक नहीं डराना या धमकाना चाहिए वे बात उनके दिमाग में बैठ जाए।
अपने बच्चे के सामने गुस्से से लाल-पीले होकर दूसरे बच्चों से तुलना नहीं करनी चाहिए।
बच्चे की जिंदगी के लिए कोर्ई बड़ा कदम उठाने से पहले उससे चर्चा जरूर करने की जरूरत है औैर वह इसके बारे में क्या सोचना है।
बच्चों पर ऐेसे काम ना थोपें जोकि उनके लायक ना हों या फिर बसकी बात ना हो।
बच्चा कक्षा में फेल हो जाता है औैर रोता है, हमें चाहिए की उस डराने या मारने की बजाय उसका हौंसला बढ़ाना चाहिए।
यदि बच्चा किसी भी प्रकार की जीद करता है तो उसे प्यार से बैठकर समझाना चाहिए, प्यार से समझाना उससे दिमाग को शांति मिलेगी और वह समझ जाएगा।
Wednesday, June 8, 2011
ऐसे मिलेगा देश की जनता को न्याय
आज हरिद्वार में अनशन पर बैठे बाबा रामदेव की हालत गंभीर हुई और उधर एक दिन के लिए महात्मा गांधी की समाधी पर अनशन पर बैठे अन्ना हजारे में घोषणा कर दी कि यदि सरकार हमारे साथ नहीं चलेगी तो देश को आजाद कराने के लिए एक और आजादी की जंग का ऐलान कर दिया। यह आजादी की जंग का दिन 16 अगस्त रखा गया है। अन्ना ने कहा कि 4 जून की रात को रामलीला मैदान में केवल गोलियां ही नहीं चली बाकी सब कुछ हुआ और उन्होंने इसे जलियावाला कांड का नाम दिया है। अन्ना का एक दिन का अनशन और बाबा रामदेव का चल रहा अनशन अभी भी सरकार के लिए किसी जवालामुखी के कम नहीं है। सरकार शायद हाथ-पर-हाथ धरे बैठी है और स्वयं मौन होकर प्रैस प्रवक्ताओं और सचिवों को आगे कर अपनी बात कर रही है, लेकिन जब से बाबा रामदेव मैदान में उतरे हैं तभी से लेकर आज प्रधानमंत्री और यूपीए अध्यक्षा ने इस विषय में कोई बात नहीं की। जब सरकार मौन बैठी है तो सुप्रीम कोर्ट ने देश की सुध ली और सरकार को रामलीला मैदान में हुए कांड के बारे में दो हफ्ते का समय दे डाला है। अब दो बड़ी घटनाओं को इस देश को इंतजार है एक जो कि सरकार दो हफ्ते के बाद जवाब क्या देगी और दूसरा अन्ना हजारे की आजादी की जंग का ऐलान क्या-क्या रंग लाता है। आज पूरे देश में सरकार की थू-थू हो रही है। हर कोई चाहता है कि सरकार को केंद्र से बदल डालो या फिर सरकार पूर्णं रूप से अन्ना और बाबा रामदेव का साथ दे और पूरे भारत देश को भय, भ्रष्टाचार और कालेधन के निजात मिले और फिर से भारत देश सोने की चिडिय़ां कहलाए।
Sunday, June 5, 2011
अभी तक सौ रहे हैं भारत माता के लाल
सोने की चिडिय़ां कहलाने वाला भारत देश और इसी देश को फिर से सोने की चिडिय़ां बनाने की मुहिम में हिस्सा ले रहे बाबा रामदेव और उनके करोड़ों समर्थकों को ऐसी उम्मीद तक नहीं थी कि देर रात्रि को सरकार ऐसा फैसला करेगी और सभी के साथ-साथ बाबा को अपने कपड़े उतारकर माताओं-बहनों के कपड़ों में जान बचाकर छुपना पड़ा। बाबा ने बाद में खुद दिल ठोककर कहा कि मुझे मार डालने की साजिश रची जा रही थी और उधर पंडाल में सभी पर लाठियां, पत्थर, आंसू गैस के गोल, पंडाल में आग से बाबा के समर्थकों को जुझना पड़ा। क्या सरकार काले धन को वापिस नहीं लाना चाहती है। क्या सरकार का भी बाहर के देशों में काला धन है या फिर सरकार बाबा रामदेव को मारकर मामले को जबरन दबा देना चाहती है। जब से बाबा रामदेव अनशन पर बैठे थे तभी से लेकर अभी तक माता जी और सरदार जी का कोई भाषण या किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं आई। या फिर यूं कहिए की सरकार बाबा रामदेव जैसे करोड़ों भक्तों से डर कर यह कदम उठाया है। इतना कुछ होने के बाद भी भारत माता के लाल सौ रहे हैं। उन्हें आखिर कब तक नींद आएगी और कैसे उनकी नींद को तोड़ा जा सकता है। एक ओर इतना कुछ हो रहा है और दूसरी ओर भारत माता के लाल सौ रहे हैं। उनके जागने का समय आ गया है। उन्हें इस मामले को पूरजोर उठाना चाहिए। बाबा के साथ पूरे भारत देश को कंधे-से-कंधा मिलाकर चला चाहिए जब जाकर कुछ हो सकता है, वरना एक हाथ से ताली कभी-भी नहीं बजती है। इसी घटना के बाद आज सुबह पूर्व रेल मंत्री लालू जी का ब्यान सुनने को मिला तो उन्होंने कहा कि ऐसे अनशन की आंच से सभी अपने-अपने काले धन को इधर का उधर कर सकते हैं तो ऐसे में काला धन गायब ही हो जाएगा। फिर उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कैसे करेंगे। लगता है लालू जी का भी काफी सारा माल बाहर बंद है। उन्हें भी अब बाबा जी से डर लगने लगा है। बाबा का तहेदिल से साथ देने वाली भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने पिछले दिनों कहा था कि गांधी परिवार का बाहर के बैंकों में काला धन जमा है। इस भाषण के शाम होते ही उन्होंने मैडम जी से लिखित में माफी मांगी। उन्हें ब्यान देने के बाद माफी की जरूर क्या पड़ी कहीं इस घेरे में आडवाणी जी भी तो नहीं आते और हो सकता है मैडम जी के पास आडवाणी के खिलाफ काले धन का सबूत हो, लेकिन यह भी हो सकता है कि आडवाणी जी के पास मैडम जी के खिलाफ सबूत ना हो। कहावत है ना की हमाम में सभी नंगे होते हैं। तो फिर क्या मैडम जी, क्या आडवाणी और क्या अन्ना हजारे जोकि लोकपाल बिल में शामिल सदस्य पहले से ही विवादों में घेरे में रहे हैं।
जरा सोचिए बाबा अब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार से दूर उत्तराखंड में भाजपा की सरकार के क्षेत्र में है। यदि भाजपा चाहे तो अपने राज्य की सरकार के क्षेत्र में किसी को घूसने तक ना दे। बाबा रामदेव को पकड़कर उन्हें उन्हीं के पंतजलि पीठ पर ही क्यों छोड़ा गया क्योंकि वहां भाजपा की सरकार है उन्हें दिल्ली में अनशन पर बैठे देकर घबराहट हो रही थी। बाबा अब क्या कदम उठाएंगे यह अभी भविष्य के गर्भ में है।
जरा सोचिए बाबा अब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार से दूर उत्तराखंड में भाजपा की सरकार के क्षेत्र में है। यदि भाजपा चाहे तो अपने राज्य की सरकार के क्षेत्र में किसी को घूसने तक ना दे। बाबा रामदेव को पकड़कर उन्हें उन्हीं के पंतजलि पीठ पर ही क्यों छोड़ा गया क्योंकि वहां भाजपा की सरकार है उन्हें दिल्ली में अनशन पर बैठे देकर घबराहट हो रही थी। बाबा अब क्या कदम उठाएंगे यह अभी भविष्य के गर्भ में है।
Saturday, June 4, 2011
जीन्द तेरा कुछ नहीं हो सकता
हरियाणा राज्य के मध्य में स्थित जिला जीन्द इस नाम को हर कोई जानता भी है और नहीं भी,क्योंकि ये मध्य में होकर भी कुछ नहीं है। पुरानी कथाओं को देखें तो यह बहुत कुछ अपने आंचल में छिपाए हुए है, लेकिन अब इस दौर में यह केवल एक राजनीतिक अखाडा बनकर रह गया है। यहां की राजनीति दशा राज्य की सरकार कोई भी हो उसके लिए काफी महत्त्व रखती है। कमाल की बात तो यह है कि आज तक जीन्द जिले ने राजनीतिक मामले में काफी कुछ सरकार को दिया है, लेकिन हर किसी की सरकार ने इसे कुछ भी नहीं दिया है। यहां कहते हैं कि बंसी लाल की सरकार के चलते जीन्द की बिड़ी में एक लड़ाकू हवाई पट्टी बनने जा रही थी जोकि बाहर से किसी को दिखाई नहीं देगी और गुप्ता होगी। सरकार बदली और सब कुछ खाक हो गया। इसके बाद किसी ने भी इसकी सुध नहीं ली। हरियाणा के इस लाल ने जीन्द के भविष्य के बारे काफी कुछ सोचा था। मान लिजिए यदि वहां हवाई पट्टी बन जाती तो उस समय से आज के समय की तुलना किजिए आज जीन्द को किसी के भी सामने हाथ फैलाने की जरूर नहीं होती। जीन्द जिले को सरकार ने काफी समय से बाईपास, ओवर ब्रिज आदि की सुविधा देने का ऐलान किया था, लेकिन जब से मैं जीन्द में आया हूं तभी से सुन रहा हूं कि यहां बाईपास बनने के बाद जीन्द की काया पलट हो जाएगी, लेकिन शायद हम बुढ़े होकर स्वर्ण सिधार जाऐंगे, लेकिन यहां कुछ नहीं होगा। इतिहास गवाह है कि पहले कुछ हुआ हो तो अब कुछ हो।
एक छोटी सी सड़क के लिए भी यहां के लोगों को डीसी, एसडीएम, पीडब्ल्यूडी, खुला दरबार, मंत्रियों तक जाना पड़ता है, लेकिन कोई संतोषजनक टिप्पणी नहीं मिलती है। यहां की एक सड़क तो 30 फुट चौड़ी से और अधिक चौड़ी नहीं बल्कि घटकर आधी यानी के 15 फुट होकर रह गई है। यहां पटियाला चौंक से ओवरब्रिज बनने की चर्चाएं जोरों पर है, लेकिन कहते हैं कि शादी की बात चलने से लेकर शादी होने तक का माहौल काफी हल्ले भरा होता है, लेकिन यहां तो अभी तक दुल्हा तो पसंद कर लिया गया है, लेकिन बात बनने में काफी समय लगाती है और फिर शादी की तारिख, सगाई, गुड़चढ़ी और फिर फेरे। यह सब तो बाकि है और सुहाग रात तो अभी बहुत दूर की बात है।
यहां बाईपास का भी कुछ ऐसा ही हाल है। यहां की सड़कें देखने लायक हो चली हैं। यहां की सड़कों पर लाईट व्यवस्था भी चरमरा सी गई है। अंधेरे वाले ईलाकों में चोरी और लूट की घटनाएं आए दिन होना आज के समय में किसी को धक्का नहीं लगाती, क्योंकि सब आम बात हो चुकी है। यहां की पुलिस व्यवस्था मानों हाथ-पर-हाथ धरे बैठी है। यहां के पुलिस वाले मानो जीन्द जिले के मालिक बन बैठें हों।
एक बार की बात हैं कि मैं ऑफिस से छुट्टी कर घर हो लौट रहा था कि मेरे दोस्त का फोन आता है और वह कहता है कि आओ यार घर के पास मिलते हैं। मैं मिलने के लिए उसके घर के पास चला जाता हूं और उसके घर के पास दो-तीन ढ़ाबे हैं। हमने सोचा की कोई जानकार शराब पीकर तंग करेगा इसलिए हम दोनों एक कौने में सड़क के किनारे खड़े होकर बातें करने लगते हैं और हम से कुछ ही दूर पर ढ़ाबों के पास काफी शोर शराब चल रहा है जैसे की चार-पांच शराबी लड़ाई कर रहे तों तभी फिल्मों में हिरो की एंटी होती है मतलब पुलिस की जीप गश्त करती-करती वहां आ धमकती है। पुलिस उन्हें कुछ नहीं कहती, लेकिन थोड़ी दूर खड़े हमें दोनों को देखकर पुलिस की जीप में बैठा एक खाकी वर्दी वाला कहता है कि यहां क्या कर रहे हो। मेरे दोस्त ने बोला, बस आपस में बातें कर रहे हैं। तभी खाकी वाला कहता है कि सड़क तेरे बाप की नहीं है। यहां लठ भी लग सकते हैं और यदि यहां आते हुए दौबारा दिखे तो अच्छा नहीं होगा। ये हाल है यहां की खाकी वार्दी वालों का। तभी तो कहता हूं कि जीन्द तेरा कुछ नहीं हो सकता।
एक छोटी सी सड़क के लिए भी यहां के लोगों को डीसी, एसडीएम, पीडब्ल्यूडी, खुला दरबार, मंत्रियों तक जाना पड़ता है, लेकिन कोई संतोषजनक टिप्पणी नहीं मिलती है। यहां की एक सड़क तो 30 फुट चौड़ी से और अधिक चौड़ी नहीं बल्कि घटकर आधी यानी के 15 फुट होकर रह गई है। यहां पटियाला चौंक से ओवरब्रिज बनने की चर्चाएं जोरों पर है, लेकिन कहते हैं कि शादी की बात चलने से लेकर शादी होने तक का माहौल काफी हल्ले भरा होता है, लेकिन यहां तो अभी तक दुल्हा तो पसंद कर लिया गया है, लेकिन बात बनने में काफी समय लगाती है और फिर शादी की तारिख, सगाई, गुड़चढ़ी और फिर फेरे। यह सब तो बाकि है और सुहाग रात तो अभी बहुत दूर की बात है।
यहां बाईपास का भी कुछ ऐसा ही हाल है। यहां की सड़कें देखने लायक हो चली हैं। यहां की सड़कों पर लाईट व्यवस्था भी चरमरा सी गई है। अंधेरे वाले ईलाकों में चोरी और लूट की घटनाएं आए दिन होना आज के समय में किसी को धक्का नहीं लगाती, क्योंकि सब आम बात हो चुकी है। यहां की पुलिस व्यवस्था मानों हाथ-पर-हाथ धरे बैठी है। यहां के पुलिस वाले मानो जीन्द जिले के मालिक बन बैठें हों।
एक बार की बात हैं कि मैं ऑफिस से छुट्टी कर घर हो लौट रहा था कि मेरे दोस्त का फोन आता है और वह कहता है कि आओ यार घर के पास मिलते हैं। मैं मिलने के लिए उसके घर के पास चला जाता हूं और उसके घर के पास दो-तीन ढ़ाबे हैं। हमने सोचा की कोई जानकार शराब पीकर तंग करेगा इसलिए हम दोनों एक कौने में सड़क के किनारे खड़े होकर बातें करने लगते हैं और हम से कुछ ही दूर पर ढ़ाबों के पास काफी शोर शराब चल रहा है जैसे की चार-पांच शराबी लड़ाई कर रहे तों तभी फिल्मों में हिरो की एंटी होती है मतलब पुलिस की जीप गश्त करती-करती वहां आ धमकती है। पुलिस उन्हें कुछ नहीं कहती, लेकिन थोड़ी दूर खड़े हमें दोनों को देखकर पुलिस की जीप में बैठा एक खाकी वर्दी वाला कहता है कि यहां क्या कर रहे हो। मेरे दोस्त ने बोला, बस आपस में बातें कर रहे हैं। तभी खाकी वाला कहता है कि सड़क तेरे बाप की नहीं है। यहां लठ भी लग सकते हैं और यदि यहां आते हुए दौबारा दिखे तो अच्छा नहीं होगा। ये हाल है यहां की खाकी वार्दी वालों का। तभी तो कहता हूं कि जीन्द तेरा कुछ नहीं हो सकता।
हरियाणा के लालों की तिकड़ी की अंतिम कड़ी टूटी
हरियाणा के पूर्व मुख्यमन्त्री चौधरी भजन लाल के गत तीन जून को हुए स्वर्गवास के साथ ही हरियाणा की राजनीति की तीन लालों की तिकड़ी की अंतिम कड़ी भी टूट गई। हरियाणा के 'तीन लाल चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल और चौधरी भजन लाल राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त राजनीतिक नेता थे। हरियाणा की प्रारंभिक राजनीति इन तीनों लालों के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही। तीनों लालों की हरियाणा के जनमानस में गहरी पैठ थी। हरियाणा को कई ऐतिहासिक उपलब्धियां देने वाले चौधरी भजन लाल का जन्म 6 अक्तूबर, 1930 को भावलपुर रियासत (पाकिस्तान) में चौधरी खेराज के घर श्रीमती कुन्दन देवी की कोख से हुआ। चौधरी भजनलाल को बचपन से ही कठिन संघर्षों से गुजरना पड़ा। परिवार की आर्थिक हालत के चलते ही वे आठवीं तक ही शिक्षा ग्रहण कर पाए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत हुए देश विभाजन के बाद चौधरी भजन लाल अपने परिवार के साथ अपना पैतृक गाँव छोड़कर हरियाणा के हिसार जिले में आ गये। यहां पर आने के बाद उन्हें और भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने कभी समस्याओं के समक्ष साहस नहीं खोया और निरन्तर आगे बढ़ते रहे। युवा भजन लाल की मेहनत और विशिष्ट प्रतिभा का ही कमाल था कि ग्रामीणों ने उन्हें पंचायत का पंच चुन लिया। इसके बाद भजन लाल ने ग्रामीणों की अथक सेवा करके सरपंच पद भी प्राप्त किया। तब किसी को भी पता नहीं था कि यह युवा आगे चलकर गाँव की पंचायत से देश की सर्वोच्च पंचायत तक का सफर तय करेंगे।
चौधरी भजन लाल ने अपने अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प शक्ति और लोगों की असीम सेवा के बलबूत गाँव के सरपंच पद के बाद पंचायत समिति हिसार के चेयरमैन के पद पर पहुंचे और वे इस पद पर रिकार्ड सात वर्ष रहे। इसके बाद चौधरी भजन लाल ने आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से अपना भाग्य आजमाया और शानदार जीत दर्ज की। उन्हें मार्केटिंग बोर्ड के अध्यक्ष पद पर बैठाया गया। चौधरी भजन लाल 1968-86, 1991-98 और 2000-09 तक पाँच बार हरियाणा विधानसभा के सदस्य बने। जब वर्ष 1972 में वे दूसरी बार हरियाणा विधानसभा में पहुंचे तो उन्हें चौधरी बंसीलाल की सरकार कृषि मन्त्री का पद मिला और वे इस पद पर 1975 तक सुशोभित रहे। चौधरी बंसीलाल के साथ हुए राजनीतिक मतभेदों के चलते चौधरी भजन लाल ने 1975 में कृषि मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और वे वर्ष 1977 में बाबू जगजीवन राम की नई पार्टी डेमोक्रेसी फॉर कांग्रेस में शामिल हो गए।
हरियाणा प्रदेश में जून, 1977 में विधानसभा चुनाव हुए। इन चुनावों मं कांगे्रस को बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा और उसके तीन प्रत्याशी शमशेर सिंह सूरजेवाला, विरेन्द्र सिंह और कन्हैया लाल पोसवाल ही बड़ी मुश्किल से जीत दर्ज कर पाए। इन विधानसभा चुनावों में चौधरी देवीलाल के नेतृत्व में जनता पार्टी ने रिकार्ड+ 90 में से 85 सीटें जीतीं थीं। इसलिए चौधरी देवीलाल को सर्वसम्मति से नेता चुन लिया गया और उन्हें मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। तब चौधरी भजन लाल तीसरी बार हरियाणा विधानसभा में पहुंचे थे। वे वर्ष 1979 तक चौधरी देवीलाल सरकार में सहकारिता मंत्री, डेयरी विकास, पशुपालन, श्रम व रोजगार और वनमंत्री रहे। पार्टी की अन्तकलह के चलते चौधरी देवीलाल की सरकार मात्र अढ़ाई वर्ष बाद ही टूट गई, जिसका सीधा लाभ चौधरी भजन लाल को मिला और उन्हें 28 अगस्त, 1979 को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनने का सुनहरा मौका मिल गया।
सन् 1980 के लोकसभा चुनावों में आपातकाल के बाद कांगे्रस फिर से केन्द्रीय सत्ता में आ गई। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनने पर श्रीमती इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। तब चौधरी भजन लाल ने श्रीमती इन्दिरा गांधी से सम्पर्क साधा तो हरियाणा की राजनीति में एक नया ही अध्याय लिख डाला। वे वर्ष 1981 में अपने मन्त्रीमण्डल व अपने विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गये। 12 मई, 1982 के हरियाणा विधानसभा चुनावों में कांगे्रस को ही बहुमत प्राप्त हुआ और इस तरह चौधरी भजन लाल दूसरी बार हरियाणा प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद पर सुशोभित हुए। बाद में कांगे्रस हाई कमान के कहने पर चौधरी भजन लाल ने 4 जून, 1986 को चौधरी बंसीलाल के लिए मुख्यमन्त्री पद छोड़कर वे देश की सर्वोच्च पंचायत संसद में जा पहुंचे। वे केन्द्र सरकार में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री बने। वर्ष 1986 से 1989 तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। वे वर्ष 1988-89 के दौरान केन्द्रीय कृषि मंत्री और योजना आयोग के सदस्य भी रहे। इसके बाद उन्हें 1989-91 तक नौंवी लोकसभा में पहुंचने का गौरव हासिल हुआ। इसके साथ ही वर्ष 1990-91 में चौधरी भजन लाल कृषि सलाहकार समिति एवं पर्यावरण व वन मंत्रालय समिति के सदस्य पद पर भी रहे।
इसके बाद हरियाणा की राजनीति में खूब उतार-चढ़ाव आए। काफी उतार-चढ़ावों के बीच जून, 1991 में हरियाणा के विधानसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। इस बार फिर कांग्रेस को बहुमत मिला और चौधरी भजन लाल को तीसरी बार हरियाणा के मुख्यमन्त्री पद को सुशोभित करने मौका मिला। अपने इस कार्यकाल में चौधरी भजन लाल ने कई ऐसे ऐतिहासिक व जनहितकारी काम किए, जो बाद में ऐतिहासिक मिसाल बन गए। उन्होंने 1 नवम्बर, 1995 को हरियाणा दिवस के पावन अवसर पर हिसार में गुरू जम्भेश्वर विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी। इसके अलावा चौधरी भजन लाल के कार्यकाल में ही हरियाणा पंचायती राज एक्ट, 1994 बनाकर लागू किया गया। इसके साथ ही उन्हीं के कार्यकाल में पानीपत, कैथल, यमुनानगर, रेवाड़ी व पंचकूला जैसे नगरों को जिले का दर्जा मिला।
मई, 1996 में सातवीं बार वे आदमपुर से हरियाणा विधानसभा का चुनाव जीते। चौधरी भजन लाल ने वर्ष 1998 में दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद की गरिमा बढ़ाई। उन्हें कृषि सलाकार समिति का सदस्य भी बनाया गया। वे वर्ष 1998-99 के दौरान रेलवे समिति के सदस्य भी रहे। चौधरी भजन लाल वर्ष 2000-04 तक हरियाणा विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर विराजमान रहे। वर्ष 2009 में वे तीसरी बार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे। चौधरी भजन लाल हरियाणा कांग्रेस प्रभारी के पद पर भी रहे। इससे पूर्व राजनीतिक उठा-पटक के बीच चौधरी भजन लाल ने अपने सुपुत्र कुलदीप बिश्नोई को राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित करने के उद्देश्य से उनके हाथों 'हरियाणा जनहित कांगेस (भजन लाल) पार्टीÓ का वर्ष 2007 में रोहतक की विशाल रैली में गठन करवाया और उसके नेता बन गए। इसके बाद तो चौधरी भजन लाल ने कुलदीप बिश्नोई को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करके हरियाणा की राजनीति में एक नई पीढ़ी को अग्रसित कर दिया। चौधरी भजन लाल की ही मेहनत एवं संघर्ष के परिणामस्वरूप ही अल्प समय में हरियाणा जनहित कांग्रेस को प्रदेश में बड़ा जनाधार मिला। कुल मिलाकर चौधरी भजन लाल ने राजनीति के अखाड़े में बड़े-बड़े धुरन्धरों को मात दी। बेशक वे इंटरमीडियट ही पास थे, लेकिन उनकी राजनीतिक पकड़ व नुस्खों के चलते उन्हें राजनीति का पी.एच.डी. कहा जाता था। इसी नाम के चलते वे विदेशों तक मशहूर हो गये थे। वे जब-जब अपना राजनीतिक दांव खेलते थे तो विरोधी पार्टी के नेता पानी तक नहीं मांगते थे। उन्होंने अपने पूरे जीवन में संघर्ष से नाता बनाये रखा और आम आदमी के सेवक बनकर रहे। उन्होंने राजनीति के साथ गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियों को भी बखूबी निभाया। उनका विवाह श्रीमती जस्मा देवी के साथ हुआ। उनके दो पुत्र चन्द्र मोहन और कुलदीप बिश्नोई और एक लड़की हुई। चन्द्र मोहन तो वर्ष 2005 में चौधरी भूपेन्द्र हुड्डा सरकार में उपमुख्यमंत्री पद पर भी आसीन हुआ। लेकिन अपने प्रेम प्रसंगों के चलते उन्हें इस पद को छोडऩा पड़ा। चौधरी भजन लाल तीन लालों की कड़ी में वे एक महत्वपूर्ण और अंतिम कड़ी थे। इस कड़ी के टूटने के बाद हरियाणा की राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया है। परमपिता उनकी आत्मा को शांति दे। उन्हें कोटिश: नमन।
Wednesday, May 25, 2011
उम्र के साथ परिपक्व होते हैं पति-पत्नी के संबंध
जब आदमी चालीस के दशक में पहुंचता है और जीवन में अर्जित अपनी उपलब्धियों का जायजा लेता है तो महसूस करता है कि बीस और तीस के दशकों में उसने जो स्वप्न संजोए थे वो सब ऐसे ही रह गये। थकान, तनाव और सफेद होते सिर के बाल ये सब मिलकर उसकी अपने बारे में बनायी तस्वीर को चुनौती देते हैं। उसकी चेतना में तेजी से आता हुआ बुढ़ापा उसे सुई-सी चुभाता है और उसे भयभीत करता है कि अब वह युवा नहीं रहा। चालीस से पचास साल की औरतें भी उम्र के इस दौर में कुछ खास किस्म के सेक्स संबंधी परिवर्तनों से गुजरती हैं और अकसर वे अपनी सेक्स की इच्छा को गहराई से जानना चाहती हैं। इस उम्र में बहुत सारी औरतें एक ऐसी कुंठा के दौर से गुजरती हैं जब उन्हें लगता है कि यौवन काल में गलत धारणाओं के कारण और बाद में गृहस्थी के दबाव के कारण वे सेक्स का भरपूर आनंद नहीं ले पाईं और उम्र के इस दौर में आने पर उन्हें कुंठा होने लगती है। उन्हें सबसे बड़ी कुंठा यह होती है कि उन्होंने जीवन के सुनहरे समय को यूं ही गवां दिया। उम्र के इस दौर में सेक्स की तीव्र इच्छा को अपने जीवन साथी के सामने प्रकट करने के बजाव इसे छिपाती हैं। उम्र के इस पड़ाव में पुरुष औरत के शारीरिक सौन्दर्य की बात नहीं करते बल्कि अच्छे मित्र की बात करते हैं। इस उम्र में औरतें एक आदर्श पुरुष में मधुरता और सज्जनता ढूंढती हैं। इस उम्र में लोग आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं और उनकी भावनाएं कोमल हो जाती हैं। इस उम्र में जीवन साथी संबंधी हमारी बदलती इच्छाएं, आकांक्षाएं और अपेक्षाएं हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। स्पष्ट रूप से जीवन के अनुभवों से हम जीवन से समझौता करने और कुछ समस्याओं के साथ जीना सीख लेते हैं। समझौता करने का अर्थ यह नहीं कि उन सारे मुद्दों को छोड़ दिया जाए जिन पर हमारे मतभेद हों। इस उम्र में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अपने क्रोध पर काबू पाना सीखें और इस बात को ध्यान में रखिए कि कुछ निराशा और कुछ क्रोध जीवन के सामान्य हिस्से हैं और बहुत अच्छे संबंधों में भी ये चीजें पैदा होती हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करना छोडि़ए। वैवाहिक जीवन के अधिकांश झगड़े इसीलिए पैदा होते हैं और इसका परिणाम सिर्फ क्रोध और कुंठा है। क्रोध किसी समस्या का सूचक है। जीवन साथी के क्रोध को यों ही मत टालिए। उस पर ध्यान दीजिए। अगर इस क्रोध पर आप ध्यान दें और इसके कारणों की तह तक पहुंचने का प्रयास करें तो आप इससे उत्पन्न होने वाली ढेर सारी समस्याओं से बच सकती हैं।
Saturday, May 21, 2011
वेश्यावृत्ति की कमाई से करते हैं पढ़ाई
बर्लिन
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में विश्वविद्यालय के छात्र पढ़ाई-लिखाई का खर्च पूरा करने के लिए वेश्यावृत्ति को आमदनी का सही साधन मानते हैं।
बर्लिन अध्ययन केन्द्रों का सर्वेक्षण करने के बाद यह बात सामने आई कि बर्लिन में विश्वविद्यालय के हर तीन छात्रों में एक छात्र ऐसा होता है जो पढऩे-लिखने का खर्च पूरा करने के लिए वेश्यावृत्ति को अच्छा जरिया मानता है।
पेरिस और कीव से अगर बर्लिन की तुलना की जाए तो पढ़ाई के खर्च का इंतजाम करने के लिए वेश्यावृत्ति अपनाने वाले छात्रों की संख्या ज्यादा है। पेरिस में यह आंकड़ा 29.2 प्रतिशत है जबकि कीव में 18.5 प्रतिशत छात्र पढ़ाई के लिए आर्थिक प्रबंध का जरिया वेश्यावृत्ति को मानते हैं।
बर्लिन के 3200 छात्रों का सर्वेक्षण करने पर उनमें से चार प्रतिशत ने कहा कि उन्होंने किसी न किसी तरीके से सेक्स में हिस्सा लिया है। इनमें से कइयों ने कहा कि या तो वे वेश्यावृत्ति का धंधा करते हैं या कामोत्तेजक नृत्य अथवा इंटरनेट शो आदि में भाग लेते हैं।
वेश्यावृत्ति पर अध्ययन करने वाले लेखक इसके नतीजे जानकार हतप्रभ रह गए। उन्होंने कहा कि छात्र वेश्यावृत्ति के बारे में अक्सर कई बार सुना गया मगर उन्हें इस संबध में खास जानकारी नहीं थी कि शिक्षा के लिए भी वेश्यावृत्ति की जाती है।
एक विश्वविद्यालय की 26 वर्षीय छात्रा ईवा बलुमेंसचेइन ने बताया कि अच्छा खासा पैसा मिलने के कारण छात्र वेश्यावृत्ति का रास्ता अपनाते हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा में सुधार होने के कारण छात्रों पर काम का भार बढ़ गया है। उनकी फीस में भी काफी वृद्धि हुई है जिसकी वजह से छात्रों के पास पैसा कमाने के लिए वक्त नहीं है और नतीजतन वे वेश्यावृत्ति कर रहे हैं।
अध्ययन के अनुसार वेश्यावृत्ति में लगे 30 प्रतिशत छात्रों पर कर्ज है। इनमें से 18 प्रतिशत का कहना है कि जो कर्ज के बोझ से लदे हैं वे सेक्स वर्क को आमदनी का साधन मानते हैं।
Wednesday, May 18, 2011
आखिरी बार दिखेगी सचिन-वॉर्न की मशहूर जंग
यदि आप क्रिकेट के दो दिग्गजों सचिन तेंदुलकर और शेन वॉर्न के बीच जनवरी 1992 से शुरू हुई मशहूर क्रिकेटिया जंग का आखिरी बार गवाह बनना चाहते हैं तो शुक्रवार को मुंबई इंडियन्स और राजस्थान रॉयल्स के बीच होने वाला आईपीएल मैच देखना न भूलें।
तेंदुलकर और वॉर्न के बीच क्रिकेटिया जंग के कई किस्से रहे हैं। इन पर 20 मई के बाद विराम लग जाएगा क्योंकि 41 वर्षीय वॉर्न ने सभी तरह की क्रिकेट से संन्यास ले लिया है और वह इस सत्र के बाद इंडियन प्रीमियर लीग में भी नहीं खेलेंगे।
क्रिकेट के दोनों महारथी पिछले 19 साल में कई अवसरों पर आमने सामने हुए। तेंदुलकर ने इस ऑस्ट्रेलियाई स्पिनर को दिन में तारे दिखाने में कसर नहीं छोड़ी तो वॉर्न ने भी कुछ अवसरों पर अपनी लेग ब्रेक से भारत के स्टार बल्लेबाज को परेशानी में डाला। यह अलग बात है कि इस जंग में अधिकतर अवसरों पर तेंदुलकर ने ही बाजी मारी।
इस मशहूर जंग को लेकर भारतीय टीम में तेंदुलकर के साथी और राजस्थान रॉयल्स में वॉर्न के साथ खेलने वाले द्रविड़ भी काफी रोमांचित है। उन्होंने कहा कि वे दोनों महान खिलाड़ी हैं। यदि हम इतिहास देखें तो इस पर सहमत हो जाएंगे कि दोनों दिग्गज खिलाड़ी हैं। महान क्रिकेटरों के बीच आपस में यह दिलचस्प मुकाबला होगा। प्रत्येक इस तरह का मुकाबला देखना चाहता है।
तेंदुलकर ने वॉर्न के सामने कई यादगार पारियां खेली। इनमें मार्च 1998 में चेन्नई में दूसरी पारी में खेली गई नाबाद 155 रन की पारी भी शामिल है। तेंदुलकर को इस मैच की पहली पारी में वॉर्न ने चार रन पर मार्क टेलर के हाथों कैच करा दिया था लेकिन भारतीय दिग्गज ने दूसरी पारी में इसका बदला चुकता कर दिया। उन्होंने वॉर्न को निशाने पर रखकर भारत को 179 रन से जीत दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। वॉर्न ने उस पारी में 30 ओवर में 122 रन लुटाए थे।
चेन्नई में ही 2001 की ऐतिहासिक सीरीज़ में उन्होंने फिर से वॉर्न को निशाने पर रखकर 126 रन बनाए जबकि ऑस्ट्रेलियाई स्पिनर 42 मैच में 140 रन दे गया। वन डे में शारजाह में कोका कोला कप फाइनल में तेंदुलकर की 134 रन की पारी को भला कौन भूल सकता है। वॉर्न ने तब 10 ओवर में 61 रन लुटाए और भारत छह विकेट से मैच जीत गया था। इंदौर में 2001 में जब भारत 18 रन से जीता था तो तेंदुलकर ने वॉर्न की गेंदों के खूब धुर्रे उड़ाए और 139 रन बनाए। वॉर्न ने तब 64 रन लुटाए थे।
नाम विकास का,शोषण किसान का
यह एक किसान और उसकी भूमि की वही पुरानी कहानी है। सरकार ने ग्रेटर नोएडा में हरे-भरे खेत अधिग्रहीत किए। ग्रेटर नोएडा दिल्ली का निकटवर्ती इलाका है। यह अधिग्रहण सार्वजनिक मकसद से यमुना एक्सप्रेस वे के विकास हेतु निजी क्षेत्र में सर्वाधिक बोली लगाने वाले को आवंटित करने के लिए उठाया गया। अदायगी बाजार भाव के आस-पास तक भी कहीं नहीं थी। वस्तुत: तथ्य यह है कि किसान को 3,200 रुपए का एक चौथाई- 800 रुपए प्रति वर्ग मीटर ही मिला। डेवलेपर उसे 11,000 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से बेच रहे हैं।
आक्रोशित किसानों ने दवाब बनाने के लिए दो अधिकारियों को हिरासत में ले लिया। इसके बाद किसानों और पुलिस में संघर्ष हुआ। दोनों ओर के दो-दो अर्थात् चार लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को कार्रवाई की छूट दे दी। किसानों को उनके घरों से भगाया गया। जिससे स्थिति और बिगड़ गयी।
इस त्रासदी से सुविदित नीतिगत प्रश्न उठता है: जो खेत खाद्यान्न उगाते हैं, उन्हें विकास कहां तक निगल सकता है और वह भी नाम मात्र का मुआवजा देकर? मेरा विचार था कि सरकार ने अपनी नीति बदल दी है और यदि किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहता तो उसे वह अब अपने पास रख सकता है। स्पष्ट ही ऐसा हुआ नहीं। केंद्र अथवा राज्यों का अपना-अपना एजेंडा है जो ऐसे आश्वासनों की अनदेखी करता है।
अन्ततोगत्वा नई दिल्ली अब जाग गई लगती है। ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख ने कहा है कि 1894 का अधिग्रहण अधिनियम संशोधित किया जा रहा है। मुझे कहना ही होगा कि यह आश्वस्तकारक है। सार्वजनिक उद्देश्य को पुन: परिभाषित किया जाएगा और बाजार भाव भी आश्वस्त होगा। जब विधेयक के प्रारूप का पुनर्लेखन हो तो सरकार को चाहिए कि वह जिस औद्योगिक इकाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है उसमें भू-स्वामियों की एक प्रकार की भागीदारी के लिए शेयरों के आवंटन का प्रावधान करे।
मगर ग्रेटर नोएडा के मामले में समापन मौतों की जांच मात्र पर ही नहीं हो जाना चाहिए। रोग गहन है, वह मात्र भूमि के अधिग्रहण ही नहीं अपितु किसानों की आय में क्षीणता से भी संबंधित है। वास्तव में कृषि भूमि क्षेत्र में क्रियाकलाप दयनीय है। दूसरे शब्दों में यह कि देहात में दुखद हालात हैं। ग्रामीण विकास पर नई दिल्ली को बयान तो अनेक हैं, किंतु परिदृश्य में परिवर्तन कोई खास नहीं हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अक्टूबर में अधिनियम में बदलाव का जो वादा किया था वह भी आगे नहीं बढ़ता यदि किसान आंदोलन की राह नहीं अपनाते।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार, 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या 2008 की संख्या से 1,172 अधिक है। यदि भाग करके देखें तो यह अनुमानत: 50 व्यक्ति प्रतिदिन का आंकड़ा आता है। मुझे यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में किसान ही अग्रिम मोर्चे पर रहे थे। आज वे अपनी आजीविका ज्यों-त्यों चला पाने की जटिलता झेल रहे हैं। और उनमें से अनेक निराश होकर आत्महत्या का पथ अपना रहे हैं। किसानों ने ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति हेतु अपनी सब कुछ दांव पर लगाया था, त्याग, बलिदान का पथ अपनाया था। उन्होंने यही कामना की थी कि स्वतंत्र भारत में उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिलेगी। नई दिल्ली को यह अनुभूति होनी चाहिए कि देहातों में आंदोलन उभर रहा है और भीतर जो लावा दहक रहा है, वह कभी भी विस्फोटित हो सकता है।
एक किसान- जिसने आत्महत्या की राह अपनाई, उसकी टिप्पणी मर्मस्पर्शी है। 24 मार्च, 2008 को एक 50 वर्षीय किसान श्रीकांत कालम ने, जिसके पास अकोला, महाराष्ट्र में पांच एकड़ भूमि थी, खुद की फांसी लगाकर मौत का आलिंगन किया था, निम्नलिखित काव्य पक्तियां लिख कर छोड़ी थी:-
मेरी जीवन अलग है।
मेरी जीवन होगा बेमौसम की वर्षा सा।
काली धरती में कपास मेरे लिए एक कविता के तुल्य है।
इसकी जड़ें गन्ने सरीखी मधुर।
कृषि भूमि संबंधी संकट पर नई दिल्ली के इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने एक अध्ययन किया था, जिसमें कहा गया है कि पशुधन से होने वाली आमदनी को मिला लें तो भी कृषि आय जुताई पर आने वाली लागत और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज अपर्याप्त ही है। अपने बाजार में श्रम से वह जो कुछ पाते हैं वह भी शोषण के चलते अति अल्प ही है। मुझे स्मरण हो जाता है कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से जो खुद एक बड़े भू-स्वामी हैं, मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आप देश में सर्वेक्षण करा लें तो आप पाएंगे कि हर किसान कर्जदार है।
गत दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि औसतन सात प्रतिशत थी, जिसमें कृषि वृद्धि 1.6 प्रतिशत मात्र दर्ज हुई थी। दर असल विगत 15 वर्षों से भी अधिक से देश में कृषि वृद्धि या विकास में निश्चलता सी ही है। अस्सी के दशक में यह 3.3 प्रतिशत थी, नब्बे के दशक में गिरकर दो प्रतिशत पर आ गई और अब खिसक कर 0.4 प्रतिशत रह गई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रतिपादन से संबंधित कृषि संबंधी संचालन समिति ने स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के बाद कृषि उत्पादन में इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। खाद्यान्नों के उत्पादन में इस स्थिति से न तो योजना आयोग को अथवा सरकार को ही भ्रमित होना चाहिए। गिरावट का नतीजा यह है कि 2011 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पचास के दशक में प्राप्त स्तर पर होगी। कैलोरीज इनटेक (ग्रहण) 2153 (1993-94) से गिरकर 2047 (2004-05) पर ग्रामीण भारत में आ गयी है और 2071 (1993-94) से 2026 (2004-05) पर शहरी भारत में। खाद्य असुरक्षा की चेतावनी सूचक परिणाम स्वयं को भूख से होने वाली मौतों में दर्शा रहे हैं और हमारी आबादी की बढ़ोत्तरी में भी।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुर्दमनीय संकट से ग्रसित है। इस स्थिति पर सरकार की प्रतिक्रिया ऋण माफी, प्रस्तावित खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक आदि लोक लुभावन पगों के उठाने की रही है और हमारी कृषि को विश्व बाजार ताकतों व कारपोरेट क्षेत्र के लिए खोलने तथा नव उदार सिलसिले पर जोर देना जारी है। इससे संकट और उभरा है और यह धारणा बनी है कि कृषि भूमि संबंधी संकट वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है और इन नीतियों के पलटने से स्थिति ठीक रहेगी।
वस्तुत: यह जरूरी है कि नव-उदार नीति फे्रम का प्रतिरोध हो और उसे पलटा जाए। मगर संकट का तो एक खासा लम्बा इतिहास है, उसकी जड़ें गहरी हैं। गत तो दशकों की नीतियों को पलट देने भर से सदियों से खेतिहर आबादी के बहुमत से जो नाइंसाफी हुई है उसका निधन नहीं हो सकता। कृषि भूमि जन्य संकट की जड़ों को उस विकृत पूंजीवादी विकास प्रक्षेप-पथ में खोजना होगा जो हमें अपने औपनिवेशिक अतीत से मिला है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जो अपनी सोच में समाजवादी थे, वह कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने सत्रह वर्ष तक देश पर शासन किया था। किंतु वह औद्योगीकरण पर आसक्त हो गए थे।
मैं मानता हूं कि कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उद्योग आवश्यक है परंतु संतुलन होना चाहिए। नेहरू ने भी यह अनुभव किया था परंतु विलम्ब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो शीर्ष अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने अभी तक भी ऐसा महसूस नहीं किया। कोई भी उनके सात वर्षों के शासन की परिणतियों को देख सकता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वे जितना उधार लेते हैं, उससे कहीं कम उपार्जित कर पाते हैं। इससे हर भारतीय का सिर लज्जा से झुक जाना चाहिए। भूमि सुधार क्रांतिकारी पग हो सकते हैं उस तरह की अर्थव्यवस्था के हेतु जो मनमोहन सिंह देश पर थोप रहे हैं। किंतु वह भूमि संबंधी विकास में आए ठहराव पर पार-पाने के लिए तो कुछ कर ही सकते हैं।
आक्रोशित किसानों ने दवाब बनाने के लिए दो अधिकारियों को हिरासत में ले लिया। इसके बाद किसानों और पुलिस में संघर्ष हुआ। दोनों ओर के दो-दो अर्थात् चार लोग मारे गए। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को कार्रवाई की छूट दे दी। किसानों को उनके घरों से भगाया गया। जिससे स्थिति और बिगड़ गयी।
इस त्रासदी से सुविदित नीतिगत प्रश्न उठता है: जो खेत खाद्यान्न उगाते हैं, उन्हें विकास कहां तक निगल सकता है और वह भी नाम मात्र का मुआवजा देकर? मेरा विचार था कि सरकार ने अपनी नीति बदल दी है और यदि किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहता तो उसे वह अब अपने पास रख सकता है। स्पष्ट ही ऐसा हुआ नहीं। केंद्र अथवा राज्यों का अपना-अपना एजेंडा है जो ऐसे आश्वासनों की अनदेखी करता है।
अन्ततोगत्वा नई दिल्ली अब जाग गई लगती है। ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख ने कहा है कि 1894 का अधिग्रहण अधिनियम संशोधित किया जा रहा है। मुझे कहना ही होगा कि यह आश्वस्तकारक है। सार्वजनिक उद्देश्य को पुन: परिभाषित किया जाएगा और बाजार भाव भी आश्वस्त होगा। जब विधेयक के प्रारूप का पुनर्लेखन हो तो सरकार को चाहिए कि वह जिस औद्योगिक इकाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है उसमें भू-स्वामियों की एक प्रकार की भागीदारी के लिए शेयरों के आवंटन का प्रावधान करे।
मगर ग्रेटर नोएडा के मामले में समापन मौतों की जांच मात्र पर ही नहीं हो जाना चाहिए। रोग गहन है, वह मात्र भूमि के अधिग्रहण ही नहीं अपितु किसानों की आय में क्षीणता से भी संबंधित है। वास्तव में कृषि भूमि क्षेत्र में क्रियाकलाप दयनीय है। दूसरे शब्दों में यह कि देहात में दुखद हालात हैं। ग्रामीण विकास पर नई दिल्ली को बयान तो अनेक हैं, किंतु परिदृश्य में परिवर्तन कोई खास नहीं हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अक्टूबर में अधिनियम में बदलाव का जो वादा किया था वह भी आगे नहीं बढ़ता यदि किसान आंदोलन की राह नहीं अपनाते।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार, 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की है। यह संख्या 2008 की संख्या से 1,172 अधिक है। यदि भाग करके देखें तो यह अनुमानत: 50 व्यक्ति प्रतिदिन का आंकड़ा आता है। मुझे यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में किसान ही अग्रिम मोर्चे पर रहे थे। आज वे अपनी आजीविका ज्यों-त्यों चला पाने की जटिलता झेल रहे हैं। और उनमें से अनेक निराश होकर आत्महत्या का पथ अपना रहे हैं। किसानों ने ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति हेतु अपनी सब कुछ दांव पर लगाया था, त्याग, बलिदान का पथ अपनाया था। उन्होंने यही कामना की थी कि स्वतंत्र भारत में उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिलेगी। नई दिल्ली को यह अनुभूति होनी चाहिए कि देहातों में आंदोलन उभर रहा है और भीतर जो लावा दहक रहा है, वह कभी भी विस्फोटित हो सकता है।
एक किसान- जिसने आत्महत्या की राह अपनाई, उसकी टिप्पणी मर्मस्पर्शी है। 24 मार्च, 2008 को एक 50 वर्षीय किसान श्रीकांत कालम ने, जिसके पास अकोला, महाराष्ट्र में पांच एकड़ भूमि थी, खुद की फांसी लगाकर मौत का आलिंगन किया था, निम्नलिखित काव्य पक्तियां लिख कर छोड़ी थी:-
मेरी जीवन अलग है।
मेरी जीवन होगा बेमौसम की वर्षा सा।
काली धरती में कपास मेरे लिए एक कविता के तुल्य है।
इसकी जड़ें गन्ने सरीखी मधुर।
कृषि भूमि संबंधी संकट पर नई दिल्ली के इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने एक अध्ययन किया था, जिसमें कहा गया है कि पशुधन से होने वाली आमदनी को मिला लें तो भी कृषि आय जुताई पर आने वाली लागत और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज अपर्याप्त ही है। अपने बाजार में श्रम से वह जो कुछ पाते हैं वह भी शोषण के चलते अति अल्प ही है। मुझे स्मरण हो जाता है कि एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से जो खुद एक बड़े भू-स्वामी हैं, मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि आप देश में सर्वेक्षण करा लें तो आप पाएंगे कि हर किसान कर्जदार है।
गत दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि औसतन सात प्रतिशत थी, जिसमें कृषि वृद्धि 1.6 प्रतिशत मात्र दर्ज हुई थी। दर असल विगत 15 वर्षों से भी अधिक से देश में कृषि वृद्धि या विकास में निश्चलता सी ही है। अस्सी के दशक में यह 3.3 प्रतिशत थी, नब्बे के दशक में गिरकर दो प्रतिशत पर आ गई और अब खिसक कर 0.4 प्रतिशत रह गई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रतिपादन से संबंधित कृषि संबंधी संचालन समिति ने स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के बाद कृषि उत्पादन में इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। खाद्यान्नों के उत्पादन में इस स्थिति से न तो योजना आयोग को अथवा सरकार को ही भ्रमित होना चाहिए। गिरावट का नतीजा यह है कि 2011 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता पचास के दशक में प्राप्त स्तर पर होगी। कैलोरीज इनटेक (ग्रहण) 2153 (1993-94) से गिरकर 2047 (2004-05) पर ग्रामीण भारत में आ गयी है और 2071 (1993-94) से 2026 (2004-05) पर शहरी भारत में। खाद्य असुरक्षा की चेतावनी सूचक परिणाम स्वयं को भूख से होने वाली मौतों में दर्शा रहे हैं और हमारी आबादी की बढ़ोत्तरी में भी।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुर्दमनीय संकट से ग्रसित है। इस स्थिति पर सरकार की प्रतिक्रिया ऋण माफी, प्रस्तावित खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक आदि लोक लुभावन पगों के उठाने की रही है और हमारी कृषि को विश्व बाजार ताकतों व कारपोरेट क्षेत्र के लिए खोलने तथा नव उदार सिलसिले पर जोर देना जारी है। इससे संकट और उभरा है और यह धारणा बनी है कि कृषि भूमि संबंधी संकट वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है और इन नीतियों के पलटने से स्थिति ठीक रहेगी।
वस्तुत: यह जरूरी है कि नव-उदार नीति फे्रम का प्रतिरोध हो और उसे पलटा जाए। मगर संकट का तो एक खासा लम्बा इतिहास है, उसकी जड़ें गहरी हैं। गत तो दशकों की नीतियों को पलट देने भर से सदियों से खेतिहर आबादी के बहुमत से जो नाइंसाफी हुई है उसका निधन नहीं हो सकता। कृषि भूमि जन्य संकट की जड़ों को उस विकृत पूंजीवादी विकास प्रक्षेप-पथ में खोजना होगा जो हमें अपने औपनिवेशिक अतीत से मिला है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जो अपनी सोच में समाजवादी थे, वह कुछ कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने सत्रह वर्ष तक देश पर शासन किया था। किंतु वह औद्योगीकरण पर आसक्त हो गए थे।
मैं मानता हूं कि कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उद्योग आवश्यक है परंतु संतुलन होना चाहिए। नेहरू ने भी यह अनुभव किया था परंतु विलम्ब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो शीर्ष अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने अभी तक भी ऐसा महसूस नहीं किया। कोई भी उनके सात वर्षों के शासन की परिणतियों को देख सकता है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वे जितना उधार लेते हैं, उससे कहीं कम उपार्जित कर पाते हैं। इससे हर भारतीय का सिर लज्जा से झुक जाना चाहिए। भूमि सुधार क्रांतिकारी पग हो सकते हैं उस तरह की अर्थव्यवस्था के हेतु जो मनमोहन सिंह देश पर थोप रहे हैं। किंतु वह भूमि संबंधी विकास में आए ठहराव पर पार-पाने के लिए तो कुछ कर ही सकते हैं।
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