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Friday, April 30, 2010

सत्ता के बाजार में नीलाम होता सच

महेंद्र तिवारी
संसद में पिछले दिनों पेश आए तीन वाकयों ने नाउम्मीदी, नफरत और नाराजगी की कड़वी यादों को फिर हरा कर दिया, जब देश के सबसे बड़े सत्ता बाजार में सच की सरेआम नीलामी की गई। ऐसा एक नहीं, बल्कि अलग-अलग सूरतों में तीन बार हुआ। वैसे 'राज' की खातिर 'नीति' से बलात्कार पहले भी हुआ है, लेकिन अब इसकी पुनरावृत्ति कुछ ज्यादा ही होने लगी है।
बहरहाल, ऊपर उल्लेखित तीनों वाकये वास्तव में संप्रग के बैनर तले बनी 'मतलबपरस्ती' की ऐसी सियासी पटकथा है, जिसे बसपा, राजद और सपा तीनों ने एक साथ संसद के परदे पर उतारा। कटौती प्रस्ताव को लेकर अदा किए गए लालू-मुलायम और माया के किरदार तो हिंदी फिल्म के 'खलनायकों' को भी चुनौती दे रहे थे। इन्हें देख लगने लगा कि वैज्ञानिक कहीं इस बात पर शोध शुरू न कर दें कि 'थाली के बैंगन' और नेताओं के डीएनए में कहीं कोई जुड़ाव तो नहीं है?
गौरतलब है कि भाजपा और वामदलों ने 27 अप्रैल को संसद में पेट्रोल-डीजल की मूल्यवृद्धि को लेकर सरकार के खिलाफ कटौती प्रस्ताव लाने की घोषणा की थी। वामपंथियों ने 13 गैरयूपीए दलों जेडीएस, भाकपा, आरएसपी, सपा, राजद, बीजद, अन्ना द्रमुक, तेलुगूदेशम, नेलोद और फारवर्ड ब्लॉक आदि को लामबंद किया, वहीं भाजपा शिवसेना, जदयू और अकाली दल सरीखे राजग के घटक दलों को एक जाजम पर लाने की कवायद में जुट गई।
सरकार में शामिल डीएमके और तृणमूल कांग्रेस भी बजट में बढ़ाए गए दामों को वापस लेने की माँग कर चुके थे, लेकिन चूँकि वे सत्ता का हिस्सा थे इसलिए उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा।
वामपंथी यह समझ रहे थे कि राजद और सपा 'भारत बंद' की तरह कटौती प्रस्ताव में भी उनके साथ खड़े रहेंगे। भाजपा ने तो इन दोनों से उम्मीद नहीं रखी थी, लेकिन उसे इतना यकीन था कि लालू-मुलायम महँगाई जैसे जनहित के मुद्दे पर पीठ नहीं दिखाएँगे।
जैसे-जैसे दिन चढ़ा, चाल, चेहरा और चरित्र सभी साफ होने लगे, लेकिन सुषमा स्वराज (लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष) और वामपंथियों को क्या पता था कि जिस विपक्ष की एकजुटता का वे दम भर रहे हैं, वह ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा। जिन नेताओं को साथ लेकर वे सरकार को झुकाने की कोशिश कर रहे हैं, असल में खुदगर्जी के पैरोकार हैं। उनका पहला फर्ज सीबीआई के शिकंजे से अपनी गर्दन छुड़ाना है न कि महँगाई के बोझ तले तिल-तिल मरने वाली जनता के हक की आवाज बुलंद करना।
याद रहे कि लालू-मुलायम और मायावती तीनों के खिलाफ सीबीआई (विपक्ष के शब्दों में-कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन) आय से अधिक संपत्ति के मामलों की जाँच कर रही है।
कांग्रेस और उक्त नेताओं के बीच सौदे का आधार कथित रूप से 'सीबीआई जाँच' ही थी। लालू-मुलायम का 'भारत बंद' में शामिल होना भी इसी सौदे का का हिस्सा था। मायावती का कदम आखिरी समय में सरकार को जिताने के लिए उठेगा, यह भी कांग्रेस जानती थी। इसके संकेत खुद सरकार के रणनीतिकारों ने मीडिया को दिए थे।
सवाल यह है कि जब तीनों नेताओं ने सरकार से साठगाँठ कर ही रखी थी तो महँगाई के मोर्च पर जनता का हमदर्द बनने का झूठा नाटक क्यों खेला गया? क्यों मायावती ने अपने पत्ते खोलने से पहले मीडिया को इकट्ठा कर चुन-चुन कर कांग्रेस पर तोहमत के तीर छोड़े? क्यों यह कहा कि मूल्यवृद्धि कम करने में मनमोहनसिंह नाकाम रहे हैं?
जब मायावती को कांग्रेसनीत यूपीए सरकार से किसी अच्छे भविष्य की उम्मीद ही नहीं थी (ऐसा अपनी प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा था) तो उसे समर्थन क्यों दिया? राहुल के दलित प्रेम को नौटंकी कहने वाली मायावती ने उन्हीं के कुनबे को सहारा देने वाला 'आधार' बनना कैसे मंजूर कर लिया?
मायावती का तर्क है कि यूपीए को समर्थन उन्होंने इसलिए दिया, क्योंकि वे सांप्रदायिक ताकतों (भाजपा) को सत्ता में आने नहीं देना चाहती थीं। मायावती से यह पूछा जाना चाहिए कि उप्र में इन्हीं सांप्रदायिक दलों के साथ सत्ता का सुख भोगते वक्त उन्हें यह खयाल क्यों नहीं आया? मनुवादी मानसिकता वाली पार्टी के समर्थन से सीएम बनना उन्हें नागवार क्यों नहीं गुजरा?
लालू और मुलायम ने भी यूपीए का संकटमोचक बनने के पीछे सांप्रदायिक ताकतों की आड़ ली। दोनों का कहना है अगर हम सरकार का साथ नहीं देते तो जनता को क्या मुँह दिखाते? यादव द्वय का तो नागरिक अभिनंदन होना चाहिए।
राम और रहीम एक हैं...यह इन्हीं नेताओं ने आवाम को समझाया है। अगर ये नहीं होते तो भारतवर्ष में सामाजिक समरसता कभी रह ही नहीं पाती। धर्मनिरपेक्षता का वजूद इनसे शुरू होकर इन्हीं पर खत्म होता है।
भाजपा को सांप्रदायिक करार देने वाले वे मुलायमसिंह यादव ही थे, जिन्होंने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी की शान में एक से बढ़कर एक कसीदे पढ़े थे। उस वक्त सपा अध्यक्ष को आडवाणी में देश का नेतृत्व करने के सारे गुण दिखाई दिए थे। फिर किस मुँह से मुलायम ने भाजपा को सांप्रदायिक कहा, इस बात का जवाब उन्हें देना चाहिए।
जिस कटौती प्रस्ताव की मुखालफत कर बसपा, राजद और सपा सरकार की गोद में जा बैठे, उन्होंने इतना भी नहीं सोचा कि अगर वे इस पर विपक्ष का साथ देते तो जनता की नजरों में इनकी इज्जत में इजाफा ही होता। अपने-अपने सूबों (उप्र, बिहार) से बुरी तरह हकाल दिए गए लालू-मुलायम के पास तो राष्ट्रीय स्तर पर जनता का समर्थन हासिल करने का मौका था।
मायावती भी उप्र में अभी तक कोई बहुत अच्छा शासन नहीं दे पाईं हैं। ऐसे में अगर वे भी कटौती प्रस्ताव का समर्थन कर लेतीं तो कीमतों की कटार से छलनी आम आदमी का अंतस उन्हें दुआएँ ही देता। वैसे भी तीनों ही दल सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। इसका मतलब उसके प्रति इनकी नैतिक प्रतिबद्धता भी नहीं है।
हालाँकि यह सही है कि अगर तीनों ही पार्टियाँ सरकार के खिलाफ वोट करतीं तो संप्रग सरकार के लिए संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता। सरकार समर्थकों की संख्या बहुमत से थोड़ी ही ज्यादा रह जाती। सरकार तो नहीं गिरती, लेकिन मनमोहन मंत्रिमंडल की किरकिरी जरूर हो जाती। हो सकता है नैतिक रूप से जिम्मेदारी स्वीकार कर वे इस्तीफा भी दे देते, लेकिन इसकी चिंता तीनों दलों को महँगाई पर सरकार का विरोध करने से पहले करना चाहिए थी।
यह तो कोई नैतिकता नहीं हुई कि जिस मुद्दे पर आप सत्तारूढ़ गठबंधन का विरोध करते हैं, उसी मसले पर विपक्ष द्वारा सरकार को घेरने की बारी आने पर भाग खड़े हों। इससे बेहतर था आप सरकार में ही शामिल हो जाते। तब न सरकार की झूठी बुराई करना पड़ती और न ही सीबीआई जाँच का डर रहता। उस वक्त तो 'पाँचों अँगुलियाँ घी में और सिर कड़ाही में' वाले मजे होते।
उल्लेखनीय यह भी है कि वामदल और भाजपा ने साफ कर दिया था कि उनकी मंशा सरकार गिराने की नहीं है। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि सरकार को सहारा देना जरूरी हो गया?
मान लिया कि सरकार गिर भी जाती तो केवल इन्हीं तीन नेताओं को मध्यावधि चुनाव का जिम्मेदार माना जाता, ऐसी बात नहीं है। अभी तक जितने भी चुनाव हुए हैं, सारा पैसा जनता की जेब से ही गया है। अतीत में पहले भी मतलब की राजनीति होती रही है और मध्यावधि चुनाव का संत्रास भोगने पर आम आदमी मजबूर होता रहा है। ऐसे में तीनों नेता यह दलील भी नहीं दे सकते कि देश पर चुनाव का बोझ न पड़े, इसलिए हमने यह 'कुर्बानी' दी है।
भाजपा भी कम खुदा नहीं : स्वार्थ के समुंदर की एक धारा भाजपा से होकर भी गुजरती है। आईपीएल विवाद पर विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का इस्तीफा माँगने वाली भगवा पार्टी प्रफुल्ल पटेल और शरद पवार का नाम आने पर उतनी आक्रामक नहीं दिखी। हंगामे के साथ संयुक्त संसदीय समिति की माँग जरूर भाजपा ने की, लेकिन दोनों ही नेताओं से नैतिक रूप से कुर्सी छोड़ने को उसने नहीं कहा। यहाँ आकर भाजपा भी मतलबपरस्ती के उसी दलदल में धँस गई, जिसका कीचड़ लालू-मुलायम और मायावती के दामन पर लगा।
गौरतलब है कि राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली बीसीसीआई की गवर्निंग काउंसिल के सदस्य हैं। संसद से बाहर उनकी शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल दोनों से अच्छी दोस्ती है। सूत्रों के मुताबिक जेटली के कहने पर ही पार्टी ने दोनों मंत्रियों के खिलाफ अपने सुर में नरमी दिखाई।
जाहिर है दोनों मंत्रियों के इस्तीफा देने का परिणाम देर-सवेर जेटली को ही भुगतना पड़ता। यही वजह थी कि जेटली की ना-नुकूर के बाद भाजपा संसद में आईपीएल विवाद को लेकर सरकार पर चिल्लाती तो रही, लेकिन इन दोनों के इस्तीफे माँगने की गलती उसने नहीं की।
भाजपा की संसदीय दल की बैठक में खुद मेनका गाँधी ने इस मुद्दे पर पार्टी नेताओं को आड़े हाथों लिया था। उनका कहना था कि मुंबई हमले के वक्त एनएसजी के जवानों को दिल्ली से मुंबई पहुँचने में घंटों लग जाते हैं, लेकिन आईपीएल खिलाड़ियों को पूर्णा पटेल के कहने पर एयर इंडिया का विमान एक घंटे में यहाँ से वहाँ ले जाता है। इसका मतलब यह कि भाजपा ने भी विपक्ष के रूप में अपनी भूमिका को सौ फीसदी नहीं जिया।
सो गया सोरेन का जमीर : झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने भी उसी 'सीबीआई शूल' से जान छुड़ाने के लिए संसद में यूपीए का झंडा उठा लिया। गुरुजी ने कांग्रेस के हक में फैसला लेने में जरा भी देर नहीं की। (सोरेन ने भी कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में वोट डाला था) उन्होंने भी नहीं सोचा कि झारखंड में जिस भाजपा के रहमोकरम से वे सीएम की कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे हैं, उससे कैसे नजरें मिलाएँगे। हालाँकि सोरेन से नैतिकता की आस रखना अपने आप को धोखा देने के बराबर है, लिहाजा उनके लिए ज्यादा न लिखना ही मुनासिब रहेगा।
उक्त तमाम घटनाक्रम के बाद तो यही दिल से निकलता है कि-
नेता की खाल में सत्ता का दलाल नजर आता है
हकीकत के उजाले में हर चेहरा झूठ की ढाल नजर आता है

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