मधुसूदन आनंद
मैंने एक लेख में उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखा तो मेरे एक मित्र ने कटाक्ष किया कि "तुम जैसे लोग हिंदी का भठ्ठा बैठाने में लगे हो। जिन शब्दों के लिए हिंदी में शब्द हैं, उन्हें अंग्रेजी में लिखने की भला क्या जरूरत है? आज जब तुम अखबार में सुप्रीम कोर्ट चलाओगे तो गाँव-कस्बे का कौन आदमी उसे उच्चतम न्यायालय कहेगा?"
मेरे मित्र की आपत्ति सही थी। उन्हें हिंदी भाषा की चिंता है, जबकि बाजार और विज्ञापनदाताओं की माँग पर हिंदी पत्रकारिता का एक वर्ग जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहा है। हिंदी फिल्मों के नाम आज अंग्रेजी शब्दों में लिखे जा रहे हैं-जैसे 'वेकअप सिड', 'जब वी मैट', 'वेलकम टू सज्जनपुर', 'थ्री इडिएट्स', 'गॉड तुसी ग्रेट हो' आदि। ये फिल्में खूब चली हैं और हिंदीभाषी जनता ने उन्हें खूब देखा भी है तो इसका मतलब क्या लगाया जाए? यही कि जनता ने इसे, अपने आप सहज ही या मजबूरी में स्वीकार कर लिया है।
बोलचाल की भाषा में जो अंग्रेजी शब्द सहज ही आते चले गए हैं, उनसे परे जाकर फिल्मों में जो अंग्रेजी शब्द घुसेड़े जा रहे हैं, उनके खिलाफ कोई प्रकट आक्रोश नहीं है और अगर है तो किसी को उसकी परवाह नहीं है। अगर होती तो कहीं तो इन फिल्मों के और नहीं तो प्रतीकात्मक स्तर पर ही पोस्टर वगैरह फाड़े जाते?
यानी अपने पैसे से जो मनोरंजन हम खरीद रहे हैं, उसमें कोई जानबूझ कर अंग्रेजी की मिलावट कर रहा है और हम उसे स्वीकार कर रहे हैं। यह ठीक है कि हम हिंदुस्तानी लोग आज सिनेमा और टेलीविजन के बिना नहीं रह सकते, लेकिन हममें अंग्रेजी शब्दों का प्रतिकार करने का माद्दा भी नहीं है। इसलिए हमारी हिंदी वर्ण संकर होती जा रही है।
इस पृष्ठभूमि में जब कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखता है तो शुद्धतावादियों को बहुत शिकायत होती है और वे विलाप करने लगते हैं कि हिंदी भाषा इस तरह तो जल्दी ही विलुप्त हो जाएगी। हिंदी के साथ ऐसी कोई समस्या दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। लेकिन इतना तय है कि प्रगति और विकास के साथ हिंदी का स्वरूप जरूर बदलता जाएगा।
आज आप भारतेंदु हरिश्चंद्र और शिवप्रसाद सितारेहिंद की भाषा पढ़ें या देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों की भाषा पढ़ें तो आपको साफ समझ में आ जाएगा कि कोई भी भाषा कभी यथावत नहीं रहती। वह समय के साथ बदलती है, अपने को दूसरी भाषा और बोलियों से समृद्ध करती है और अगर उसमें बदलने का माद्दा नहीं होता तो वह विलुप्त हो जाती है, जैसे संस्कृत, जो या तो आकाशवाणी की वजह से या फिर हमारे कर्मकांडों की वजह से जीवित है।
दुनिया में हर साल अनेक भाषाएँ और बोलियाँ विलुप्त हो जाती हैं और भारत भी इस मामले में अपवाद नहीं है। इसलिए हिंदी को सहज रूप से आ रहे अंग्रेजी शब्दों को अपने में समाहित करने से डरना नहीं चाहिए। 'सुप्रीम कोर्ट' और हाईकोर्ट भी ऐसे ही शब्द हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ गए हैं। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय न लिखने से हिंदी कमजोर नहीं होती।
मेरी माँ सिर्फ पाँचवीं तक पढ़ी हैं, हिंदी लिख-पढ़ सकती हैं। कोई 80 साल की होंगी। उत्तरप्रदेश में एक छोटे से कस्बे में रहती हैं। टेलीविजन देखती हैं। मैंने एक दिन उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों की लिस्ट बनाई और उन अंग्रेजी शब्दों की भी जो उनके साथ बोलचाल में घर में इस्तेमाल किए गए।
ये शब्द थेः प्रॉब्लम, फोर्स, मोबाइल, डिसमिस, ब्रैड, अंडरस्टैंडिंग, मार्केट, शर्ट, शॉपिंग, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर, लेट, वाइफ, हस्बैंड, सिस्टर, फादर, मदर, फेस, माउथ, गॉड, कोर्ट, लैटर, मिल्क, शुगर टी, सर्वेंट, थैंक यू, डैथ, एक्सपायर, बर्थ, हैड, हेयर, एक्सरसाइज, वॉक, बुक, चेयर, टेबिल, हाउस आदि।
अगर ये शब्द धीरे-धीरे हिंदी में आ रहे हैं तो क्या इसका मतलब यह होगा कि हिंदी मर जाएगी? आज दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्यों में रहने वाला शायद ही कोई व्यक्ति कॉलेज को महाविद्यालय कहता होगा। अगर आज हमने अपने घर में टेलीविजन को स्वीकार किया है, उससे मिलने वाले मनोरंजन को स्वीकार किया है तो उससे होने वाले भाषाई-प्रदूषण को भी मंजूर करना पड़ेगा क्योंकि ऐसा कोई फिल्टर नहीं है जो अंग्रेजी शब्दों को छाँट दे।
वैसे भी यह मानी हुई बात है कि कोई भी माध्यम ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करेगा जो उसके कंटेंट को लोगों तक न पहुँचा सके। फिर शहरों में रहते हुए क्या हम पर्यावरण-प्रदूषण को नहीं झेल रहे? हाँ हम यह भी कोशिश करते हैं कि प्रदूषण का स्तर एक खास स्तर से ज्यादा न हो। वह ज्यादा होगा तो हमारे स्वास्थ्य को खतरा होगा। हम मर जाएँगे। भाषाएँ भी समझ लीजिए इसी तरह का प्रदूषण झेलती हैं और जब नहीं झेल पातीं तो मर जाती हैं।
हाँ भाषाओं को कृत्रिम रूप देने का प्रयास नहीं होना चाहिए, जैसा कि हिंदी सिनेमा के शीर्षकों में दिखाई देता है। लेकिन टीचर को शिक्षक और स्कूल को विद्यालय लिखने का आग्रह तो जिद भरा है। पत्रकारिता की भाषा और साहित्य की भाषा दो अलग-अलग चीजें हैं हालाँकि दोनों में ही सबसे पहले सम्प्रेषण का सवाल आता है। अखबारों के पढ़ने वाले करोड़ों में हैं, जबकि साहित्य की किसी पुस्तक की मुश्किल से 500 प्रतियाँ छपती हैं।
हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों के आने की एक वजह यह भी है कि खड़ी बोली का इतिहास मुश्किल से 150 साल पुराना है। हिंदी के पास साहित्य और दर्शन की भाषा तो रही, लेकिन पत्रकारिता की भाषा उसने धीरे-धीरे गढ़ी है।
एक जमाने में हमारे पास उद्योग और व्यापार की भाषा नहीं थी, खेल और कलाओं की भाषा नहीं थी, आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की भाषा नहीं थी, यहाँ तक कि राजनैतिक-विमर्श की भाषा भी नहीं थी। ये भाषाएँ आज भी गढ़ी जा रही हैं और खेलों के अंग्रेजी शब्द हिंदी में प्रयोग में आ रहे हैं।
अंग्रेजी शब्दों के लिए अगर हम हिंदी में लौहपथगामिनी विश्रामस्थल (रेलवे स्टेशन) या काया पखारू बट्टी (साबुन) लिखने की जिद करेंगे तो आचार्य रघुवीर की तरह हास्यास्पद होंगे। रेल को आज रेल ही कहा जाता है और लालटर्न को लालेटन। अब आप पीएसएलवी या जीएसएलवी को क्या लिखेंगे?
मैंने एक सज्जन के साथ बातचीत में ब्याज और ऋण शब्द का प्रयोग किया तो उन्होंने मासूमियत से पूछा क्या? जब मैंने कहा लोन और इंटरेस्ट तब जाकर वे समझे। वे सज्जन भारतीय ही हैं और यहीं पैदा हुए हैं, बस उच्च वर्ग के हैं। लेकिन ऐसे लाखों लोग दिल्ली में होंगे जो लोन ही कहेंगे, कर्ज नहीं।
इसलिए जितना बुरा जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को ठूँसना है, उतना ही बुरा सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, मार्केट, हॉस्पिटल, टीचर आदि सहज शब्दों के हिंदी में आने का विरोध करना है।
यह सही है कि कोई भी भाषा उसकी संस्कृति का डीएनए होती है। (अब कोई बताए कि हिंदी में डीएनए के लिए क्या शब्द लिखें) लेकिन अगर संस्कृति बदल रही हो तो क्या डीएनए नहीं बदलेगा? आज जरा गौर कीजिए कि हमारी संस्कृति, हमारा पहनावा, हमारी शिक्षा और हमारा सामाजिक माहौल कितना बदला है।
आरएसएस जैसे संगठन तो आजकल चल रही जनगणना में अपने समर्थकों से आग्रह कर रहे हैं कि वे अपनी भाषा हिंदी या संस्कृत लिखाएँ, जो भारतीय संस्कृति की उनके अनुसार डीएनए हैं।
अतीत में पंजाब में आर्यसमाज ने नागरिकों से अपील की थी कि अपनी भाषा हिंदी लिखाएँ। पंजाबीभाषियों की बोली तब पंजाबी और भाषा उर्दू हुआ करती थी। संस्कृति को अलग दिखाने के नाम पर पंजाबियों ने अपनी भाषा पंजाबी घोषित की थी तो मोनों (हिंदुओं) ने हिंदी, जबकि विभाजन से पहले दोनों ही अपना कारोबार उर्दू में किया करते थे। वैसे इसके मूल में यह भावना थी कि उर्दू का समर्थन पाकिस्तान का समर्थन साबित होगा।
भारत में इसी भाषायी शुद्धतावाद के कारण उर्दू जैसी एक खूबसूरत भाषा आज नष्ट होने के कगार पर है और पंजाब में हिंदी के पक्ष में किया गया आग्रह अलगाववाद की समस्या का एक कारण बन चुका है। इसलिए जबरन कोई भाषा थोपना अंततः घातक ही साबित होता है। हमें यह अंतर करना आना चाहिए कि कहाँ भाषा थोपी जा रही है और कहाँ वह स्वेच्छा से आ रही है। थोपे जाने का हम विरोध करें और सहजता का हम स्वागत करें।
आज के दौर में जब हिंदी को रोमनलिपि में लिखे जाने के तर्क दिए जा रहे हैं, हमें अपने शुद्धतावादी तेवर तो त्यागने पड़ेंगे। इसी से हिंदी बची रह जाएगी।
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