संदीपसिंह सिसोदिया
प्रकृति ने हर प्राणी को एक नियम के तहत बनाया है, हर प्राणी को एक जिम्मेदारी दी गई है। प्रकृति के इस चक्र में साफ-सफाई का काम करने वाले गिद्धों की संख्या पिछले एक दशकों में एकाएक घट गई है।
लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए भारत में सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। पक्षी संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 14 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं।
इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रूप में एक दवा डायक्लोफेनाक दी जाती है और इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो उसका माँस खाने से गिद्ध मर जाते हैं।
भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफेनाक के अवशेष मिले हैं। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इस दवा के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो उनका माँस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचता है, जिससे वे मौत का शिकार हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से भारत में गिद्धों की संख्या तेजी से कम हो रही है।
साथ ही शहरी क्षेत्रों में बढ़ता प्रदूषण, कटते वृक्षों से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ती की ओर धकेल रही है। वैसे भी भारतीय समाज में गिद्धों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, मरे हुए प्राणियों का माँस नोचने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली कई बिमारियों की रोकथाम में सहायता कर संतुलन बैठाते हैं।
ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रूप से कम हुई हैं।
उनका कहना है हालाँकि अब भारत में डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन भोजन चक्र से इसका असर खत्म होने में काफी वक्त लगेगा।
गौरतलब है की टनों की संख्या में यह दवा गाँव-शहरों में उपलब्ध है। निरक्षरता और इस सम्बन्ध में कोई समुचित जानकारी नहीं होने से इस पर लगाए गए प्रतिबंध इतनी जल्दी असरदार साबित होंगे इसमें संदेह है।
भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा के अंतर्गत भी ऐसी दवाइयों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की माँग की गई है, जिनसे किसी वन्य प्रजाति को नुकसान हो।
रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या सिर्फ गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। कभी राजस्थान व मध्यप्रदेश में भी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हों। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में गिरावट आई है।
इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, गिद्ध जोड़े साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देते हैं।।
भारत में कभी गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पायी जाती थीं। ये हैं बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम एवं व्हाइट बैक्ड। इनमें से चार प्रवासी किस्म की हैं।
पर्यावरण में गिद्धों की भूमिका : पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है। देखा जाए तो सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को खा कर देखा जाए तो धरती पर पड़ी गंदगी को खत्म करते रहे हैं। इससे कई बिमारियाँ व संक्रमण की रोकथाम होती है। प्राकृतिक रूप से भोजन चक्र में गिद्धों की भूमिका अहम रही है। खाद्य श्रृंखला में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
संरक्षण के लिए उठाए गए कदम : पशुओं के इलाज के दौरान उन्हें दी जाने वाली दर्द निवारक दवा डायक्लोफेनिक ही गिद्धों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, यह बात आज से करीब दो दशक पहले ही उजागर हो गई थी। डायक्लोफेनिक से गिद्धों की मौत होने की जानकारी करीब 20 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन तब से लेकर आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूँढ़ा नहीं जा सका है।
भारत सरकार भी इस संबध में हुए सर्वेक्षणों की रिपोर्ट आने के बाद मान गई कि इस दवाई के कारण ही गिद्धों की मौत हो रही है| नतीजतन भारत सरकार से संबद्ध नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ ने डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने स्वीकार कर डायक्लोफेनाक की जगह दूसरी दवाइयों के उपयोग को मंजूरी दे दी।
गाँवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में यह दवा जानवरों के लिए अभी भी धड़ल्ले से उपयोग में लाई जा रही है, जिससे गिद्धों को हाल में तो कोई राहत मिलती नहीं दिखती।
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