विवाह पूर्व सेक्स हर युग में हुआ है
उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया है। यह फैसला कहता है कि समाज में विवाह से पूर्व सेक्स करना गुनाह नहीं है। इस फैसले के साथ ही शुरु हो गया है एक अंतहीन बहस का सिलसिला। सवालों के असंख्य चेहरे हैं और इनमें एक चेहरा जाना-पहचाना है, जो पूछ रहा है कि क्या इस फैसले से नारी स्वतंत्रता की नई राह खुलती है या शोषण का मान्यता प्राप्त अत्याधुनिक रास्ता।
इस फैसले से हम आधुनिक हो रहे हैं या लौट रहे हैं उसी बर्बर युग की ओर जब मानव सभ्य नहीं हुआ था और उसे खुली आजादी थी कभी भी, किसी भी स्त्री या पुरुष के साथ मनचाहे दिनों तक रहने की। और जब चाहे उसे छोड़ देने की। सच तो यह है कि मानव की विकास-यात्रा में जितने और जैसे-जैसे प्रयोग महिला और उसकी आजादी के साथ हुए उतने शायद ही किसी और के साथ हुए होंगे।
आदिम युग
इस युग की स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से संबंध बनाने की पूर्ण आजादी थी। उन पुरुषों का उस पर कोई अधिकार भी नहीं था। स्त्री का अपना एक वजूद था। स्त्री तय करती थी कि अपना शरीर उसे कब, किसे और कितने दिनों तक सौंपना है। वह जब चाहे जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती थी। और तो और जिस पुरुष से चाहे उससे बच्चों को जन्म दे सकती थी।
आदिम युग में आजादी इसलिए भी थी क्योंकि गुलामी नहीं थी। आजादी शब्द की गुहार ही तब लगी जब कबीलाई परंपरा के आगमन के साथ स्त्रियों की दुर्दशा शुरू हुई।
कबीला युग
जैसे-जैसे मानव की समझ में विस्तार हुआ, कबीलाई प्रथा ने जन्म लिया। प्राकृतिक आपदाओं और दुश्मनों से बचने के लिए मानव ने समूहों में रहना आरंभ किया। जब एक कबीला दूसरे कबीले की स्त्रियों और बच्चों को लूटने लगा और जब स्त्रियों की वजह से कबीलों में संघर्ष होने लगा तब शायद इस जरूरत ने जन्म लिया होगा कि स्त्री को अपने ही अधिकार में कैसे रखा जाए।
यहाँ से आरंभ होता है महिलाओं के दमन का ऐसा कुचक्र जो समय बदलने के साथ अपनी गति पकड़ता गया पर थमा नहीं। दिशा बदलता रहा पर सुधरा नहीं। हालाँकि अपनी पसंद के पुरुष से संबंध बनाने के अधिकार का वह प्रयोग करती रही मगर चोरी-चुपके।
सभ्य युग
हमारी सामाजिक व्यवस्था के सभ्य और सुसंस्कृत होने के साथ ही विवाह नाम की संस्था ने जन्म लिया। विवाह नामक संस्था या कहें कि संस्कार के साथ दो विपरीत लिंगी के जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहने की एक अनूठी परंपरा अस्तित्व में आई। एक ऐसी सुगठित समन्वित व्यवस्था जिसमें दो अपोजिट सेक्स मान्यता प्राप्त तरीके से साथ जीवन गुजार सकते हैं। इस तरह से जीवन यापन को समाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा की नजर से देखा जाने लगा। विवाह परंपरा ने महिलाओं को सुरक्षा कवच प्रदान किया। मगर स्त्री और पुरुष अपने मन को इस युग में भी नहीं रोक सके इसके सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे।
राजा-महाराजाओं का युग
यह वह युग था जब स्त्रियाँ तमाम वैभव और ऐश्वर्य को तो भोग रही थी, मगर खुद भी भोग की एक वस्तु बन गई। राजा-महाराजा युद्धों में उसे जीत कर लाने लगे। और जिसे जीत कर हासिल किया हो भला उसका भी कोई सम्मान हो सकता था? वह जीत कर लाई गई एक ऐसी सामग्री बन गई जिसका पुरूष राजा को भरपूर इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त था।
इस युग में नारी ने अपनी पसंद के जीवनसाथी को चयन करने का अधिकार स्वयंवर द्वारा हासिल किया। लेकिन राजकुमार-राजकुमारियों के कई ऐसे किस्से हमें मिलते हैं जिनमें विवाह परंपरा को धता बता कर उन्होंने रिश्ते बनाए और निभाए।
पौराणिक युग
पौराणिक युग की हर कथा में चाहे वह मेनका हो या शकुंतला, उर्वशी, चित्रलेखा हो या चित्रांगदा, विवाह पूर्व संबंध बनाने की बात सामने आती है। द्वापर युग की कुंती हो या निषाद पुत्री, सुभद्रा हो या रुक्मणि, सभी ने अपनी पसंद के पुरुष से बिना विवाह संबंध बनाए और उनके परिणाम-दुष्परिणाम भोगे।
धर्म ने कभी नहीं कहा
दुनिया के किसी भी धर्म का कोई भी ग्रंथ उठा लीजिए। किसी धर्म ने स्त्रियों पर बंधन नहीं लादे हैं। अगर मर्यादा और नैतिकता की बात कही भी तो वह मनुष्य मात्र के लिए कही। जिसमें पुरुष भी शामिल है। अब जब धर्म नहीं कहता तो समाज के ये कौन और कैसे लोग हैं जो दो आत्माओं के स्वैच्छा से रहने के फैसले पर बिलबिला रहे हैं?
विवाह अब बचा कितना है?
दिल्ली की तीस हजारी अदालत में प्रति सप्ताह 10 से 12 हजार जोड़े तलाक की अर्जी लेकर आ रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इनमें मर्जी से शादी करने वाले ज्यादा हैं। परिवार की मर्जी से शादी करने वाले कम है इसका यह मतलब नहीं कि वे खुशहाल हैं। पारिवारिक हिंसा और खटपट के अनंत किस्से यहाँ भी कसमसा रहे हैं। महिलाएँ रिश्तों के दुहाई के नाम पर घुट रही है। आजादी नाम का पंछी ना जाने किस कोने में साँस लेने के लिए छटपटा रहा है। ऐसे में भला बताएँ कि लिव इन रिलेशन में बुराई क्या है?
करियर ने दम घोंटा है ख्वाहिशों का
लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने लड़कियों और लड़कों की वरीयता सूची से विवाह को नीचे धकेला है लेकिन एक उम्र विशेष में शरीर की जरूरतें वही रहती है। प्राकृतिक रूप से शरीर के भीतरी तमन्नाएँ उसी तरह अँगड़ाई लेती है जैसी पहले लेती थी। बल्कि बदलते दौर में जब खुलेपन ने तकनीक के माध्यम से अब सिर्फ 'घर' के बजाय हथेली में अत्याधुनिक मोबाइल के रूप में जगह बना ली है, शरीर की बॉयलॉजिकल नीड्स भी उसी तुलना में बढ़ी है और यह स्वाभाविक भी है।
ऐसे में युवकों के लिए तो ठिकाने बने हैं मगर युवतियाँ, वे कहाँ किस जगह जाएँ अपने जिस्म को लेकर। वहाँ भी तो परंपराएँ, सम्मान, प्रतिष्ठा जैसे शब्द बैठें हैं उसकी पहरेदारी के लिए। ऐसे में सार्वजनिक रूप से वह अपने पुरुष मित्र के साथ बिना विवाह किए रहती है तो समाज के पेट में हो रहा दर्द समझ से परे है।
अगर फैसला कुछ और होता
मान लीजिए अगर न्यायालय का फैसला होता कि विवाह से पूर्व साथ रहना सही नहीं है तो क्या उसका ये लोग उसी स्वर में स्वागत करते जिस स्वर में विरोध कर रहे हैं? क्या मन के रिश्ते किसी विवाह, किसी मंत्र, किसी कसम के मोहताज हैं? अगर मन के बीच दुरियाँ हैं तो दुनिया की कोई रस्म कोई परंपरा खुशियाँ नहीं ला सकती रिश्तों में। दो मन अगर एक-दुजे को समझने-जानने के लिए साथ रहते हैं या अपनी नैसर्गिक आवश्यकताओं के लिए साहस के साथ, संग रहने का फैसला लेते हैं तो गलत कैसे हुए?
चोर-रिश्तों से तो बेहतर है
फैसले का विरोध करें मगर सिर्फ विरोध के लिए नहीं। तार्किकता के साथ आगे आएँ कि क्या इस विरोध से समाज में बनने वाले 'चोर रिश्ते' बंद हो जाएँगे? जब हम जानते हैं कि ऐसे रिश्ते ना किसी युग में रुके हैं ना किसी युग में रूकेंगें। तो क्या फर्क पड़ता है अदालत के फैसले से। कौन सी संस्कृति बच जाएगी? और किस संस्कृति की बात कर रहे हैं, जिसे पहले ही दीमक लग चुका है उसकी?
क्या बेहतर यह नहीं होगा कि हम अपने युवा को खुलकर जीने का माहौल दे, उसे खुद चोट खानें दें और स्वविवेक के आधार पर अपनी परिधि खुद तय करने दें। याद है ना कि स्प्रिंग को जितनी जोर से दबाएँगे वह उतनी ही जोर से उछलेगी तो फिर बंद क्यों नहीं करते हम युवाओं को स्प्रिंग की तरह दबाना? उड़ने दो उन्हें खुलकर आकाश में, नियम खुद-ब-खुद बन जाएँगे बनाने नहीं पड़ेगें।
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