महेंद्र तिवारी
संसद में पिछले दिनों पेश आए तीन वाकयों ने नाउम्मीदी, नफरत और नाराजगी की कड़वी यादों को फिर हरा कर दिया, जब देश के सबसे बड़े सत्ता बाजार में सच की सरेआम नीलामी की गई। ऐसा एक नहीं, बल्कि अलग-अलग सूरतों में तीन बार हुआ। वैसे 'राज' की खातिर 'नीति' से बलात्कार पहले भी हुआ है, लेकिन अब इसकी पुनरावृत्ति कुछ ज्यादा ही होने लगी है।
बहरहाल, ऊपर उल्लेखित तीनों वाकये वास्तव में संप्रग के बैनर तले बनी 'मतलबपरस्ती' की ऐसी सियासी पटकथा है, जिसे बसपा, राजद और सपा तीनों ने एक साथ संसद के परदे पर उतारा। कटौती प्रस्ताव को लेकर अदा किए गए लालू-मुलायम और माया के किरदार तो हिंदी फिल्म के 'खलनायकों' को भी चुनौती दे रहे थे। इन्हें देख लगने लगा कि वैज्ञानिक कहीं इस बात पर शोध शुरू न कर दें कि 'थाली के बैंगन' और नेताओं के डीएनए में कहीं कोई जुड़ाव तो नहीं है?
गौरतलब है कि भाजपा और वामदलों ने 27 अप्रैल को संसद में पेट्रोल-डीजल की मूल्यवृद्धि को लेकर सरकार के खिलाफ कटौती प्रस्ताव लाने की घोषणा की थी। वामपंथियों ने 13 गैरयूपीए दलों जेडीएस, भाकपा, आरएसपी, सपा, राजद, बीजद, अन्ना द्रमुक, तेलुगूदेशम, नेलोद और फारवर्ड ब्लॉक आदि को लामबंद किया, वहीं भाजपा शिवसेना, जदयू और अकाली दल सरीखे राजग के घटक दलों को एक जाजम पर लाने की कवायद में जुट गई।
सरकार में शामिल डीएमके और तृणमूल कांग्रेस भी बजट में बढ़ाए गए दामों को वापस लेने की माँग कर चुके थे, लेकिन चूँकि वे सत्ता का हिस्सा थे इसलिए उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा।
वामपंथी यह समझ रहे थे कि राजद और सपा 'भारत बंद' की तरह कटौती प्रस्ताव में भी उनके साथ खड़े रहेंगे। भाजपा ने तो इन दोनों से उम्मीद नहीं रखी थी, लेकिन उसे इतना यकीन था कि लालू-मुलायम महँगाई जैसे जनहित के मुद्दे पर पीठ नहीं दिखाएँगे।
जैसे-जैसे दिन चढ़ा, चाल, चेहरा और चरित्र सभी साफ होने लगे, लेकिन सुषमा स्वराज (लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष) और वामपंथियों को क्या पता था कि जिस विपक्ष की एकजुटता का वे दम भर रहे हैं, वह ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा। जिन नेताओं को साथ लेकर वे सरकार को झुकाने की कोशिश कर रहे हैं, असल में खुदगर्जी के पैरोकार हैं। उनका पहला फर्ज सीबीआई के शिकंजे से अपनी गर्दन छुड़ाना है न कि महँगाई के बोझ तले तिल-तिल मरने वाली जनता के हक की आवाज बुलंद करना।
याद रहे कि लालू-मुलायम और मायावती तीनों के खिलाफ सीबीआई (विपक्ष के शब्दों में-कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन) आय से अधिक संपत्ति के मामलों की जाँच कर रही है।
कांग्रेस और उक्त नेताओं के बीच सौदे का आधार कथित रूप से 'सीबीआई जाँच' ही थी। लालू-मुलायम का 'भारत बंद' में शामिल होना भी इसी सौदे का का हिस्सा था। मायावती का कदम आखिरी समय में सरकार को जिताने के लिए उठेगा, यह भी कांग्रेस जानती थी। इसके संकेत खुद सरकार के रणनीतिकारों ने मीडिया को दिए थे।
सवाल यह है कि जब तीनों नेताओं ने सरकार से साठगाँठ कर ही रखी थी तो महँगाई के मोर्च पर जनता का हमदर्द बनने का झूठा नाटक क्यों खेला गया? क्यों मायावती ने अपने पत्ते खोलने से पहले मीडिया को इकट्ठा कर चुन-चुन कर कांग्रेस पर तोहमत के तीर छोड़े? क्यों यह कहा कि मूल्यवृद्धि कम करने में मनमोहनसिंह नाकाम रहे हैं?
जब मायावती को कांग्रेसनीत यूपीए सरकार से किसी अच्छे भविष्य की उम्मीद ही नहीं थी (ऐसा अपनी प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा था) तो उसे समर्थन क्यों दिया? राहुल के दलित प्रेम को नौटंकी कहने वाली मायावती ने उन्हीं के कुनबे को सहारा देने वाला 'आधार' बनना कैसे मंजूर कर लिया?
मायावती का तर्क है कि यूपीए को समर्थन उन्होंने इसलिए दिया, क्योंकि वे सांप्रदायिक ताकतों (भाजपा) को सत्ता में आने नहीं देना चाहती थीं। मायावती से यह पूछा जाना चाहिए कि उप्र में इन्हीं सांप्रदायिक दलों के साथ सत्ता का सुख भोगते वक्त उन्हें यह खयाल क्यों नहीं आया? मनुवादी मानसिकता वाली पार्टी के समर्थन से सीएम बनना उन्हें नागवार क्यों नहीं गुजरा?
लालू और मुलायम ने भी यूपीए का संकटमोचक बनने के पीछे सांप्रदायिक ताकतों की आड़ ली। दोनों का कहना है अगर हम सरकार का साथ नहीं देते तो जनता को क्या मुँह दिखाते? यादव द्वय का तो नागरिक अभिनंदन होना चाहिए।
राम और रहीम एक हैं...यह इन्हीं नेताओं ने आवाम को समझाया है। अगर ये नहीं होते तो भारतवर्ष में सामाजिक समरसता कभी रह ही नहीं पाती। धर्मनिरपेक्षता का वजूद इनसे शुरू होकर इन्हीं पर खत्म होता है।
भाजपा को सांप्रदायिक करार देने वाले वे मुलायमसिंह यादव ही थे, जिन्होंने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी की शान में एक से बढ़कर एक कसीदे पढ़े थे। उस वक्त सपा अध्यक्ष को आडवाणी में देश का नेतृत्व करने के सारे गुण दिखाई दिए थे। फिर किस मुँह से मुलायम ने भाजपा को सांप्रदायिक कहा, इस बात का जवाब उन्हें देना चाहिए।
जिस कटौती प्रस्ताव की मुखालफत कर बसपा, राजद और सपा सरकार की गोद में जा बैठे, उन्होंने इतना भी नहीं सोचा कि अगर वे इस पर विपक्ष का साथ देते तो जनता की नजरों में इनकी इज्जत में इजाफा ही होता। अपने-अपने सूबों (उप्र, बिहार) से बुरी तरह हकाल दिए गए लालू-मुलायम के पास तो राष्ट्रीय स्तर पर जनता का समर्थन हासिल करने का मौका था।
मायावती भी उप्र में अभी तक कोई बहुत अच्छा शासन नहीं दे पाईं हैं। ऐसे में अगर वे भी कटौती प्रस्ताव का समर्थन कर लेतीं तो कीमतों की कटार से छलनी आम आदमी का अंतस उन्हें दुआएँ ही देता। वैसे भी तीनों ही दल सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। इसका मतलब उसके प्रति इनकी नैतिक प्रतिबद्धता भी नहीं है।
हालाँकि यह सही है कि अगर तीनों ही पार्टियाँ सरकार के खिलाफ वोट करतीं तो संप्रग सरकार के लिए संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता। सरकार समर्थकों की संख्या बहुमत से थोड़ी ही ज्यादा रह जाती। सरकार तो नहीं गिरती, लेकिन मनमोहन मंत्रिमंडल की किरकिरी जरूर हो जाती। हो सकता है नैतिक रूप से जिम्मेदारी स्वीकार कर वे इस्तीफा भी दे देते, लेकिन इसकी चिंता तीनों दलों को महँगाई पर सरकार का विरोध करने से पहले करना चाहिए थी।
यह तो कोई नैतिकता नहीं हुई कि जिस मुद्दे पर आप सत्तारूढ़ गठबंधन का विरोध करते हैं, उसी मसले पर विपक्ष द्वारा सरकार को घेरने की बारी आने पर भाग खड़े हों। इससे बेहतर था आप सरकार में ही शामिल हो जाते। तब न सरकार की झूठी बुराई करना पड़ती और न ही सीबीआई जाँच का डर रहता। उस वक्त तो 'पाँचों अँगुलियाँ घी में और सिर कड़ाही में' वाले मजे होते।
उल्लेखनीय यह भी है कि वामदल और भाजपा ने साफ कर दिया था कि उनकी मंशा सरकार गिराने की नहीं है। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि सरकार को सहारा देना जरूरी हो गया?
मान लिया कि सरकार गिर भी जाती तो केवल इन्हीं तीन नेताओं को मध्यावधि चुनाव का जिम्मेदार माना जाता, ऐसी बात नहीं है। अभी तक जितने भी चुनाव हुए हैं, सारा पैसा जनता की जेब से ही गया है। अतीत में पहले भी मतलब की राजनीति होती रही है और मध्यावधि चुनाव का संत्रास भोगने पर आम आदमी मजबूर होता रहा है। ऐसे में तीनों नेता यह दलील भी नहीं दे सकते कि देश पर चुनाव का बोझ न पड़े, इसलिए हमने यह 'कुर्बानी' दी है।
भाजपा भी कम खुदा नहीं : स्वार्थ के समुंदर की एक धारा भाजपा से होकर भी गुजरती है। आईपीएल विवाद पर विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का इस्तीफा माँगने वाली भगवा पार्टी प्रफुल्ल पटेल और शरद पवार का नाम आने पर उतनी आक्रामक नहीं दिखी। हंगामे के साथ संयुक्त संसदीय समिति की माँग जरूर भाजपा ने की, लेकिन दोनों ही नेताओं से नैतिक रूप से कुर्सी छोड़ने को उसने नहीं कहा। यहाँ आकर भाजपा भी मतलबपरस्ती के उसी दलदल में धँस गई, जिसका कीचड़ लालू-मुलायम और मायावती के दामन पर लगा।
गौरतलब है कि राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली बीसीसीआई की गवर्निंग काउंसिल के सदस्य हैं। संसद से बाहर उनकी शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल दोनों से अच्छी दोस्ती है। सूत्रों के मुताबिक जेटली के कहने पर ही पार्टी ने दोनों मंत्रियों के खिलाफ अपने सुर में नरमी दिखाई।
जाहिर है दोनों मंत्रियों के इस्तीफा देने का परिणाम देर-सवेर जेटली को ही भुगतना पड़ता। यही वजह थी कि जेटली की ना-नुकूर के बाद भाजपा संसद में आईपीएल विवाद को लेकर सरकार पर चिल्लाती तो रही, लेकिन इन दोनों के इस्तीफे माँगने की गलती उसने नहीं की।
भाजपा की संसदीय दल की बैठक में खुद मेनका गाँधी ने इस मुद्दे पर पार्टी नेताओं को आड़े हाथों लिया था। उनका कहना था कि मुंबई हमले के वक्त एनएसजी के जवानों को दिल्ली से मुंबई पहुँचने में घंटों लग जाते हैं, लेकिन आईपीएल खिलाड़ियों को पूर्णा पटेल के कहने पर एयर इंडिया का विमान एक घंटे में यहाँ से वहाँ ले जाता है। इसका मतलब यह कि भाजपा ने भी विपक्ष के रूप में अपनी भूमिका को सौ फीसदी नहीं जिया।
सो गया सोरेन का जमीर : झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने भी उसी 'सीबीआई शूल' से जान छुड़ाने के लिए संसद में यूपीए का झंडा उठा लिया। गुरुजी ने कांग्रेस के हक में फैसला लेने में जरा भी देर नहीं की। (सोरेन ने भी कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में वोट डाला था) उन्होंने भी नहीं सोचा कि झारखंड में जिस भाजपा के रहमोकरम से वे सीएम की कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे हैं, उससे कैसे नजरें मिलाएँगे। हालाँकि सोरेन से नैतिकता की आस रखना अपने आप को धोखा देने के बराबर है, लिहाजा उनके लिए ज्यादा न लिखना ही मुनासिब रहेगा।
उक्त तमाम घटनाक्रम के बाद तो यही दिल से निकलता है कि-
नेता की खाल में सत्ता का दलाल नजर आता है
हकीकत के उजाले में हर चेहरा झूठ की ढाल नजर आता है
Friday, April 30, 2010
Tuesday, April 27, 2010
भारत क्यों नहीं है विश्वशक्ति?
-वाईसी हालन
अपनी पुस्तक 'इंडिया, इमर्जिंग पावर' में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ स्टीफन पी. कोहेन भारत के महाशक्ति बनने के संदर्भ में लिखते हैं कि सैन्य शक्ति समेत हर तरह की शक्ति आर्थिक मजबूती से ही हासिल होती है।
विश्व के इतिहास का विश्लेषण करें तो यह बात सही भी है। दूसरे विश्वयुद्ध से पहले तक ब्रिटेन एक बड़ी महाशक्ति रहा है, क्योंकि इसने औद्योगिक क्रांति के दौरान ही अपने उद्योगों को विकसित कर लिया था। अपना विकास करने के लिए इसने दुनिया के एक-चौथाई देशों को कब्जे में किया और दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया।
अमेरिका ने भी 1776 में ब्रिटिश शासकों को निकाल भगाने के बाद अपना ध्यान मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने पर केंद्रित किया। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक यह एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका था। पहले विश्वयुद्ध ने इसे सैन्यशक्ति तैयार करने का मौका दिया और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह दुनिया की सबसे मजबूत सैन्य व आर्थिक शक्ति बना।
अमेरिका के साथ ही सोवियत संघ ने भी महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया था, क्योंकि यह विश्व राजनीति को प्रभावित करने में सक्षम हो गया था। लेकिन 90 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद वह एक महाशक्ति नहीं रह गया। वह दर्जा उसने इसलिए खो दिया था कि उसने अपनी आर्थिक शक्ति की मजबूती पर ध्यान नहीं दिया था।
उसने सिर्फ सैन्य शक्ति बढ़ाने की असंतुलित नीति लागू की। अस्सी के दशक तक तो इस रणनीति ने काम किया, लेकिन उसके बाद यह नीति असफल हो गई और नतीजे में सोवियत व्यवस्था विखंडित हो गई।
1980 के दशक में सोवियत अर्थव्यवस्था इस हद तक पतित हो चुकी थी कि वह सोवियत सैन्य तंत्र को ही नहीं संभाल पा रही थी। तब से अमेरिका अपनी सारी कमजोरियों और समस्याओं के बावजूद दुनिया की अकेली महाशक्ति बना हुआ है। इसके पास एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति है, एक विस्तृत सैन्य शक्ति है और दुनिया के देशों पर उसका जबर्दस्त राजनीतिक प्रभाव है।
आर्थिक शक्ति सबसे ज्यादा जरूरी है ताकि यह अपने आर्थिक साधनों से दूसरे देशों को प्रभावित कर सके। आर्थिक शक्ति हासिल करने के लिए उसका औद्योगिक आधार विस्तृत और मजबूत होना जरूरी है।
साथ ही बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन होने चाहिए, बड़ी पूँजी होना चाहिए ताकि दूसरे देशों में भी उसका निवेश किया जा सके, उसके पास अधुनातन प्रौद्योगिकी हो, भौगोलिक रूप से सही रणनीतिक जगहों पर उसकी पहुँच हो और उसके पास स्वास्थ्य व शिक्षा की एक विकसित प्रणाली हो।
सोवियत संघ के पतन के बाद जो दो देश इस जगह को भर सकते थे, वे थे भारत और चीन। भारत, चीन से बेहतर स्थिति में था क्योंकि उस समय भारत की अर्थव्यवस्था चीन से आगे थी लेकिन भारत राजनीति के बियाबान में भटक गया, हालाँकि इसकी अर्थव्यवस्था ने जल्द ही गति पकड़ ली लेकिन समग्र आर्थिक विकास में चीन आगे निकल गया।
उत्तर और पूर्व में उग्रवाद पर काबू पाने में राज्य और केंद्र की सरकारों का ध्यान ज्यादा रहा। और वे आतंकवाद और आर्थिक मोर्चे पर भी गैरजिम्मेदाराना रुख दिखाती रहीं।
इसके विपरीत चीन ने अपना पूरा ध्यान आर्थिक विकास पर लगाया और सैन्य शक्ति को बढ़ाया। आर्थिक विकास को लेकर उसका एजेंडा बहुत साफ रहा है। उसने सस्ते उत्पादों के जरिए दुनिया के बाजारों में प्रवेश किया और देश के हित के लिए विदेशी पूँजी आने के लिए अपने रास्ते खोल दिए। एक मजबूत ढाँचा खड़ा करने में वह सफल रहा।
इस प्रक्रिया में उसने विदेशी मुद्रा और खासकर अमेरिकी डॉलर का इतना बड़ा भंडार खड़ा कर लिया कि वह अमेरिकी सिक्योरिटीज में निवेश करने लगा और अमेरिका को कर्ज देने वालों में वह सबसे आगे हो गया।
भारत के पास भी वे सुविधाएँ थीं, जो चीन के पास थीं-एक बड़ी और बढ़ती युवा जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता और बहुत बड़ी संख्या में विदेशी उद्यमी भी यहाँ निवेश करने में दिलचस्पी ले रहे थे। लेकिन महाशक्ति बनने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जरूरतों को भारत पूरा नहीं कर सका। एक मजबूत ढाँचा बनाने में वह नाकाम रहा।
औद्योगिक और कृषि के विकास के लिए जरूरी सड़कें, रेल सुविधाएँ, विमान सेवाएँ और जहाजरानी, ऊर्जा, पानी आदि पर्याप्त नहीं रहे। बिजली की भारी कमी के कारण उद्योग महीने में कई-कई दिन के लिए बंद रहने लगे जिससे उत्पादन में बहुत कमी आई। भारत अपने को विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में नाकाम रहा।
भारत का बुनियादी ढाँचा (बिजली, सड़कें, बंदरगाह और हवाई अड्डे) हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हैं। इसकी वजह से हमारा औद्योगिक और कृषि विकास रुक गया। प्रतिबंधात्मक श्रम कानूनों के कारण ऐसे उत्पादों के निर्यात में जिनमें ज्यादा श्रमशक्ति की जरूरत होती है, वह चीन के मुकाबले पिछड़ गया। अफसरशाही अपनी औपचारिक सीमाओं में बँधी होने के कारण आगे नहीं देख पा रही थी।
इससे उद्योगों और ढाँचागत निवेश प्रभावित हुआ और विकास में बाधा आई। कृषि क्षेत्र के प्रति उदासीनता बरतने से इसमें निवेश वास्तव में नकारात्मक हो गया। आज भी भारत की कृषि मानसून पर निर्भर है। और यह कृषि के मामले में साठ साल पीछे की हालत में है।
अगर भारत महाशक्ति बनना चाहता है तो इसे आर्थिक रूप से ताकतवर बनना होगा। तभी यह अपने को सैन्य शक्ति या सामरिक रूप से प्रभावकारी बना सकता है। तभी यह अपने निकट के और दूर के क्षेत्रों में अपना प्रभाव पैदा करने में सक्षम होगा।
नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे अपने कमजोर पड़ोसियों को प्रभावित करने में भी भारत असफल रहा है। आज सारी दुनिया में कहा जा रहा है कि अगली महाशक्ति भारत नहीं, चीन है। चीन तरक्की की राह पर है। पिछले आठ सालों में विश्व के आर्थिक उत्पादन में चीन का हिस्सा 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है।
आज पूरी दुनिया को यकीन है कि आने वाले 20 सालों में चीन अगली महाशक्ति होगा। महाशक्ति बनने के सभी लक्षण वह देश दिखा रहा है। 2003 में चीन ने दुनिया का 70 प्रतिशत तेल, चौथाई इस्पात और अल्युमीनियम, विश्व के संपूर्ण लौह अयस्क और कोयले का एक तिहाई हिस्सा और सीमेंट का 40 प्रतिशत भाग खरीदा औऱ अपने को विश्व का अग्रणी देश साबित किया।
अपनी पुस्तक 'इंडिया, इमर्जिंग पावर' में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ स्टीफन पी. कोहेन भारत के महाशक्ति बनने के संदर्भ में लिखते हैं कि सैन्य शक्ति समेत हर तरह की शक्ति आर्थिक मजबूती से ही हासिल होती है।
विश्व के इतिहास का विश्लेषण करें तो यह बात सही भी है। दूसरे विश्वयुद्ध से पहले तक ब्रिटेन एक बड़ी महाशक्ति रहा है, क्योंकि इसने औद्योगिक क्रांति के दौरान ही अपने उद्योगों को विकसित कर लिया था। अपना विकास करने के लिए इसने दुनिया के एक-चौथाई देशों को कब्जे में किया और दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया।
अमेरिका ने भी 1776 में ब्रिटिश शासकों को निकाल भगाने के बाद अपना ध्यान मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने पर केंद्रित किया। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक यह एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका था। पहले विश्वयुद्ध ने इसे सैन्यशक्ति तैयार करने का मौका दिया और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह दुनिया की सबसे मजबूत सैन्य व आर्थिक शक्ति बना।
अमेरिका के साथ ही सोवियत संघ ने भी महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया था, क्योंकि यह विश्व राजनीति को प्रभावित करने में सक्षम हो गया था। लेकिन 90 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद वह एक महाशक्ति नहीं रह गया। वह दर्जा उसने इसलिए खो दिया था कि उसने अपनी आर्थिक शक्ति की मजबूती पर ध्यान नहीं दिया था।
उसने सिर्फ सैन्य शक्ति बढ़ाने की असंतुलित नीति लागू की। अस्सी के दशक तक तो इस रणनीति ने काम किया, लेकिन उसके बाद यह नीति असफल हो गई और नतीजे में सोवियत व्यवस्था विखंडित हो गई।
1980 के दशक में सोवियत अर्थव्यवस्था इस हद तक पतित हो चुकी थी कि वह सोवियत सैन्य तंत्र को ही नहीं संभाल पा रही थी। तब से अमेरिका अपनी सारी कमजोरियों और समस्याओं के बावजूद दुनिया की अकेली महाशक्ति बना हुआ है। इसके पास एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति है, एक विस्तृत सैन्य शक्ति है और दुनिया के देशों पर उसका जबर्दस्त राजनीतिक प्रभाव है।
आर्थिक शक्ति सबसे ज्यादा जरूरी है ताकि यह अपने आर्थिक साधनों से दूसरे देशों को प्रभावित कर सके। आर्थिक शक्ति हासिल करने के लिए उसका औद्योगिक आधार विस्तृत और मजबूत होना जरूरी है।
साथ ही बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन होने चाहिए, बड़ी पूँजी होना चाहिए ताकि दूसरे देशों में भी उसका निवेश किया जा सके, उसके पास अधुनातन प्रौद्योगिकी हो, भौगोलिक रूप से सही रणनीतिक जगहों पर उसकी पहुँच हो और उसके पास स्वास्थ्य व शिक्षा की एक विकसित प्रणाली हो।
सोवियत संघ के पतन के बाद जो दो देश इस जगह को भर सकते थे, वे थे भारत और चीन। भारत, चीन से बेहतर स्थिति में था क्योंकि उस समय भारत की अर्थव्यवस्था चीन से आगे थी लेकिन भारत राजनीति के बियाबान में भटक गया, हालाँकि इसकी अर्थव्यवस्था ने जल्द ही गति पकड़ ली लेकिन समग्र आर्थिक विकास में चीन आगे निकल गया।
उत्तर और पूर्व में उग्रवाद पर काबू पाने में राज्य और केंद्र की सरकारों का ध्यान ज्यादा रहा। और वे आतंकवाद और आर्थिक मोर्चे पर भी गैरजिम्मेदाराना रुख दिखाती रहीं।
इसके विपरीत चीन ने अपना पूरा ध्यान आर्थिक विकास पर लगाया और सैन्य शक्ति को बढ़ाया। आर्थिक विकास को लेकर उसका एजेंडा बहुत साफ रहा है। उसने सस्ते उत्पादों के जरिए दुनिया के बाजारों में प्रवेश किया और देश के हित के लिए विदेशी पूँजी आने के लिए अपने रास्ते खोल दिए। एक मजबूत ढाँचा खड़ा करने में वह सफल रहा।
इस प्रक्रिया में उसने विदेशी मुद्रा और खासकर अमेरिकी डॉलर का इतना बड़ा भंडार खड़ा कर लिया कि वह अमेरिकी सिक्योरिटीज में निवेश करने लगा और अमेरिका को कर्ज देने वालों में वह सबसे आगे हो गया।
भारत के पास भी वे सुविधाएँ थीं, जो चीन के पास थीं-एक बड़ी और बढ़ती युवा जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता और बहुत बड़ी संख्या में विदेशी उद्यमी भी यहाँ निवेश करने में दिलचस्पी ले रहे थे। लेकिन महाशक्ति बनने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जरूरतों को भारत पूरा नहीं कर सका। एक मजबूत ढाँचा बनाने में वह नाकाम रहा।
औद्योगिक और कृषि के विकास के लिए जरूरी सड़कें, रेल सुविधाएँ, विमान सेवाएँ और जहाजरानी, ऊर्जा, पानी आदि पर्याप्त नहीं रहे। बिजली की भारी कमी के कारण उद्योग महीने में कई-कई दिन के लिए बंद रहने लगे जिससे उत्पादन में बहुत कमी आई। भारत अपने को विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में नाकाम रहा।
भारत का बुनियादी ढाँचा (बिजली, सड़कें, बंदरगाह और हवाई अड्डे) हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हैं। इसकी वजह से हमारा औद्योगिक और कृषि विकास रुक गया। प्रतिबंधात्मक श्रम कानूनों के कारण ऐसे उत्पादों के निर्यात में जिनमें ज्यादा श्रमशक्ति की जरूरत होती है, वह चीन के मुकाबले पिछड़ गया। अफसरशाही अपनी औपचारिक सीमाओं में बँधी होने के कारण आगे नहीं देख पा रही थी।
इससे उद्योगों और ढाँचागत निवेश प्रभावित हुआ और विकास में बाधा आई। कृषि क्षेत्र के प्रति उदासीनता बरतने से इसमें निवेश वास्तव में नकारात्मक हो गया। आज भी भारत की कृषि मानसून पर निर्भर है। और यह कृषि के मामले में साठ साल पीछे की हालत में है।
अगर भारत महाशक्ति बनना चाहता है तो इसे आर्थिक रूप से ताकतवर बनना होगा। तभी यह अपने को सैन्य शक्ति या सामरिक रूप से प्रभावकारी बना सकता है। तभी यह अपने निकट के और दूर के क्षेत्रों में अपना प्रभाव पैदा करने में सक्षम होगा।
नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे अपने कमजोर पड़ोसियों को प्रभावित करने में भी भारत असफल रहा है। आज सारी दुनिया में कहा जा रहा है कि अगली महाशक्ति भारत नहीं, चीन है। चीन तरक्की की राह पर है। पिछले आठ सालों में विश्व के आर्थिक उत्पादन में चीन का हिस्सा 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है।
आज पूरी दुनिया को यकीन है कि आने वाले 20 सालों में चीन अगली महाशक्ति होगा। महाशक्ति बनने के सभी लक्षण वह देश दिखा रहा है। 2003 में चीन ने दुनिया का 70 प्रतिशत तेल, चौथाई इस्पात और अल्युमीनियम, विश्व के संपूर्ण लौह अयस्क और कोयले का एक तिहाई हिस्सा और सीमेंट का 40 प्रतिशत भाग खरीदा औऱ अपने को विश्व का अग्रणी देश साबित किया।
Monday, April 26, 2010
दर्दनाशक 'दवा' से खत्म होते गिद्ध
संदीपसिंह सिसोदिया
प्रकृति ने हर प्राणी को एक नियम के तहत बनाया है, हर प्राणी को एक जिम्मेदारी दी गई है। प्रकृति के इस चक्र में साफ-सफाई का काम करने वाले गिद्धों की संख्या पिछले एक दशकों में एकाएक घट गई है।
लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए भारत में सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। पक्षी संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 14 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं।
इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रूप में एक दवा डायक्लोफेनाक दी जाती है और इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो उसका माँस खाने से गिद्ध मर जाते हैं।
भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफेनाक के अवशेष मिले हैं। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इस दवा के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो उनका माँस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचता है, जिससे वे मौत का शिकार हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से भारत में गिद्धों की संख्या तेजी से कम हो रही है।
साथ ही शहरी क्षेत्रों में बढ़ता प्रदूषण, कटते वृक्षों से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ती की ओर धकेल रही है। वैसे भी भारतीय समाज में गिद्धों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, मरे हुए प्राणियों का माँस नोचने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली कई बिमारियों की रोकथाम में सहायता कर संतुलन बैठाते हैं।
ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रूप से कम हुई हैं।
उनका कहना है हालाँकि अब भारत में डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन भोजन चक्र से इसका असर खत्म होने में काफी वक्त लगेगा।
गौरतलब है की टनों की संख्या में यह दवा गाँव-शहरों में उपलब्ध है। निरक्षरता और इस सम्बन्ध में कोई समुचित जानकारी नहीं होने से इस पर लगाए गए प्रतिबंध इतनी जल्दी असरदार साबित होंगे इसमें संदेह है।
भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा के अंतर्गत भी ऐसी दवाइयों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की माँग की गई है, जिनसे किसी वन्य प्रजाति को नुकसान हो।
रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या सिर्फ गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। कभी राजस्थान व मध्यप्रदेश में भी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हों। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में गिरावट आई है।
इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, गिद्ध जोड़े साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देते हैं।।
भारत में कभी गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पायी जाती थीं। ये हैं बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम एवं व्हाइट बैक्ड। इनमें से चार प्रवासी किस्म की हैं।
पर्यावरण में गिद्धों की भूमिका : पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है। देखा जाए तो सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को खा कर देखा जाए तो धरती पर पड़ी गंदगी को खत्म करते रहे हैं। इससे कई बिमारियाँ व संक्रमण की रोकथाम होती है। प्राकृतिक रूप से भोजन चक्र में गिद्धों की भूमिका अहम रही है। खाद्य श्रृंखला में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
संरक्षण के लिए उठाए गए कदम : पशुओं के इलाज के दौरान उन्हें दी जाने वाली दर्द निवारक दवा डायक्लोफेनिक ही गिद्धों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, यह बात आज से करीब दो दशक पहले ही उजागर हो गई थी। डायक्लोफेनिक से गिद्धों की मौत होने की जानकारी करीब 20 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन तब से लेकर आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूँढ़ा नहीं जा सका है।
भारत सरकार भी इस संबध में हुए सर्वेक्षणों की रिपोर्ट आने के बाद मान गई कि इस दवाई के कारण ही गिद्धों की मौत हो रही है| नतीजतन भारत सरकार से संबद्ध नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ ने डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने स्वीकार कर डायक्लोफेनाक की जगह दूसरी दवाइयों के उपयोग को मंजूरी दे दी।
गाँवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में यह दवा जानवरों के लिए अभी भी धड़ल्ले से उपयोग में लाई जा रही है, जिससे गिद्धों को हाल में तो कोई राहत मिलती नहीं दिखती।
प्रकृति ने हर प्राणी को एक नियम के तहत बनाया है, हर प्राणी को एक जिम्मेदारी दी गई है। प्रकृति के इस चक्र में साफ-सफाई का काम करने वाले गिद्धों की संख्या पिछले एक दशकों में एकाएक घट गई है।
लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए भारत में सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। पक्षी संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 14 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं।
इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रूप में एक दवा डायक्लोफेनाक दी जाती है और इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो उसका माँस खाने से गिद्ध मर जाते हैं।
भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफेनाक के अवशेष मिले हैं। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इस दवा के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो उनका माँस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचता है, जिससे वे मौत का शिकार हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से भारत में गिद्धों की संख्या तेजी से कम हो रही है।
साथ ही शहरी क्षेत्रों में बढ़ता प्रदूषण, कटते वृक्षों से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ती की ओर धकेल रही है। वैसे भी भारतीय समाज में गिद्धों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, मरे हुए प्राणियों का माँस नोचने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली कई बिमारियों की रोकथाम में सहायता कर संतुलन बैठाते हैं।
ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रूप से कम हुई हैं।
उनका कहना है हालाँकि अब भारत में डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन भोजन चक्र से इसका असर खत्म होने में काफी वक्त लगेगा।
गौरतलब है की टनों की संख्या में यह दवा गाँव-शहरों में उपलब्ध है। निरक्षरता और इस सम्बन्ध में कोई समुचित जानकारी नहीं होने से इस पर लगाए गए प्रतिबंध इतनी जल्दी असरदार साबित होंगे इसमें संदेह है।
भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा के अंतर्गत भी ऐसी दवाइयों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की माँग की गई है, जिनसे किसी वन्य प्रजाति को नुकसान हो।
रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या सिर्फ गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। कभी राजस्थान व मध्यप्रदेश में भी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हों। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में गिरावट आई है।
इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, गिद्ध जोड़े साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देते हैं।।
भारत में कभी गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पायी जाती थीं। ये हैं बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम एवं व्हाइट बैक्ड। इनमें से चार प्रवासी किस्म की हैं।
पर्यावरण में गिद्धों की भूमिका : पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है। देखा जाए तो सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को खा कर देखा जाए तो धरती पर पड़ी गंदगी को खत्म करते रहे हैं। इससे कई बिमारियाँ व संक्रमण की रोकथाम होती है। प्राकृतिक रूप से भोजन चक्र में गिद्धों की भूमिका अहम रही है। खाद्य श्रृंखला में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
संरक्षण के लिए उठाए गए कदम : पशुओं के इलाज के दौरान उन्हें दी जाने वाली दर्द निवारक दवा डायक्लोफेनिक ही गिद्धों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, यह बात आज से करीब दो दशक पहले ही उजागर हो गई थी। डायक्लोफेनिक से गिद्धों की मौत होने की जानकारी करीब 20 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन तब से लेकर आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूँढ़ा नहीं जा सका है।
भारत सरकार भी इस संबध में हुए सर्वेक्षणों की रिपोर्ट आने के बाद मान गई कि इस दवाई के कारण ही गिद्धों की मौत हो रही है| नतीजतन भारत सरकार से संबद्ध नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ ने डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने स्वीकार कर डायक्लोफेनाक की जगह दूसरी दवाइयों के उपयोग को मंजूरी दे दी।
गाँवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में यह दवा जानवरों के लिए अभी भी धड़ल्ले से उपयोग में लाई जा रही है, जिससे गिद्धों को हाल में तो कोई राहत मिलती नहीं दिखती।
Thursday, April 22, 2010
क्या भारत देश को फिर गुलाम होने का डर?
भारत देश, खुशहाल देश, मनमोहक देश यदि ऐसे देश को फिर से गुलामी जंजीरों में कोई जकड़ लेता है तो क्या ये ऐसा कहने लायक रहेगा। शायद नहीं? भारत देश को आज के समय में अपने ही पड़ौसी देशों से खतरा महसूर हो रहा है क्योंकि एक ओर पाकिस्तान तो दूसरी ओर चीन।
पाकिस्तान जोकि भारत से निकाला हुआ ही एक अंग है जो कहता है कि कश्मीर हमारा है। इसलिए वह तीन बार भारत पर हमला कर चुका है और हमेशा उसे मुहं की खाने की आदत पड़ चुकी है। वह भारत को कट्टर शत्रु मानता है। वह पिछले काफी समय से हमला क्यों नहीं कर रहा है? क्या वह अमेरिका से डरता है शायद नहीं भी और शायद डरता भी हो। तो दूसरी ओर बसे चीन देश का क्या जोकि किसी से डरता भी नहीं है और जहां चाहे वहां कुछ भी कर बैठता है। पाकिस्तान पर तो अमेरिका ने नकेल शायद लगा ही रखी है, लेकिन अमेरिका ने चीन पर नकेल क्यों नहीं कसी। वह सरेआम परमाणु हथियार बनाता है और सप्लाई भी करता है। वो भी किसे शायद पाकिस्तान को ही? यदि ऐसा है तो अमेरिका तो क्या कोई भी भारत को गुलाम होने से नहीं रोक सकता है।
सुनने में आया है कि हिमालय पर्वत की श्रेणियों में जो माउंट ऐवरेस्ट नामक सर्वोच्च ऊंची चोटी है वहां करीब २०० किलोमीटर दूसरी पर एक लड़ाकू एयरपोर्ट स्थापित करने जा रहा है। यदि उसका इरादा भारत से जंग छेडऩे का है तो शायद भारत को इस बारे में कुछ भी सोचने का वह मौका ही क्यों देगा। सीधे हवाई हमलों से ही शुरूआत होगी। इस बात का फायदा शायद पाकिस्तान भी उठाएगा एक ओर तो पाक तो दूसरी ओर चीन दोनों मिलकर भारत को कहीं आधा-आधा न बांट लें इसके लिए सरकार ने क्या सोचा है? शायद कुछ भी नहीं? क्यों सरकार इस वक्त बीजी है वो भी अपने भारत देश में ही पैदा हुए आतंकवादियों से निपटने को।
यदि भारत सरकार देश में ही सुदृढ़ नहीं है तो बाहर वाले तो इसका फायदा उठाने में देरी नहीं करेंगे। यदि कई दिनों से भूखे, प्यारे को रोटी और पानी मिल रहा हो वो भी सामने जिसे रोकने वाला कोई भी ना हो तो वह क्या करेगा। सोचेगा नहीं सीधा खाने को ही दौड़ेगा। सरकार को इस विषय में गहनता से सौचना चाहिए और जिस देश का आशीर्वाद लगभग सभी देशों पर है उससे भी गहनता से विचार करना चाहिए।
पाकिस्तान जोकि भारत से निकाला हुआ ही एक अंग है जो कहता है कि कश्मीर हमारा है। इसलिए वह तीन बार भारत पर हमला कर चुका है और हमेशा उसे मुहं की खाने की आदत पड़ चुकी है। वह भारत को कट्टर शत्रु मानता है। वह पिछले काफी समय से हमला क्यों नहीं कर रहा है? क्या वह अमेरिका से डरता है शायद नहीं भी और शायद डरता भी हो। तो दूसरी ओर बसे चीन देश का क्या जोकि किसी से डरता भी नहीं है और जहां चाहे वहां कुछ भी कर बैठता है। पाकिस्तान पर तो अमेरिका ने नकेल शायद लगा ही रखी है, लेकिन अमेरिका ने चीन पर नकेल क्यों नहीं कसी। वह सरेआम परमाणु हथियार बनाता है और सप्लाई भी करता है। वो भी किसे शायद पाकिस्तान को ही? यदि ऐसा है तो अमेरिका तो क्या कोई भी भारत को गुलाम होने से नहीं रोक सकता है।
सुनने में आया है कि हिमालय पर्वत की श्रेणियों में जो माउंट ऐवरेस्ट नामक सर्वोच्च ऊंची चोटी है वहां करीब २०० किलोमीटर दूसरी पर एक लड़ाकू एयरपोर्ट स्थापित करने जा रहा है। यदि उसका इरादा भारत से जंग छेडऩे का है तो शायद भारत को इस बारे में कुछ भी सोचने का वह मौका ही क्यों देगा। सीधे हवाई हमलों से ही शुरूआत होगी। इस बात का फायदा शायद पाकिस्तान भी उठाएगा एक ओर तो पाक तो दूसरी ओर चीन दोनों मिलकर भारत को कहीं आधा-आधा न बांट लें इसके लिए सरकार ने क्या सोचा है? शायद कुछ भी नहीं? क्यों सरकार इस वक्त बीजी है वो भी अपने भारत देश में ही पैदा हुए आतंकवादियों से निपटने को।
यदि भारत सरकार देश में ही सुदृढ़ नहीं है तो बाहर वाले तो इसका फायदा उठाने में देरी नहीं करेंगे। यदि कई दिनों से भूखे, प्यारे को रोटी और पानी मिल रहा हो वो भी सामने जिसे रोकने वाला कोई भी ना हो तो वह क्या करेगा। सोचेगा नहीं सीधा खाने को ही दौड़ेगा। सरकार को इस विषय में गहनता से सौचना चाहिए और जिस देश का आशीर्वाद लगभग सभी देशों पर है उससे भी गहनता से विचार करना चाहिए।
देश पर मर मिटने वाले की संख्या यदि कम तो फिर...
भारत देश आज विकाशील देश है, लेकिन इस देश पर यदि कोई आंच आती है तो इस पर मर मिटने वाले युवाओं की संख्या आज कम क्यों होती जा रही है। क्या देश में भ्रष्टाचार को बोलबाला पहले से कहीं अधिक हो गया है और युवाओं के दिलों में जो जज्बा देश में लिए होता है था शायद वो आज कम हो गया है। कम ही क्यों लगभग समाप्त हो चुका है। आज का युवा देश के लिए कम और अपने लिए अधिक सोचने लग गया है। यदि ऐसा है तो आने वाले समय में देश पर मर मिटने वालों की संख्या ही नहीं बचेगी और भारत देश फिर किसी इंग्लैंड का गुलाब होकर रह जाएगा। जब देश को आजाद कराने के लिए वो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, जवाहर लाल नेहरू आदि जैसे नेता या फिर क्रांतिकारी नहीं पैदा होंगे तो शायद भारत देश का नक्शा ही कुछ ओर होगा।
इस विषय पर सरकार सोचे भी तो क्या सोचेगी कि देश से पहले भ्रष्टाचारियों को समाप्त किया जाए। या फिर देश के प्रति सोचा जाए? आज का युवा अपने लिए इसलिए सोचने लगा है इसका कारण स्वयं सरकार के सिवाय कोई ओर है ही नहीं। क्योंकि सरकार के नुमाईदों में ही वो चेहरे छूपे बैठे हैं जोकि भ्रष्टाचार को एक पीढ़ी की भांति फैला रहे हैं। मानों हर रोज एक नई पीढ़ी जन्म ले रही हो। देश पर मर मिटने वालों की संख्या इसलिए ही शायद कम हो चुकी है। यदि कोई आम देशभक्त अपने दिल में देश के लिए मर मिटने का जज्बा लेकर भर्ती में जाता है तो उसे दूसरों को खिलाने के लिए घुस नहीं होती चाहे वह हर क्षेत्र में अव्वल रहा हो, लेकिन घुस की प्यास को बुझाने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं होगा तो उसे किसी न किसी कारण का थप्पा लगाकर निकाल दिया जाएगा।
मेरा यह मानना है कि जिस प्रकार सरकार महंगाई को आज तक नहीं रोक पाई हो यदि उसी की तर्ज पर महंगाई के स्थान पर देशभक्ति को जोड़ दिया जाएगा तो क्या होगा? क्या इस देश का नक्शा आज कुछ और नहीं होता या फिर कुछ और? आज के समय में मां देश भक्तों को पैदा तो करती हैं, लेकिन यदि वह गरीब, पिछड़ा वर्ग होता है तो उसके पास पैसे कहां से आएंगे। वह भूखा तो मरेगा नहीं इसलिए चोरी करेगा, डाका डालेगा और किसी न किसी तरह से अपना पेट पालेगा। क्या यही है इस विकाशील देश का भविष्य? यदि यही है इस विकाशील देश का भविष्य तो दिक्कार है ऐसे देश की सरकार और सिस्टम पर। फिर तो यह देश मात्र विकाशील नाम से विकाशील ही रहेगा कभी शायद विकासित ही नहीं हो पाएगा?
सरकार हर विषय पर बैठकें आयोजित करती है, पैसों को पानी की तरह से बहाती है, हर विषय में कड़े तेवर अपनाए जाते हैं, लेकिन इस भारत देश की सुरक्षा के बारे में शायद कुछ नाम मात्र भी नहीं सोचा जाता है। यदि कोई देश अपने देश में कुछ आतंवादियों को भेजकर हमला करवा देता है तो यहां सिस्टम के अनुसार भारत देश के रक्षा मंत्री को इस्तीफा देना पड़ता है और दूसरे रक्षा मंत्री को नियुक्त कर दिया जाता है। यदि दूसरे रक्षा मंत्री के होते हुए ऐसा होता है तो फिर तीसरा, चौथा फिर....यह सब शायद पहले से ही चलता आ रहा है।
दूसरी ओर भारत में फौज, कमांडो, पुलिस, सीबीआई, सीआईडी, आईबी देश के लिए रक्षक के नाम पर काम करते हैं। इसमें अत्यधिक भारत में फौज को त्वजो दी जाती है ऐसा क्यों? क्यों कमांडो, पुलिस, सीबीआई, सीआईडी, आईबी देश के लिए रक्षक केवल नाम मात्र ही हैं ऐसा भी क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि आज सीबीआई जिसे केस सुलझाने के लिए सर्वोच्च नाम से पूकारा जाता है कि केस का फैंसला सीबीआई को सौंप दो। एक बात मेरी समझा में आज तक नहीं आई जब सीबीआई भी भ्रष्टाचारियों से भरी हो या फिर बड़े-बड़े नेताओं के चलते हुए केस की छानबीन में यदि दस वर्ष भी लग जाते हैं तो इस देश में उस केस को १० साल तक याद रखने वाला कोई नहीं रहता। क्या सरकार को फौज, कमांडो की भर्ती के लिए अलग से स्टाफ देना चाहिए यदि ऐसा संभव नहीं है तो देश को आतंवादियों की जानकारी, देश में घुसकर हमला करने के बारे में पहले जानकारी, मौके पर फैसला करने का हक देने के लिए एक अलग से किसी फार्स का नाम रखकर उसमें देश के युवाओं को बकायदा कमांडो की टे्रनिंग देकर भर्ती करना चाहिए जिसमें भ्रष्टाचार का नामों निशान तक ना हो। जिसके नाम से कटिले तेवर दिखाने वाले विदेशी देश, देश में रहने वाले भ्रष्टाचारी भी थर..थर.. कांपने लगा जाएं।
इस विषय पर सरकार सोचे भी तो क्या सोचेगी कि देश से पहले भ्रष्टाचारियों को समाप्त किया जाए। या फिर देश के प्रति सोचा जाए? आज का युवा अपने लिए इसलिए सोचने लगा है इसका कारण स्वयं सरकार के सिवाय कोई ओर है ही नहीं। क्योंकि सरकार के नुमाईदों में ही वो चेहरे छूपे बैठे हैं जोकि भ्रष्टाचार को एक पीढ़ी की भांति फैला रहे हैं। मानों हर रोज एक नई पीढ़ी जन्म ले रही हो। देश पर मर मिटने वालों की संख्या इसलिए ही शायद कम हो चुकी है। यदि कोई आम देशभक्त अपने दिल में देश के लिए मर मिटने का जज्बा लेकर भर्ती में जाता है तो उसे दूसरों को खिलाने के लिए घुस नहीं होती चाहे वह हर क्षेत्र में अव्वल रहा हो, लेकिन घुस की प्यास को बुझाने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं होगा तो उसे किसी न किसी कारण का थप्पा लगाकर निकाल दिया जाएगा।
मेरा यह मानना है कि जिस प्रकार सरकार महंगाई को आज तक नहीं रोक पाई हो यदि उसी की तर्ज पर महंगाई के स्थान पर देशभक्ति को जोड़ दिया जाएगा तो क्या होगा? क्या इस देश का नक्शा आज कुछ और नहीं होता या फिर कुछ और? आज के समय में मां देश भक्तों को पैदा तो करती हैं, लेकिन यदि वह गरीब, पिछड़ा वर्ग होता है तो उसके पास पैसे कहां से आएंगे। वह भूखा तो मरेगा नहीं इसलिए चोरी करेगा, डाका डालेगा और किसी न किसी तरह से अपना पेट पालेगा। क्या यही है इस विकाशील देश का भविष्य? यदि यही है इस विकाशील देश का भविष्य तो दिक्कार है ऐसे देश की सरकार और सिस्टम पर। फिर तो यह देश मात्र विकाशील नाम से विकाशील ही रहेगा कभी शायद विकासित ही नहीं हो पाएगा?
सरकार हर विषय पर बैठकें आयोजित करती है, पैसों को पानी की तरह से बहाती है, हर विषय में कड़े तेवर अपनाए जाते हैं, लेकिन इस भारत देश की सुरक्षा के बारे में शायद कुछ नाम मात्र भी नहीं सोचा जाता है। यदि कोई देश अपने देश में कुछ आतंवादियों को भेजकर हमला करवा देता है तो यहां सिस्टम के अनुसार भारत देश के रक्षा मंत्री को इस्तीफा देना पड़ता है और दूसरे रक्षा मंत्री को नियुक्त कर दिया जाता है। यदि दूसरे रक्षा मंत्री के होते हुए ऐसा होता है तो फिर तीसरा, चौथा फिर....यह सब शायद पहले से ही चलता आ रहा है।
दूसरी ओर भारत में फौज, कमांडो, पुलिस, सीबीआई, सीआईडी, आईबी देश के लिए रक्षक के नाम पर काम करते हैं। इसमें अत्यधिक भारत में फौज को त्वजो दी जाती है ऐसा क्यों? क्यों कमांडो, पुलिस, सीबीआई, सीआईडी, आईबी देश के लिए रक्षक केवल नाम मात्र ही हैं ऐसा भी क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि आज सीबीआई जिसे केस सुलझाने के लिए सर्वोच्च नाम से पूकारा जाता है कि केस का फैंसला सीबीआई को सौंप दो। एक बात मेरी समझा में आज तक नहीं आई जब सीबीआई भी भ्रष्टाचारियों से भरी हो या फिर बड़े-बड़े नेताओं के चलते हुए केस की छानबीन में यदि दस वर्ष भी लग जाते हैं तो इस देश में उस केस को १० साल तक याद रखने वाला कोई नहीं रहता। क्या सरकार को फौज, कमांडो की भर्ती के लिए अलग से स्टाफ देना चाहिए यदि ऐसा संभव नहीं है तो देश को आतंवादियों की जानकारी, देश में घुसकर हमला करने के बारे में पहले जानकारी, मौके पर फैसला करने का हक देने के लिए एक अलग से किसी फार्स का नाम रखकर उसमें देश के युवाओं को बकायदा कमांडो की टे्रनिंग देकर भर्ती करना चाहिए जिसमें भ्रष्टाचार का नामों निशान तक ना हो। जिसके नाम से कटिले तेवर दिखाने वाले विदेशी देश, देश में रहने वाले भ्रष्टाचारी भी थर..थर.. कांपने लगा जाएं।
घट रहे जल-जंगल-जमीन
ज्वालामुखी से निकले धूल के गुबार ने ब्रिटेन व योरप में हवाई यातायात ठप कर दिया। इससे करोड़ों का नुकसान हो गया। चीन में कुछ समय पहले भूकम्प आया था, जिसमें 1700 लोग मारे गए। ये दोनों घटनाएँ हाल-फिलहाल की हैं। इसके पहले भी अगर पाँच से दस वर्ष की घटनाओं को देखा जाए तो भूकम्प व प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं की संख्या में तेजी आ रही है।
धरती का बुखार तेजी से बढ़ रहा है। वैज्ञानिक अब इस बात को लेकर अध्ययन कर रहे हैं कि ज्वालामुखी के कारण जो धूल और धुआँ वातावरण में फैल रहा है और उसका मौसम के बदलाव से कितना संबंध है? जिस तेजी से धरती का तापमान भी बढ़ रहा है उससे जंगल, जमीन और जल पर भी असर पड़ा है। पृथ्वी का अस्तित्व ही इन तीनों से जुड़ा है।
दुनियाभर में अब पर्यावरण और पृथ्वी दिवस को लेकर काफी जागरूकता आ गई है लेकिन इस जागरूकता का फायदा कितना हो रहा है, इसका आकलन अभी तक नहीं हो पा रहा है।
हम नजरअंदाज करने लगे : पर्यावरण बदलाव के कारण तापमान बढ़ रहा है। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेंगे और इससे दुनिया के कई शहर डूब जाएँगे! इस प्रकार की रिपोर्ट और अन्य पर्यावरण की रिपोर्टें मीडिया में कुछ वर्षों से आ रही हैं। यह इतनी संख्या में आ रही हैं कि हमारा ध्यान इनकी ओर सहसा नहीं जाता। शायद, हम इन्हें नजरअंदाज करना सीख गए हैं।
इन रिपोर्टों का उद्देश्य आम जनता को जागरूक करना होता है, परंतु हम यह मान बैठे हैं कि इनसान सब कुछ कर सकता है, यहाँ तक कि धरती के पर्यावरण को भी बदल सकता है। लेकिन आइसलैंड में हुए ज्वालामुखी विस्फोट और उसके बाद आर्थिक नुकसान ने यह जता दिया है कि विकसित राष्ट्र की टेक्नोलॉजी और संसाधन कितने बौने साबित हुए।
जल, जंगल और जमीन : विश्वभर में मानव आबादी बढ़ने के कारण जंगल कम हो रहे हैं। जिसका असर पर्यावरण पर पड़ रहा है। विभिन्न गैसों के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है। तापमान बढ़ने के कारण ग्लेशियरों का पिघलना जारी है, जिससे जमीन पानी में जा रही है। तापमान बढ़ने का असर यह भी है कि कई नदियाँ केवल मौसमी नदियाँ बन कर रह जाएँगी जिससे पीने के पानी का भीषण संकट पैदा होगा!
विश्व की अर्थव्यवस्था पर असर : धरती ने कई बार चेतावनी दी, परंतु लगता है हम थोड़े समय तक ही गंभीर होते हैं। बाद में पर्यावरण जैसे मुद्दे पर सोचने का भी आलस करने लगे हैं। जिस प्रकार से प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ रही हैं उसका सीधा असर विश्व अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है।
भूकम्प, बाढ़, भूस्खलन, ज्वालामुखी, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते हम वास्तविक विकास करना भूल ही जाएँगे। हमारा अधिकांश समय और पैसा अपने आप को बनाए रखने के लिए खर्च करना होगा। आइसलैंड के ज्वालामुखी ने यह साबित कर दिया है कि हम कितनी भी आर्थिक तरक्की कर लें प्रत्येक तरक्की का आधार धरती ही है।
विशेषज्ञों की चेतावनी : लंदन की रॉयल सोसायटी ने हाल ही में बिल मेक्ग्योर के शोध पत्र को प्रकाशित किया है। इस शोध पत्र में यह कहा गया है कि भूकम्प और सुनामी तो अभी शुरुआत भर है। मौसम परिवर्तन के कारण आने वाले वर्षों में काफी गंभीर समस्याएँ खड़ी होने वाली हैं। तापमान में वृद्धि के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, हम सभी को पता है।
Monday, April 19, 2010
छोटी-सी उमर का बड़ा-सा अफेयर
दोस्तों ! जीवन में ज्यादातर मौकों पर हम असमंजस में रहते हैं। हमारा जो दिल कहता है हम यूँ तो वही करते हैं पर पूरे यकीन के साथ नहीं। हजारों सवाल हमारे मन में उठते रहते हैं जिसका जवाब हमें हमारे भीतर नहीं मिलता। जो द्वंद्व और प्रश्न हमारे अंदर उठते हैं उसके उत्तर से हम इतने संतुष्ट नहीं होते कि हम औरों को भी विश्वास दिला सकें।
जब ऐसी स्थिति होती है तो हम खुशी के पल बिताने पर भी पूरी तरह खुश नहीं हो पाते हैं। अपनी दिली ख्वाहिश पूरी होने पर भी हमें एक प्रकार का असंतोष और अधूरापन महसूस होता है।
इन हालात में खुशी के संग-संग गम का साया भी साथ-साथ चल रहा होता है। इस स्थिति के कारण हमारा ढेर सारा समय इन उलझनों के विषय में सोचने में निकल जाता है। समय की यह बर्बादी हमारे कॅरियर, शारीरिक व मानसिक सेहत के लिए सही नहीं है। खासकर तब जब हम किशोर हों। हमारे ऊपर पढ़ने और कॅरियर बनाने की जिम्मेदारी हो।
सीमा, ज्ञान, रानी, संभावना, कामरान जैसे बहुत सारे किशोरों को आज यह समस्या बेहद परेशान कर रही है। ये सभी अभी टीन एजर्स हैं और दसवीं क्लास तक भी नहीं पहुँचे हैं और इन्हें लगता है कि प्यार हो गया है। अपने साथी के साथ समय बिताना, उसका ख्याल रखना बेशक उन्हें बहुत अच्छा लगता है पर हर समय यह द्वंद्व उन्हें सताता रहता है कि क्या यह ठीक है। कहीं वे अपनी पढ़ाई, कॅरियर और माँ-बाप के साथ धोखा तो नहीं कर रहे हैं। यह प्रश्न उन्हें चैन से जीने नहीं देता है जिसके कारण वे अकसर उधेड़बुन में रहते हैं। सबसे ज्यादा जो सवाल उन्हें परेशान करता है वह यह कि यदि उन्होंने इस प्यार को अभी ठुकरा दिया तो शायद जीवनभर फिर ऐसा प्यार नसीब न हो।
टीन फ्रेंड्स, जिस भावना को सामाजिक मान्यता नहीं मिली होती है उसको महसूस करने भर से भी आप ग्लानि और असहजता महसूस करेंगे। आप सभी अभी मैच्योर नहीं हैं और प्यार जैसे गंभीर रिश्ते में पड़ने से आपको परेशानी हो सकती है। हमारे समाज में प्रेम करना आमतौर पर पाप करने के समान है। जिन्होंने अपना कॅरियर संभाल लिया है। आत्मनिर्भर हो गए हैं, उनके लिए भी प्रेम करना उतना आसान नहीं है।
जाति, धर्म, वर्ग आदि जैसी न जाने कितनी ही अड़चनें हैं जो उन्हें पग-पग पर गलत होने का अहसास कराती हैं। प्रेम जैसी खूबसूरत भावना से उन्हें वाह-वाही नहीं मिलती बल्कि नीचता का आभास कराया जाता है। आप लोग अभी समाज की नजर में बहुत छोटे हैं। आत्मनिर्भर होने में आपको वर्षों लगेंगे। हमारे समाज में जो लोग भी आत्मनिर्भर नहीं होते उनकी समझदारी पर हमेशा प्रश्न चिह्न लगा ही रहता है।
संचार क्रांति और सूचनाओं की बौछार के कारण यह संभव है कि आप किशोर होते हुए भी कई भावनाओं को समझने और विश्लेषण करने में सक्षम हों तथा मानसिक रूप से परिपक्व हों पर आपकी उम्र के कारण परिवार समाज की नजर में अभी आप बच्चे हैं। यही वजह है कि आपकी भावना को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाएगा जिसकी आपको आशंका रहती है। चूँकि इस रिश्ते के बारे में परिवार मे संवाद बनाना मुश्किल है इसलिए इसकी जटिलता और भी बढ़ जाती है।
एक बात से तो आप भी सहमत होंगे कि किशोर उम्र में कई बार मात्र आकर्षण को ही प्यार समझ लिया जाता है। केवल आकर्षण प्रेम नहीं है। प्रेम पूरे व्यक्तित्व, आपकी और उनकी सोच से जुड़ी भावना है। इस भावना का एलान चाहे अपने दिल में ही क्यों न करें, जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। किशोर दोस्तों, समझदारी और जानकारी के अलावा तजुर्बे का जीवन में बहुत महत्व है। अनुभव को यदि जीवन में ठीक से अपनी भूमिका अदा करने दिया जाए तो जिंदगी की बहुत सारी मुश्किलें कम हो जाएँगी।
सफल जिंदगी के लिए सही समय का बहुत महत्व होता है यानी कब हम क्या करते हैं यह कामयाबी की कुंजी होती है। यदि आपने अभी प्रेम नहीं किया तो पाँच वर्ष बाद भी आप प्रेम तो कर सकते हैं पर पाँच साल बाद क्या आपके लिए नौवीं या दसवीं में पढ़ना संभव होगा? आप यूँ समझें कि परीक्षा के समय आप रातभर जागकर पढ़े और ऐन परीक्षा के समय सो जाएँ तो क्या आपके ज्ञान मेहनत का फल आपको मिल पाएगा?
हम हीटर गर्मी में और एसी-कूलर जाड़े में ऑन कर लें तो हमें उससे राहत मिलेगी या तकलीफ? जवाब आपको भी पता है। वे किशोर जिनके घरों में उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है, उन्हें प्यार नहीं मिलता, घर में कोलाहल मचा रहता है, वे प्रेम में जल्दी पड़ जाते हैं।
माँ-बाप और परिवार के हालात को चुटकियों में बदला नहीं जा सकता। बेहतर है किशोर-किशोरियाँ खुद अपने मन को समझें। आप दोस्ती करें खुश रहने के लिए, अपना दुख-सुख बाँटने के लिए, अपनी पढ़ाई और बेहतर करने के लिए, सपोर्ट लेने और देने के लिए, न कि प्रेम के नाम पर अपना भविष्य खराब करने के लिए।
जब ऐसी स्थिति होती है तो हम खुशी के पल बिताने पर भी पूरी तरह खुश नहीं हो पाते हैं। अपनी दिली ख्वाहिश पूरी होने पर भी हमें एक प्रकार का असंतोष और अधूरापन महसूस होता है।
इन हालात में खुशी के संग-संग गम का साया भी साथ-साथ चल रहा होता है। इस स्थिति के कारण हमारा ढेर सारा समय इन उलझनों के विषय में सोचने में निकल जाता है। समय की यह बर्बादी हमारे कॅरियर, शारीरिक व मानसिक सेहत के लिए सही नहीं है। खासकर तब जब हम किशोर हों। हमारे ऊपर पढ़ने और कॅरियर बनाने की जिम्मेदारी हो।
सीमा, ज्ञान, रानी, संभावना, कामरान जैसे बहुत सारे किशोरों को आज यह समस्या बेहद परेशान कर रही है। ये सभी अभी टीन एजर्स हैं और दसवीं क्लास तक भी नहीं पहुँचे हैं और इन्हें लगता है कि प्यार हो गया है। अपने साथी के साथ समय बिताना, उसका ख्याल रखना बेशक उन्हें बहुत अच्छा लगता है पर हर समय यह द्वंद्व उन्हें सताता रहता है कि क्या यह ठीक है। कहीं वे अपनी पढ़ाई, कॅरियर और माँ-बाप के साथ धोखा तो नहीं कर रहे हैं। यह प्रश्न उन्हें चैन से जीने नहीं देता है जिसके कारण वे अकसर उधेड़बुन में रहते हैं। सबसे ज्यादा जो सवाल उन्हें परेशान करता है वह यह कि यदि उन्होंने इस प्यार को अभी ठुकरा दिया तो शायद जीवनभर फिर ऐसा प्यार नसीब न हो।
टीन फ्रेंड्स, जिस भावना को सामाजिक मान्यता नहीं मिली होती है उसको महसूस करने भर से भी आप ग्लानि और असहजता महसूस करेंगे। आप सभी अभी मैच्योर नहीं हैं और प्यार जैसे गंभीर रिश्ते में पड़ने से आपको परेशानी हो सकती है। हमारे समाज में प्रेम करना आमतौर पर पाप करने के समान है। जिन्होंने अपना कॅरियर संभाल लिया है। आत्मनिर्भर हो गए हैं, उनके लिए भी प्रेम करना उतना आसान नहीं है।
जाति, धर्म, वर्ग आदि जैसी न जाने कितनी ही अड़चनें हैं जो उन्हें पग-पग पर गलत होने का अहसास कराती हैं। प्रेम जैसी खूबसूरत भावना से उन्हें वाह-वाही नहीं मिलती बल्कि नीचता का आभास कराया जाता है। आप लोग अभी समाज की नजर में बहुत छोटे हैं। आत्मनिर्भर होने में आपको वर्षों लगेंगे। हमारे समाज में जो लोग भी आत्मनिर्भर नहीं होते उनकी समझदारी पर हमेशा प्रश्न चिह्न लगा ही रहता है।
संचार क्रांति और सूचनाओं की बौछार के कारण यह संभव है कि आप किशोर होते हुए भी कई भावनाओं को समझने और विश्लेषण करने में सक्षम हों तथा मानसिक रूप से परिपक्व हों पर आपकी उम्र के कारण परिवार समाज की नजर में अभी आप बच्चे हैं। यही वजह है कि आपकी भावना को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाएगा जिसकी आपको आशंका रहती है। चूँकि इस रिश्ते के बारे में परिवार मे संवाद बनाना मुश्किल है इसलिए इसकी जटिलता और भी बढ़ जाती है।
एक बात से तो आप भी सहमत होंगे कि किशोर उम्र में कई बार मात्र आकर्षण को ही प्यार समझ लिया जाता है। केवल आकर्षण प्रेम नहीं है। प्रेम पूरे व्यक्तित्व, आपकी और उनकी सोच से जुड़ी भावना है। इस भावना का एलान चाहे अपने दिल में ही क्यों न करें, जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। किशोर दोस्तों, समझदारी और जानकारी के अलावा तजुर्बे का जीवन में बहुत महत्व है। अनुभव को यदि जीवन में ठीक से अपनी भूमिका अदा करने दिया जाए तो जिंदगी की बहुत सारी मुश्किलें कम हो जाएँगी।
सफल जिंदगी के लिए सही समय का बहुत महत्व होता है यानी कब हम क्या करते हैं यह कामयाबी की कुंजी होती है। यदि आपने अभी प्रेम नहीं किया तो पाँच वर्ष बाद भी आप प्रेम तो कर सकते हैं पर पाँच साल बाद क्या आपके लिए नौवीं या दसवीं में पढ़ना संभव होगा? आप यूँ समझें कि परीक्षा के समय आप रातभर जागकर पढ़े और ऐन परीक्षा के समय सो जाएँ तो क्या आपके ज्ञान मेहनत का फल आपको मिल पाएगा?
हम हीटर गर्मी में और एसी-कूलर जाड़े में ऑन कर लें तो हमें उससे राहत मिलेगी या तकलीफ? जवाब आपको भी पता है। वे किशोर जिनके घरों में उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है, उन्हें प्यार नहीं मिलता, घर में कोलाहल मचा रहता है, वे प्रेम में जल्दी पड़ जाते हैं।
माँ-बाप और परिवार के हालात को चुटकियों में बदला नहीं जा सकता। बेहतर है किशोर-किशोरियाँ खुद अपने मन को समझें। आप दोस्ती करें खुश रहने के लिए, अपना दुख-सुख बाँटने के लिए, अपनी पढ़ाई और बेहतर करने के लिए, सपोर्ट लेने और देने के लिए, न कि प्रेम के नाम पर अपना भविष्य खराब करने के लिए।
Sunday, April 18, 2010
'फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को'
भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे एक जनवरी 1859 को लड़ते हुए शहीद हुए थे।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि इस किताब को लिखने का विचार उन्हें आमिर खान की फिल्म ‘मंगल पांडे’ देखने के बाद आया। उन्होंने बताया कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे को लिखे गए 125 पत्र ‘खत ए शिकस्त’ में संग्रह किए गए हैं।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि इस किताब को लिखने का विचार उन्हें आमिर खान की फिल्म ‘मंगल पांडे’ देखने के बाद आया। उन्होंने बताया कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे को लिखे गए 125 पत्र ‘खत ए शिकस्त’ में संग्रह किए गए हैं।
हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्द
मधुसूदन आनंद
मैंने एक लेख में उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखा तो मेरे एक मित्र ने कटाक्ष किया कि "तुम जैसे लोग हिंदी का भठ्ठा बैठाने में लगे हो। जिन शब्दों के लिए हिंदी में शब्द हैं, उन्हें अंग्रेजी में लिखने की भला क्या जरूरत है? आज जब तुम अखबार में सुप्रीम कोर्ट चलाओगे तो गाँव-कस्बे का कौन आदमी उसे उच्चतम न्यायालय कहेगा?"
मेरे मित्र की आपत्ति सही थी। उन्हें हिंदी भाषा की चिंता है, जबकि बाजार और विज्ञापनदाताओं की माँग पर हिंदी पत्रकारिता का एक वर्ग जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहा है। हिंदी फिल्मों के नाम आज अंग्रेजी शब्दों में लिखे जा रहे हैं-जैसे 'वेकअप सिड', 'जब वी मैट', 'वेलकम टू सज्जनपुर', 'थ्री इडिएट्स', 'गॉड तुसी ग्रेट हो' आदि। ये फिल्में खूब चली हैं और हिंदीभाषी जनता ने उन्हें खूब देखा भी है तो इसका मतलब क्या लगाया जाए? यही कि जनता ने इसे, अपने आप सहज ही या मजबूरी में स्वीकार कर लिया है।
बोलचाल की भाषा में जो अंग्रेजी शब्द सहज ही आते चले गए हैं, उनसे परे जाकर फिल्मों में जो अंग्रेजी शब्द घुसेड़े जा रहे हैं, उनके खिलाफ कोई प्रकट आक्रोश नहीं है और अगर है तो किसी को उसकी परवाह नहीं है। अगर होती तो कहीं तो इन फिल्मों के और नहीं तो प्रतीकात्मक स्तर पर ही पोस्टर वगैरह फाड़े जाते?
यानी अपने पैसे से जो मनोरंजन हम खरीद रहे हैं, उसमें कोई जानबूझ कर अंग्रेजी की मिलावट कर रहा है और हम उसे स्वीकार कर रहे हैं। यह ठीक है कि हम हिंदुस्तानी लोग आज सिनेमा और टेलीविजन के बिना नहीं रह सकते, लेकिन हममें अंग्रेजी शब्दों का प्रतिकार करने का माद्दा भी नहीं है। इसलिए हमारी हिंदी वर्ण संकर होती जा रही है।
इस पृष्ठभूमि में जब कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखता है तो शुद्धतावादियों को बहुत शिकायत होती है और वे विलाप करने लगते हैं कि हिंदी भाषा इस तरह तो जल्दी ही विलुप्त हो जाएगी। हिंदी के साथ ऐसी कोई समस्या दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। लेकिन इतना तय है कि प्रगति और विकास के साथ हिंदी का स्वरूप जरूर बदलता जाएगा।
आज आप भारतेंदु हरिश्चंद्र और शिवप्रसाद सितारेहिंद की भाषा पढ़ें या देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों की भाषा पढ़ें तो आपको साफ समझ में आ जाएगा कि कोई भी भाषा कभी यथावत नहीं रहती। वह समय के साथ बदलती है, अपने को दूसरी भाषा और बोलियों से समृद्ध करती है और अगर उसमें बदलने का माद्दा नहीं होता तो वह विलुप्त हो जाती है, जैसे संस्कृत, जो या तो आकाशवाणी की वजह से या फिर हमारे कर्मकांडों की वजह से जीवित है।
दुनिया में हर साल अनेक भाषाएँ और बोलियाँ विलुप्त हो जाती हैं और भारत भी इस मामले में अपवाद नहीं है। इसलिए हिंदी को सहज रूप से आ रहे अंग्रेजी शब्दों को अपने में समाहित करने से डरना नहीं चाहिए। 'सुप्रीम कोर्ट' और हाईकोर्ट भी ऐसे ही शब्द हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ गए हैं। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय न लिखने से हिंदी कमजोर नहीं होती।
मेरी माँ सिर्फ पाँचवीं तक पढ़ी हैं, हिंदी लिख-पढ़ सकती हैं। कोई 80 साल की होंगी। उत्तरप्रदेश में एक छोटे से कस्बे में रहती हैं। टेलीविजन देखती हैं। मैंने एक दिन उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों की लिस्ट बनाई और उन अंग्रेजी शब्दों की भी जो उनके साथ बोलचाल में घर में इस्तेमाल किए गए।
ये शब्द थेः प्रॉब्लम, फोर्स, मोबाइल, डिसमिस, ब्रैड, अंडरस्टैंडिंग, मार्केट, शर्ट, शॉपिंग, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर, लेट, वाइफ, हस्बैंड, सिस्टर, फादर, मदर, फेस, माउथ, गॉड, कोर्ट, लैटर, मिल्क, शुगर टी, सर्वेंट, थैंक यू, डैथ, एक्सपायर, बर्थ, हैड, हेयर, एक्सरसाइज, वॉक, बुक, चेयर, टेबिल, हाउस आदि।
अगर ये शब्द धीरे-धीरे हिंदी में आ रहे हैं तो क्या इसका मतलब यह होगा कि हिंदी मर जाएगी? आज दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्यों में रहने वाला शायद ही कोई व्यक्ति कॉलेज को महाविद्यालय कहता होगा। अगर आज हमने अपने घर में टेलीविजन को स्वीकार किया है, उससे मिलने वाले मनोरंजन को स्वीकार किया है तो उससे होने वाले भाषाई-प्रदूषण को भी मंजूर करना पड़ेगा क्योंकि ऐसा कोई फिल्टर नहीं है जो अंग्रेजी शब्दों को छाँट दे।
वैसे भी यह मानी हुई बात है कि कोई भी माध्यम ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करेगा जो उसके कंटेंट को लोगों तक न पहुँचा सके। फिर शहरों में रहते हुए क्या हम पर्यावरण-प्रदूषण को नहीं झेल रहे? हाँ हम यह भी कोशिश करते हैं कि प्रदूषण का स्तर एक खास स्तर से ज्यादा न हो। वह ज्यादा होगा तो हमारे स्वास्थ्य को खतरा होगा। हम मर जाएँगे। भाषाएँ भी समझ लीजिए इसी तरह का प्रदूषण झेलती हैं और जब नहीं झेल पातीं तो मर जाती हैं।
हाँ भाषाओं को कृत्रिम रूप देने का प्रयास नहीं होना चाहिए, जैसा कि हिंदी सिनेमा के शीर्षकों में दिखाई देता है। लेकिन टीचर को शिक्षक और स्कूल को विद्यालय लिखने का आग्रह तो जिद भरा है। पत्रकारिता की भाषा और साहित्य की भाषा दो अलग-अलग चीजें हैं हालाँकि दोनों में ही सबसे पहले सम्प्रेषण का सवाल आता है। अखबारों के पढ़ने वाले करोड़ों में हैं, जबकि साहित्य की किसी पुस्तक की मुश्किल से 500 प्रतियाँ छपती हैं।
हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों के आने की एक वजह यह भी है कि खड़ी बोली का इतिहास मुश्किल से 150 साल पुराना है। हिंदी के पास साहित्य और दर्शन की भाषा तो रही, लेकिन पत्रकारिता की भाषा उसने धीरे-धीरे गढ़ी है।
एक जमाने में हमारे पास उद्योग और व्यापार की भाषा नहीं थी, खेल और कलाओं की भाषा नहीं थी, आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की भाषा नहीं थी, यहाँ तक कि राजनैतिक-विमर्श की भाषा भी नहीं थी। ये भाषाएँ आज भी गढ़ी जा रही हैं और खेलों के अंग्रेजी शब्द हिंदी में प्रयोग में आ रहे हैं।
अंग्रेजी शब्दों के लिए अगर हम हिंदी में लौहपथगामिनी विश्रामस्थल (रेलवे स्टेशन) या काया पखारू बट्टी (साबुन) लिखने की जिद करेंगे तो आचार्य रघुवीर की तरह हास्यास्पद होंगे। रेल को आज रेल ही कहा जाता है और लालटर्न को लालेटन। अब आप पीएसएलवी या जीएसएलवी को क्या लिखेंगे?
मैंने एक सज्जन के साथ बातचीत में ब्याज और ऋण शब्द का प्रयोग किया तो उन्होंने मासूमियत से पूछा क्या? जब मैंने कहा लोन और इंटरेस्ट तब जाकर वे समझे। वे सज्जन भारतीय ही हैं और यहीं पैदा हुए हैं, बस उच्च वर्ग के हैं। लेकिन ऐसे लाखों लोग दिल्ली में होंगे जो लोन ही कहेंगे, कर्ज नहीं।
इसलिए जितना बुरा जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को ठूँसना है, उतना ही बुरा सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, मार्केट, हॉस्पिटल, टीचर आदि सहज शब्दों के हिंदी में आने का विरोध करना है।
यह सही है कि कोई भी भाषा उसकी संस्कृति का डीएनए होती है। (अब कोई बताए कि हिंदी में डीएनए के लिए क्या शब्द लिखें) लेकिन अगर संस्कृति बदल रही हो तो क्या डीएनए नहीं बदलेगा? आज जरा गौर कीजिए कि हमारी संस्कृति, हमारा पहनावा, हमारी शिक्षा और हमारा सामाजिक माहौल कितना बदला है।
आरएसएस जैसे संगठन तो आजकल चल रही जनगणना में अपने समर्थकों से आग्रह कर रहे हैं कि वे अपनी भाषा हिंदी या संस्कृत लिखाएँ, जो भारतीय संस्कृति की उनके अनुसार डीएनए हैं।
अतीत में पंजाब में आर्यसमाज ने नागरिकों से अपील की थी कि अपनी भाषा हिंदी लिखाएँ। पंजाबीभाषियों की बोली तब पंजाबी और भाषा उर्दू हुआ करती थी। संस्कृति को अलग दिखाने के नाम पर पंजाबियों ने अपनी भाषा पंजाबी घोषित की थी तो मोनों (हिंदुओं) ने हिंदी, जबकि विभाजन से पहले दोनों ही अपना कारोबार उर्दू में किया करते थे। वैसे इसके मूल में यह भावना थी कि उर्दू का समर्थन पाकिस्तान का समर्थन साबित होगा।
भारत में इसी भाषायी शुद्धतावाद के कारण उर्दू जैसी एक खूबसूरत भाषा आज नष्ट होने के कगार पर है और पंजाब में हिंदी के पक्ष में किया गया आग्रह अलगाववाद की समस्या का एक कारण बन चुका है। इसलिए जबरन कोई भाषा थोपना अंततः घातक ही साबित होता है। हमें यह अंतर करना आना चाहिए कि कहाँ भाषा थोपी जा रही है और कहाँ वह स्वेच्छा से आ रही है। थोपे जाने का हम विरोध करें और सहजता का हम स्वागत करें।
आज के दौर में जब हिंदी को रोमनलिपि में लिखे जाने के तर्क दिए जा रहे हैं, हमें अपने शुद्धतावादी तेवर तो त्यागने पड़ेंगे। इसी से हिंदी बची रह जाएगी।
मैंने एक लेख में उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखा तो मेरे एक मित्र ने कटाक्ष किया कि "तुम जैसे लोग हिंदी का भठ्ठा बैठाने में लगे हो। जिन शब्दों के लिए हिंदी में शब्द हैं, उन्हें अंग्रेजी में लिखने की भला क्या जरूरत है? आज जब तुम अखबार में सुप्रीम कोर्ट चलाओगे तो गाँव-कस्बे का कौन आदमी उसे उच्चतम न्यायालय कहेगा?"
मेरे मित्र की आपत्ति सही थी। उन्हें हिंदी भाषा की चिंता है, जबकि बाजार और विज्ञापनदाताओं की माँग पर हिंदी पत्रकारिता का एक वर्ग जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहा है। हिंदी फिल्मों के नाम आज अंग्रेजी शब्दों में लिखे जा रहे हैं-जैसे 'वेकअप सिड', 'जब वी मैट', 'वेलकम टू सज्जनपुर', 'थ्री इडिएट्स', 'गॉड तुसी ग्रेट हो' आदि। ये फिल्में खूब चली हैं और हिंदीभाषी जनता ने उन्हें खूब देखा भी है तो इसका मतलब क्या लगाया जाए? यही कि जनता ने इसे, अपने आप सहज ही या मजबूरी में स्वीकार कर लिया है।
बोलचाल की भाषा में जो अंग्रेजी शब्द सहज ही आते चले गए हैं, उनसे परे जाकर फिल्मों में जो अंग्रेजी शब्द घुसेड़े जा रहे हैं, उनके खिलाफ कोई प्रकट आक्रोश नहीं है और अगर है तो किसी को उसकी परवाह नहीं है। अगर होती तो कहीं तो इन फिल्मों के और नहीं तो प्रतीकात्मक स्तर पर ही पोस्टर वगैरह फाड़े जाते?
यानी अपने पैसे से जो मनोरंजन हम खरीद रहे हैं, उसमें कोई जानबूझ कर अंग्रेजी की मिलावट कर रहा है और हम उसे स्वीकार कर रहे हैं। यह ठीक है कि हम हिंदुस्तानी लोग आज सिनेमा और टेलीविजन के बिना नहीं रह सकते, लेकिन हममें अंग्रेजी शब्दों का प्रतिकार करने का माद्दा भी नहीं है। इसलिए हमारी हिंदी वर्ण संकर होती जा रही है।
इस पृष्ठभूमि में जब कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के लिए सुप्रीम कोर्ट लिखता है तो शुद्धतावादियों को बहुत शिकायत होती है और वे विलाप करने लगते हैं कि हिंदी भाषा इस तरह तो जल्दी ही विलुप्त हो जाएगी। हिंदी के साथ ऐसी कोई समस्या दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। लेकिन इतना तय है कि प्रगति और विकास के साथ हिंदी का स्वरूप जरूर बदलता जाएगा।
आज आप भारतेंदु हरिश्चंद्र और शिवप्रसाद सितारेहिंद की भाषा पढ़ें या देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों की भाषा पढ़ें तो आपको साफ समझ में आ जाएगा कि कोई भी भाषा कभी यथावत नहीं रहती। वह समय के साथ बदलती है, अपने को दूसरी भाषा और बोलियों से समृद्ध करती है और अगर उसमें बदलने का माद्दा नहीं होता तो वह विलुप्त हो जाती है, जैसे संस्कृत, जो या तो आकाशवाणी की वजह से या फिर हमारे कर्मकांडों की वजह से जीवित है।
दुनिया में हर साल अनेक भाषाएँ और बोलियाँ विलुप्त हो जाती हैं और भारत भी इस मामले में अपवाद नहीं है। इसलिए हिंदी को सहज रूप से आ रहे अंग्रेजी शब्दों को अपने में समाहित करने से डरना नहीं चाहिए। 'सुप्रीम कोर्ट' और हाईकोर्ट भी ऐसे ही शब्द हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ गए हैं। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय न लिखने से हिंदी कमजोर नहीं होती।
मेरी माँ सिर्फ पाँचवीं तक पढ़ी हैं, हिंदी लिख-पढ़ सकती हैं। कोई 80 साल की होंगी। उत्तरप्रदेश में एक छोटे से कस्बे में रहती हैं। टेलीविजन देखती हैं। मैंने एक दिन उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों की लिस्ट बनाई और उन अंग्रेजी शब्दों की भी जो उनके साथ बोलचाल में घर में इस्तेमाल किए गए।
ये शब्द थेः प्रॉब्लम, फोर्स, मोबाइल, डिसमिस, ब्रैड, अंडरस्टैंडिंग, मार्केट, शर्ट, शॉपिंग, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर, लेट, वाइफ, हस्बैंड, सिस्टर, फादर, मदर, फेस, माउथ, गॉड, कोर्ट, लैटर, मिल्क, शुगर टी, सर्वेंट, थैंक यू, डैथ, एक्सपायर, बर्थ, हैड, हेयर, एक्सरसाइज, वॉक, बुक, चेयर, टेबिल, हाउस आदि।
अगर ये शब्द धीरे-धीरे हिंदी में आ रहे हैं तो क्या इसका मतलब यह होगा कि हिंदी मर जाएगी? आज दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्यों में रहने वाला शायद ही कोई व्यक्ति कॉलेज को महाविद्यालय कहता होगा। अगर आज हमने अपने घर में टेलीविजन को स्वीकार किया है, उससे मिलने वाले मनोरंजन को स्वीकार किया है तो उससे होने वाले भाषाई-प्रदूषण को भी मंजूर करना पड़ेगा क्योंकि ऐसा कोई फिल्टर नहीं है जो अंग्रेजी शब्दों को छाँट दे।
वैसे भी यह मानी हुई बात है कि कोई भी माध्यम ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करेगा जो उसके कंटेंट को लोगों तक न पहुँचा सके। फिर शहरों में रहते हुए क्या हम पर्यावरण-प्रदूषण को नहीं झेल रहे? हाँ हम यह भी कोशिश करते हैं कि प्रदूषण का स्तर एक खास स्तर से ज्यादा न हो। वह ज्यादा होगा तो हमारे स्वास्थ्य को खतरा होगा। हम मर जाएँगे। भाषाएँ भी समझ लीजिए इसी तरह का प्रदूषण झेलती हैं और जब नहीं झेल पातीं तो मर जाती हैं।
हाँ भाषाओं को कृत्रिम रूप देने का प्रयास नहीं होना चाहिए, जैसा कि हिंदी सिनेमा के शीर्षकों में दिखाई देता है। लेकिन टीचर को शिक्षक और स्कूल को विद्यालय लिखने का आग्रह तो जिद भरा है। पत्रकारिता की भाषा और साहित्य की भाषा दो अलग-अलग चीजें हैं हालाँकि दोनों में ही सबसे पहले सम्प्रेषण का सवाल आता है। अखबारों के पढ़ने वाले करोड़ों में हैं, जबकि साहित्य की किसी पुस्तक की मुश्किल से 500 प्रतियाँ छपती हैं।
हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों के आने की एक वजह यह भी है कि खड़ी बोली का इतिहास मुश्किल से 150 साल पुराना है। हिंदी के पास साहित्य और दर्शन की भाषा तो रही, लेकिन पत्रकारिता की भाषा उसने धीरे-धीरे गढ़ी है।
एक जमाने में हमारे पास उद्योग और व्यापार की भाषा नहीं थी, खेल और कलाओं की भाषा नहीं थी, आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की भाषा नहीं थी, यहाँ तक कि राजनैतिक-विमर्श की भाषा भी नहीं थी। ये भाषाएँ आज भी गढ़ी जा रही हैं और खेलों के अंग्रेजी शब्द हिंदी में प्रयोग में आ रहे हैं।
अंग्रेजी शब्दों के लिए अगर हम हिंदी में लौहपथगामिनी विश्रामस्थल (रेलवे स्टेशन) या काया पखारू बट्टी (साबुन) लिखने की जिद करेंगे तो आचार्य रघुवीर की तरह हास्यास्पद होंगे। रेल को आज रेल ही कहा जाता है और लालटर्न को लालेटन। अब आप पीएसएलवी या जीएसएलवी को क्या लिखेंगे?
मैंने एक सज्जन के साथ बातचीत में ब्याज और ऋण शब्द का प्रयोग किया तो उन्होंने मासूमियत से पूछा क्या? जब मैंने कहा लोन और इंटरेस्ट तब जाकर वे समझे। वे सज्जन भारतीय ही हैं और यहीं पैदा हुए हैं, बस उच्च वर्ग के हैं। लेकिन ऐसे लाखों लोग दिल्ली में होंगे जो लोन ही कहेंगे, कर्ज नहीं।
इसलिए जितना बुरा जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को ठूँसना है, उतना ही बुरा सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, मार्केट, हॉस्पिटल, टीचर आदि सहज शब्दों के हिंदी में आने का विरोध करना है।
यह सही है कि कोई भी भाषा उसकी संस्कृति का डीएनए होती है। (अब कोई बताए कि हिंदी में डीएनए के लिए क्या शब्द लिखें) लेकिन अगर संस्कृति बदल रही हो तो क्या डीएनए नहीं बदलेगा? आज जरा गौर कीजिए कि हमारी संस्कृति, हमारा पहनावा, हमारी शिक्षा और हमारा सामाजिक माहौल कितना बदला है।
आरएसएस जैसे संगठन तो आजकल चल रही जनगणना में अपने समर्थकों से आग्रह कर रहे हैं कि वे अपनी भाषा हिंदी या संस्कृत लिखाएँ, जो भारतीय संस्कृति की उनके अनुसार डीएनए हैं।
अतीत में पंजाब में आर्यसमाज ने नागरिकों से अपील की थी कि अपनी भाषा हिंदी लिखाएँ। पंजाबीभाषियों की बोली तब पंजाबी और भाषा उर्दू हुआ करती थी। संस्कृति को अलग दिखाने के नाम पर पंजाबियों ने अपनी भाषा पंजाबी घोषित की थी तो मोनों (हिंदुओं) ने हिंदी, जबकि विभाजन से पहले दोनों ही अपना कारोबार उर्दू में किया करते थे। वैसे इसके मूल में यह भावना थी कि उर्दू का समर्थन पाकिस्तान का समर्थन साबित होगा।
भारत में इसी भाषायी शुद्धतावाद के कारण उर्दू जैसी एक खूबसूरत भाषा आज नष्ट होने के कगार पर है और पंजाब में हिंदी के पक्ष में किया गया आग्रह अलगाववाद की समस्या का एक कारण बन चुका है। इसलिए जबरन कोई भाषा थोपना अंततः घातक ही साबित होता है। हमें यह अंतर करना आना चाहिए कि कहाँ भाषा थोपी जा रही है और कहाँ वह स्वेच्छा से आ रही है। थोपे जाने का हम विरोध करें और सहजता का हम स्वागत करें।
आज के दौर में जब हिंदी को रोमनलिपि में लिखे जाने के तर्क दिए जा रहे हैं, हमें अपने शुद्धतावादी तेवर तो त्यागने पड़ेंगे। इसी से हिंदी बची रह जाएगी।
Thursday, April 15, 2010
और आखिर हो ही गया शोएब-सानिया विवाह....
लेखक-तनवीर जाफरी
तमाम विवादों का सामना करने के बाद भारतीय टेनिस की सनसनी कही जाने वाली सानिया मिर्जा आखिरकार पाक क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक के साथ विवाह बंधन में बंध ही गई। सानिया ने जब मात्र १६ वर्ष की आयु में विबंलडन जूनियर टूर्नामेंट जीता था उसी समय सानिया को भारतीय टेनिस की सनसनी कहा जाने लगा था। इसे महा एक इत्तेंफाक ही कहा जाएगा कि सानिया की जिंदगी के साथ 'सनसनीÓ का जो सिलसिला विबंलडन से शुरु हुआ था वह उसके विवाह तक जारी रहा। अपने मात्र सात वर्ष के टेनिस के संफर के दौरान जहां सानिया र्मा ने स्वयं को भारतीय महिला टेनिस खिलाड़ी के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वहीं इसी दौरान अपने आकर्षक टेनिस तथा मशहूर बुलेट सॢवस शॉट की वजह से वह बहुत थोड़े ही समय में पूरे भारतवासियों की लाडली बन बैठी। भारत में जिसे टेनिस के संबंध में कुछ भी पता नहीं होता वह व्यक्ति भी सानिया के खेल व उससे जुड़ी खबरों में दिलचस्पी रखने लगा। गोया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टेनिस में भारत का नाम रोशन करने वाली सानिया को पूरा देश भारत की लाडली महसूस करने लगा।
ग़ौरतलब है कि यह वही सानिया मिर्जा है जिसके खेल के लिबास को लेकर भारत के कुछ अतिवादी सोच रखने वाले मुल्लाओं द्वारा यह फतवा जारी किया गया था कि सानिया का पहनावा ंगैर इस्लामी है। इन्हीं कट्टरपंथियों द्वारा सानिया के खेल का विरोध करने की धमकी भी दी गई थी। उस समय पूरा देश सानिया र्मा के साथ खड़ा था। मुझ जैसे कई लेखक भी उस समय अतिवादी कठमुल्लाओं के फतवे का विरोध कर रहे थे। निश्चित रूप से कट्टरपंथियों द्वारा किए जाने वाले इस विरोध के बीच सानिया की हौसला अंफाई करने वालों की कोई कमी नहीं थी। जाहिर है इससे सानिया को कांफी नैतिक बल मिला और उसने अतिवादी कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना अपनी पसंदीदा पौशाक पहन कर अपने खेल को आगे बढ़ाने का सिलसिला पूर्ववत् जारी रखा। और उसकी इसी शानदार खेल शैली ने उसे विश्व टेनिस रेंकिग में २८वें नंबर तक पहुंचा दिया था जो आज फिर ९०वें नंबर तक आ चुका है।
बहरहाल भारतीय टेनिस की इस लाडली ने गत् वर्ष अक्तूबर माह में अपना घर बसाने का ंफैसला करते हुए अपने बचपन के सहपाठी एवं पारिवारिक मित्र सोहराब र्मा के साथ विवाह करने का ंफैसला किया था, सगाई की रस्म भी अदा कर दी गई थी। उस समय भी करोड़ों सानिया प्रशंसक उसे दुआएंं देते नार आ रहे थे। उस रिश्ते को लेकर सभी इस बात के लिए सानिया र्मा की प्रशंसा कर रहे थे कि विश्वस्तरीय टेनिस स्टार होने के बावजूद उसने अपने बचपन के पारिवारिक मित्र से विवाह करने का ंफैसला कर वास्तव में एक बड़ा कदम उठाया है। सानिया-सोहराब रिश्ते को लेकर भी भारतवासी सानिया को आशीर्वाद देने तथा उसके उावल भविष्य की कामना करने की मुद्रा में थे। परंतु बजाए इसके कि सानिया प्रशंसकों की आकांक्षाओं के अनुरूप सोहराब- सानिया विवाह की तिथि घोषित होती यह खबर आई कि सानिया ने सोहराब मिर्जा से अपनी सगाई तोड़ने की घोषणा कर डाली। इस खबर ने एक बार फिर सानिया र्मा के व्यक्तिगत् जीवन को लेकर 'सनसनीÓ फैला दी। सोहराब से सगाई टूटने की खबर अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि मात्र दो ही दिन में एक और धमाकेदार ख़बर यह सामने आई कि सानिया पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान शोएब मलिक के साथ विवाह करने जा रही है। इस ंखबर ने सानिया र्मा के करोड़ों प्रशंसकों का मानो दिल ही तोड़ दिया। इसलिए नहीं कि शोएब मलिक पाकिस्तान का नागरिक है बल्कि इसलिए कि शोएब मलिक इन दिनों पाकिस्तान का वह बदनामशुदा क्रिकेट खिलाड़ी है जिसे पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड द्वारा मैच फिङ्क्षक्सग के अपराध में एक वर्ष के लिए क्रिकेट खेलने से प्रतिबंधित किया गया है। अत सानिया के भारतीय प्रशंसकों को यह बात हजम नहीं हो पा रही है कि सुविख्यात एवं हरदिल विश्वस्तरीय भारतीय टेनिस स्टार पाकिस्तान के किसी बदनाम शुदा व्यक्ति से विवाह करे।
भारतवासियों विशेषकर सानिया प्रशंसकों को यह ङ्क्षचता भी सता रही थी कि आ]खिर उनके द्वारा अपने सिर माथे पर बिठाई जाने वाली सानिया पाकिस्तान की बहू बनने के बाद भारत की ओर से टेनिस खेल सकेगी या नहीं। इस विषय पर आगे उठने वाले सवालों को ंफिलहाल विराम देने हेतु सानिया र्मा ने दो बातें स्पष्ट की थीं। एक तो यह कि वह भविष्य में टेनिस केवल भारत की ओर से ही खेलेगी और दूसरे यह कि वह विवाह के पश्चात पाकिस्तान में न रहकर दुबई में जाकर बसेगी। परंतु यह तो सानिया र्मा का विवाह के पूर्व दिया गया वक्तव्य था। सानिया के इस वक्तव्य पर पाकिस्तान में कुछ विशेष संबद्ध व्यक्तियों की राय भी ग़ौर कीजिए। शोएब मलिक की मां तो यह ंफरमाती हैं कि सानिया र्मा विवाह के बाद टेनिस खेलना छोड़ देगी। क्योंकि उन्हें खिलाड़ी नहीं बलिक घरेलू बहु चाहिए। तो दूसरी तरंफ पाकिस्तान के एक मौलवी साहब का ंफतवा भी ग़ौर करने लायक है। मौलवी साहब ंफरमाते हैं कि इस्लाम में बीबी को शौहर के हुक्म की तामील करना वाजिब है। लिहा सानिया र्मा टेनिस कहां से खेलेगी यह ंफैसला तो शोएब मलिक को लेना होगा न कि सानिया र्मा को। अब यह सानिया प्रशंसकों को स्वयं सोचना होगा कि शोएब मलिक अपनी धर्मपत्नी सानिया को क्या भारत की ओर से टेनिस खेलने की इजात देंगे?
भारत में सानिया मिर्जा की शोएब मलिक से हुई शादी का तमाम पेशेवर राजनीतिज्ञों द्वारा भी कांफी विरोध किया गया। ंखासतौर पर उन ठाकरे बंधुओं द्वारा जिन्हें विकास के बजाए ऐसे ही वलंत एवं विवादित,सस्ते मुद्दों की ारूरत अपनी राजनैतिक दुकानदारी चलाने हेतु पड़ती रहती है। ऐसे पेशेवर नेताओं के विरोध की तो सानिया प्रशंसकों द्वारा कोई परवाह नहीं की गई। परंतु सानिया-शोएब रिश्ते की ख़बरें के बाद शोएब मलिक का जो चरित्र मीडिया के माध्यम से बेनक़ाब हुआ उससे सानिया प्रशंसकों को कांफी धक्का लगा। और उन्हें यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा कि शोएब जैसे झूठ बोलने वाले तथा मक्कारी करने वाले व्यक्ति के सिवा क्या सानिया को इससे बेहतर कोई दूसरा वर नहीं मिल सकता था? शोएब मलिक, सानिया से रिश्ते के नशे में इतना चूर हो गया था कि वह हैदराबाद में ही बैठी अपनी पहली पत्नी आयशा उंर्फ माहा सिद्दीकी को भी पूरी तरह नार अंदा कर देना चाहता था। शोएब मलिक ने केवल यह प्रमाणित करने के लिए कि सानिया र्मा के साथ उसका पहला विवाह हो रहा है तथा सानिया उसकी पहली पत्नी है, झूठ पर झूठ बोलने का एक ऐसा सिलसिला शुरु कर दिया जिसमें शोएब मलिक ंखुद ही उलझता गया। अपने इस झूठ व मक्कारी पूर्ण बयान के दौरान शोएब आयशा सिद्दींकी से हुए प्रमाणित निकाह से इस केंद्र मुकरा कि उसने अपनी पहली पत्नी आयशा उंर्फ माहा सिद्दींकी को 'माहा आपाÓ अर्थात् बड़ी बहन तक कहकर संबोधित कर डाला।
मात्र तीन चार दिन के भीतर बहुत ती से घटे इन घटनाक्रमों के दौरान पूरी दुनिया विशेषकर सानिया र्मा में दिलचस्पी रखने वाले सानिया प्रशंसकों ने बहुत गौर से देखा कि शोएब मलिक तथा उसके परिवार के कुछ सदस्यों ने मिलकर किस प्रकार से शोएब की पहली शादी पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश की। परंतु सांच को आंच नहीं की नीति पर चलते हुए आंखिरकार शोएब की पहली ससुराल वालों अर्थात् आयशा सिद्दींकी के परिजनों ने शोएब मलिक के विरुद्ध हैदराबाद के बंजारा हिल्स थाने में धोखाधड़ी,झूठ,मक्कारी तथा महिला उत्पीड़न जैसे आरोपों में प्राथमिकी दर्ज करवा दी, और इस प्रकार शोएब को अपने दूसरे विवाह अर्थात् सानिया से होने वाले निकाह से मात्र तीन दिन पहले ही आयशा उंर्फ माहा सिद्दींकी जिन्हें शोएब ने 'माहा आपाÓ अर्थात् बड़ी बहन कहकर संबोधित किया था, को तलांक देना पड़ा। इस तलांक के बाद यह सांफ हो गया कि सानिया र्मा अब शोएब की दूसरी पत्नी हैं न कि पहली।
परंतु शोएब-आयशा के इस विवाह से लेकर तलांक तक के प्रकरण में शोएब मलिक व उसके परिजनों द्वारा निभाई जा रही भूमिका ने शोएब मलिक को भारतवासियों की नारों में बुरी तरह से गिरा दिया। हालांकि अब शोएब-सानिया विवाह हो चुका है तथा प्रत्येक सानिया प्रशंसक इस नई जोड़ी को अपनी शुभकामनाएंं दे रहा है तथा इनके उावल भविष्य के लिए प्रार्थना कर रहा है। परंतु इन्हीं सानिया शुभङ्क्षचतकों का यह सोचना भी स्वाभाविक है कि आयशा सिद्दींकी के साथ अपने विवाह के मुद्दे को लेकर जो शोएब मलिक इस हद तक जा सकता है कि उस आयशा को अपनी पत्नी के बजाए बड़ी बहन तक कह डाले और बड़ी बहन कहने के बाद फिर उसी पहली पत्नी के रूप में तलांक भी दे डाले वह शोएब मलिक सानिया के साथ उसके वंफादार एवं सच्चे पति के रूप में पेश आ सकेगा? शोएब सानिया विवाह प्रकरण के बीच जहां शोएब मलिक का चरित्र बेनंकाब हुआ वहीं आयशा सिद्दींकी ने भी कांफी सहानुभूति अॢजत की। हां सानिया ने शोएब से विवाह कर अपने करोड़ें प्रशंसकों का दिल जरूर तोड़ दिया। क्येंकि सोहराब से सगाई टूटने के बाद सानिया प्रशंसक किसी अच्छे,सच्चे व सुप्रतिष्ठित वर की सानिया के लिए उम्मीद करते थे। इन सब के बावजूद पूरा देश सानिया-शोएब के उावल भविष्य की कामना करता है हम भी ंखुदा से यही दुआ करते हैं कि सानिया र्मा शोएब की एक लायक व होनहार बेगम ही बनी रहे तो बेहतर है। अच्छा होगा यदि शोएब मलिक अपनी आदतों के अनुसार सानिया को अपनी बेगम ही समझता रहे कभी 'सानिया आपाÓ कहकर संबोधित करने की नौबत न ही आए तो अच्छा है।
तमाम विवादों का सामना करने के बाद भारतीय टेनिस की सनसनी कही जाने वाली सानिया मिर्जा आखिरकार पाक क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक के साथ विवाह बंधन में बंध ही गई। सानिया ने जब मात्र १६ वर्ष की आयु में विबंलडन जूनियर टूर्नामेंट जीता था उसी समय सानिया को भारतीय टेनिस की सनसनी कहा जाने लगा था। इसे महा एक इत्तेंफाक ही कहा जाएगा कि सानिया की जिंदगी के साथ 'सनसनीÓ का जो सिलसिला विबंलडन से शुरु हुआ था वह उसके विवाह तक जारी रहा। अपने मात्र सात वर्ष के टेनिस के संफर के दौरान जहां सानिया र्मा ने स्वयं को भारतीय महिला टेनिस खिलाड़ी के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वहीं इसी दौरान अपने आकर्षक टेनिस तथा मशहूर बुलेट सॢवस शॉट की वजह से वह बहुत थोड़े ही समय में पूरे भारतवासियों की लाडली बन बैठी। भारत में जिसे टेनिस के संबंध में कुछ भी पता नहीं होता वह व्यक्ति भी सानिया के खेल व उससे जुड़ी खबरों में दिलचस्पी रखने लगा। गोया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टेनिस में भारत का नाम रोशन करने वाली सानिया को पूरा देश भारत की लाडली महसूस करने लगा।
ग़ौरतलब है कि यह वही सानिया मिर्जा है जिसके खेल के लिबास को लेकर भारत के कुछ अतिवादी सोच रखने वाले मुल्लाओं द्वारा यह फतवा जारी किया गया था कि सानिया का पहनावा ंगैर इस्लामी है। इन्हीं कट्टरपंथियों द्वारा सानिया के खेल का विरोध करने की धमकी भी दी गई थी। उस समय पूरा देश सानिया र्मा के साथ खड़ा था। मुझ जैसे कई लेखक भी उस समय अतिवादी कठमुल्लाओं के फतवे का विरोध कर रहे थे। निश्चित रूप से कट्टरपंथियों द्वारा किए जाने वाले इस विरोध के बीच सानिया की हौसला अंफाई करने वालों की कोई कमी नहीं थी। जाहिर है इससे सानिया को कांफी नैतिक बल मिला और उसने अतिवादी कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना अपनी पसंदीदा पौशाक पहन कर अपने खेल को आगे बढ़ाने का सिलसिला पूर्ववत् जारी रखा। और उसकी इसी शानदार खेल शैली ने उसे विश्व टेनिस रेंकिग में २८वें नंबर तक पहुंचा दिया था जो आज फिर ९०वें नंबर तक आ चुका है।
बहरहाल भारतीय टेनिस की इस लाडली ने गत् वर्ष अक्तूबर माह में अपना घर बसाने का ंफैसला करते हुए अपने बचपन के सहपाठी एवं पारिवारिक मित्र सोहराब र्मा के साथ विवाह करने का ंफैसला किया था, सगाई की रस्म भी अदा कर दी गई थी। उस समय भी करोड़ों सानिया प्रशंसक उसे दुआएंं देते नार आ रहे थे। उस रिश्ते को लेकर सभी इस बात के लिए सानिया र्मा की प्रशंसा कर रहे थे कि विश्वस्तरीय टेनिस स्टार होने के बावजूद उसने अपने बचपन के पारिवारिक मित्र से विवाह करने का ंफैसला कर वास्तव में एक बड़ा कदम उठाया है। सानिया-सोहराब रिश्ते को लेकर भी भारतवासी सानिया को आशीर्वाद देने तथा उसके उावल भविष्य की कामना करने की मुद्रा में थे। परंतु बजाए इसके कि सानिया प्रशंसकों की आकांक्षाओं के अनुरूप सोहराब- सानिया विवाह की तिथि घोषित होती यह खबर आई कि सानिया ने सोहराब मिर्जा से अपनी सगाई तोड़ने की घोषणा कर डाली। इस खबर ने एक बार फिर सानिया र्मा के व्यक्तिगत् जीवन को लेकर 'सनसनीÓ फैला दी। सोहराब से सगाई टूटने की खबर अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि मात्र दो ही दिन में एक और धमाकेदार ख़बर यह सामने आई कि सानिया पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान शोएब मलिक के साथ विवाह करने जा रही है। इस ंखबर ने सानिया र्मा के करोड़ों प्रशंसकों का मानो दिल ही तोड़ दिया। इसलिए नहीं कि शोएब मलिक पाकिस्तान का नागरिक है बल्कि इसलिए कि शोएब मलिक इन दिनों पाकिस्तान का वह बदनामशुदा क्रिकेट खिलाड़ी है जिसे पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड द्वारा मैच फिङ्क्षक्सग के अपराध में एक वर्ष के लिए क्रिकेट खेलने से प्रतिबंधित किया गया है। अत सानिया के भारतीय प्रशंसकों को यह बात हजम नहीं हो पा रही है कि सुविख्यात एवं हरदिल विश्वस्तरीय भारतीय टेनिस स्टार पाकिस्तान के किसी बदनाम शुदा व्यक्ति से विवाह करे।
भारतवासियों विशेषकर सानिया प्रशंसकों को यह ङ्क्षचता भी सता रही थी कि आ]खिर उनके द्वारा अपने सिर माथे पर बिठाई जाने वाली सानिया पाकिस्तान की बहू बनने के बाद भारत की ओर से टेनिस खेल सकेगी या नहीं। इस विषय पर आगे उठने वाले सवालों को ंफिलहाल विराम देने हेतु सानिया र्मा ने दो बातें स्पष्ट की थीं। एक तो यह कि वह भविष्य में टेनिस केवल भारत की ओर से ही खेलेगी और दूसरे यह कि वह विवाह के पश्चात पाकिस्तान में न रहकर दुबई में जाकर बसेगी। परंतु यह तो सानिया र्मा का विवाह के पूर्व दिया गया वक्तव्य था। सानिया के इस वक्तव्य पर पाकिस्तान में कुछ विशेष संबद्ध व्यक्तियों की राय भी ग़ौर कीजिए। शोएब मलिक की मां तो यह ंफरमाती हैं कि सानिया र्मा विवाह के बाद टेनिस खेलना छोड़ देगी। क्योंकि उन्हें खिलाड़ी नहीं बलिक घरेलू बहु चाहिए। तो दूसरी तरंफ पाकिस्तान के एक मौलवी साहब का ंफतवा भी ग़ौर करने लायक है। मौलवी साहब ंफरमाते हैं कि इस्लाम में बीबी को शौहर के हुक्म की तामील करना वाजिब है। लिहा सानिया र्मा टेनिस कहां से खेलेगी यह ंफैसला तो शोएब मलिक को लेना होगा न कि सानिया र्मा को। अब यह सानिया प्रशंसकों को स्वयं सोचना होगा कि शोएब मलिक अपनी धर्मपत्नी सानिया को क्या भारत की ओर से टेनिस खेलने की इजात देंगे?
भारत में सानिया मिर्जा की शोएब मलिक से हुई शादी का तमाम पेशेवर राजनीतिज्ञों द्वारा भी कांफी विरोध किया गया। ंखासतौर पर उन ठाकरे बंधुओं द्वारा जिन्हें विकास के बजाए ऐसे ही वलंत एवं विवादित,सस्ते मुद्दों की ारूरत अपनी राजनैतिक दुकानदारी चलाने हेतु पड़ती रहती है। ऐसे पेशेवर नेताओं के विरोध की तो सानिया प्रशंसकों द्वारा कोई परवाह नहीं की गई। परंतु सानिया-शोएब रिश्ते की ख़बरें के बाद शोएब मलिक का जो चरित्र मीडिया के माध्यम से बेनक़ाब हुआ उससे सानिया प्रशंसकों को कांफी धक्का लगा। और उन्हें यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा कि शोएब जैसे झूठ बोलने वाले तथा मक्कारी करने वाले व्यक्ति के सिवा क्या सानिया को इससे बेहतर कोई दूसरा वर नहीं मिल सकता था? शोएब मलिक, सानिया से रिश्ते के नशे में इतना चूर हो गया था कि वह हैदराबाद में ही बैठी अपनी पहली पत्नी आयशा उंर्फ माहा सिद्दीकी को भी पूरी तरह नार अंदा कर देना चाहता था। शोएब मलिक ने केवल यह प्रमाणित करने के लिए कि सानिया र्मा के साथ उसका पहला विवाह हो रहा है तथा सानिया उसकी पहली पत्नी है, झूठ पर झूठ बोलने का एक ऐसा सिलसिला शुरु कर दिया जिसमें शोएब मलिक ंखुद ही उलझता गया। अपने इस झूठ व मक्कारी पूर्ण बयान के दौरान शोएब आयशा सिद्दींकी से हुए प्रमाणित निकाह से इस केंद्र मुकरा कि उसने अपनी पहली पत्नी आयशा उंर्फ माहा सिद्दींकी को 'माहा आपाÓ अर्थात् बड़ी बहन तक कहकर संबोधित कर डाला।
मात्र तीन चार दिन के भीतर बहुत ती से घटे इन घटनाक्रमों के दौरान पूरी दुनिया विशेषकर सानिया र्मा में दिलचस्पी रखने वाले सानिया प्रशंसकों ने बहुत गौर से देखा कि शोएब मलिक तथा उसके परिवार के कुछ सदस्यों ने मिलकर किस प्रकार से शोएब की पहली शादी पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश की। परंतु सांच को आंच नहीं की नीति पर चलते हुए आंखिरकार शोएब की पहली ससुराल वालों अर्थात् आयशा सिद्दींकी के परिजनों ने शोएब मलिक के विरुद्ध हैदराबाद के बंजारा हिल्स थाने में धोखाधड़ी,झूठ,मक्कारी तथा महिला उत्पीड़न जैसे आरोपों में प्राथमिकी दर्ज करवा दी, और इस प्रकार शोएब को अपने दूसरे विवाह अर्थात् सानिया से होने वाले निकाह से मात्र तीन दिन पहले ही आयशा उंर्फ माहा सिद्दींकी जिन्हें शोएब ने 'माहा आपाÓ अर्थात् बड़ी बहन कहकर संबोधित किया था, को तलांक देना पड़ा। इस तलांक के बाद यह सांफ हो गया कि सानिया र्मा अब शोएब की दूसरी पत्नी हैं न कि पहली।
परंतु शोएब-आयशा के इस विवाह से लेकर तलांक तक के प्रकरण में शोएब मलिक व उसके परिजनों द्वारा निभाई जा रही भूमिका ने शोएब मलिक को भारतवासियों की नारों में बुरी तरह से गिरा दिया। हालांकि अब शोएब-सानिया विवाह हो चुका है तथा प्रत्येक सानिया प्रशंसक इस नई जोड़ी को अपनी शुभकामनाएंं दे रहा है तथा इनके उावल भविष्य के लिए प्रार्थना कर रहा है। परंतु इन्हीं सानिया शुभङ्क्षचतकों का यह सोचना भी स्वाभाविक है कि आयशा सिद्दींकी के साथ अपने विवाह के मुद्दे को लेकर जो शोएब मलिक इस हद तक जा सकता है कि उस आयशा को अपनी पत्नी के बजाए बड़ी बहन तक कह डाले और बड़ी बहन कहने के बाद फिर उसी पहली पत्नी के रूप में तलांक भी दे डाले वह शोएब मलिक सानिया के साथ उसके वंफादार एवं सच्चे पति के रूप में पेश आ सकेगा? शोएब सानिया विवाह प्रकरण के बीच जहां शोएब मलिक का चरित्र बेनंकाब हुआ वहीं आयशा सिद्दींकी ने भी कांफी सहानुभूति अॢजत की। हां सानिया ने शोएब से विवाह कर अपने करोड़ें प्रशंसकों का दिल जरूर तोड़ दिया। क्येंकि सोहराब से सगाई टूटने के बाद सानिया प्रशंसक किसी अच्छे,सच्चे व सुप्रतिष्ठित वर की सानिया के लिए उम्मीद करते थे। इन सब के बावजूद पूरा देश सानिया-शोएब के उावल भविष्य की कामना करता है हम भी ंखुदा से यही दुआ करते हैं कि सानिया र्मा शोएब की एक लायक व होनहार बेगम ही बनी रहे तो बेहतर है। अच्छा होगा यदि शोएब मलिक अपनी आदतों के अनुसार सानिया को अपनी बेगम ही समझता रहे कभी 'सानिया आपाÓ कहकर संबोधित करने की नौबत न ही आए तो अच्छा है।
कैसा जीवनसाथी चाहती हैं लड़कियाँ?
किरण बाला
हर लड़की ऐसा जीवनसाथी चाहती है जिस पर उसे गर्व हो यानी वह उसकी चाहत की कसौटी पर खरा उतरता हो। लड़कियाँ लड़के के रंग-रूप या कद-काठी की बजाए उसकी पढ़ाई- लिखाई, कमाई और वैयक्तिक गुणों को अधिक महत्व देती हैं। यदि पति हैंडसम हो और गुणों की खान भी तो सोने पर सुहागा।
हर लड़की ऐसा पति चाहती है जो कंजूस न हो और खुले हाथ से खर्च कर सकता हो, क्योंकि कंजूस युवक के साथ उन्हें अपने जीवन की खुशियाँ नहीं मिल सकतीं।
अच्छा कमाऊ लड़का ही वह पति के रूप में चाहती हैं। पत्नी की कमाई पर ऐश करने वाले या निर्भर रहने वाले लड़के को वह कभी पसंद नहीं करती।
ज्यादातर लड़कियाँ चाहती हैं कि उनका पति उनसे पढ़ा-लिखा, समझदार और योग्य हो।
लड़कियाँ ऐसे लड़के से शादी करना चाहती हैं, जो स्वयं आर्थिक दृष्टि से आत्म निर्भर हो न कि अपने पिता पर निर्भर हो।
लड़कियाँ ऐसे लड़के से शादी करना चाहती हैं जो खुले विचारों का हो जिसकी सोच दकियानूसी न होकर विस्तृत हो, क्योंकि तभी वह अपनी पत्नी की इच्छाओं और भावनाओं को समझ सकता है तथा उसकी कद्र कर सकता है।
लड़कियाँ ऐसे लड़के पसंद करती हैं, जो केवल उनका पति ही बनकर न रहे अपितु एक सच्चा दोस्त भी बने और सुख-दुख में साथ भी निभाए।
लड़कियों की नजर में वह लड़का उनका जीवनसाथी बनने योग्य है, जो अपनी पत्नी की उपलब्धियों पर खुश हो तथा गर्व का अनुभव करे न कि ईर्ष्या करे या उसकी प्रतिभा को रौंदने का काम करे।
उसका हमसफर परिपक्व होना चाहिए जिसकी अपनी सोच व समझ हो न कि वह दूसरे के इशारे पर नाचता हो। दूसरे के इशारे पर नाचने वाले पति कभी अपनी पत्नी को समझ नहीं पाते।
अवगुणी लड़के को कभी भी कोई लड़की अपना जीवनसाथी बनाना नहीं चाहेगी, फिर चाहे वह किसी तरह का नशा करता हो या किसी बुरी अथवा आपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त हो। ये सब ऐसी लतें या आदते हैं, जो किसी भी पत्नी का जीवन नर्क बना देती हैं।
लड़कियों की नजर में एक अच्छा पति वह है, जो अपनी पत्नी को अपने समकक्ष दर्जा दे न कि उसे अपने पैरों की जूती समझे। स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने वाले को वह कभी जीवनसाथी बनाना नहीं चाहती, क्योंकि ऐसे लोग पत्नी पर हाथ उठाना या उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने में अपनी मर्दानगी समझते हैं।
लड़कियाँ ऐसे लड़के से साथ जीवन जीना चाहती हैं, जो उसे प्यार और साथ दोनों दे सके। शादी के बाद भी यदि उसे अकेलापन काटना पड़े तो ऐसी शादी से क्या फायदा? खासकर जो लड़के विदेश में नौकरी करते हैं, यदि वे अपने साथ अपनी पत्नी को ले जाएँ तब तो ठीक अन्यथा पिया मिलन की आस में जिंदगी कट जाती है।
देश में रहने पर भी यदि पति के पास अपनी पत्नी के लिए समय नहीं है तो पत्नी को पीड़ा होती है। कोई भी पत्नी कम आमदनी में गुजर-बसर कर लेगी, लेकिन उसे पति का साथ चाहिए।
हर लड़की ऐसे लड़के से शादी करना चाहेगी, जो पत्नी की अहमियत को समझता हो तथा हर महत्वपूर्ण फैसले में उसकी राय लेता हो।
लाड़ली बिटिया का चाँद-सा वर !
प्रीता जैन
लाडो हमारी है चाँदतारा,
वो चाँदतारा वर माँगती है
बन्नो हमारी है चाँदतारा,
वो चाँदतारा वर माँगती है॥
ढोलक की थाप और घर में गूँजते ये विवाह के गीत सुन मन मयूर नाच उठता है। बेटी के ब्याह की सोच-सोच ही ऐसा लगने लगता है, मानो सारे जहाँ की खुशियाँ हाथ लग गई हों, सारे सपने पूरे हो गए हों। सच ही तो है! बेटी के जन्म के साथ उसको स्पर्श करते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे खुशियों की सौगात से परिपूर्ण सपने आँखों में तैरने लगते हैं।
ज्यों-ज्यों वो बड़ी होती जाती है, त्यों-त्यों ख्वाब के साकार होने की इच्छा भी माता-पिता की बलवती होने लगती है और वे तन-मन धन से उन्हें पूरा करने में लग जाते हैं।
यही फिर उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह जाता है कि बेटी को सिर्फ और सिर्फ सुखी संसार ही मिले। कैसी भी परेशानी अथवा दुःख की घड़ी सदा-सदा कोसों दूर रहे। लेकिन सपना जब तक सपना रहता है तभी तक अच्छा लगता है, क्योंकि हकीकत बन जब सामने आता है तो जरूरी नहीं जैसा आपने देखा-सोचा, बिलकुल वैसा ही यथार्थ में भी दिखाई दे, थोड़ा-बहुत अदल-बदल तो हो ही जाता है।
इसीलिए कहा गया है कि जो माता-पिता आपसी सूझ-बूझ व समझदारी से सपने व सच्चाई में ठीक सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। वे फिर स्वयं के साथ-साथ बेटी के सुखद भविष्य की भी नींव रख लेते हैं अन्यथा उनके साथ-साथ ताउम्र उसे भी परेशानी उठानी पड़ती है।
रश्मि, मलिक दंपति की इकलौती बेटी है। बचपन से लेकर आज तक जो भी उनकी भावी दामाद को लेकर इच्छाएँ-आकांक्षाएँ थीं, सब वे एक ही लड़के में देखना चाहते थे। नतीजतन जितने भी रिश्ते आते, सभी में कुछ न कुछ कमी उन्हें नजर आ ही जाती। कभी संयुक्त परिवार है तो कभी खानदान ज्यादा ऊँचा नहीं लग रहा।
कभी लड़के का रूप-रंग सलोना है तो कभी लड़के की कम आय ही नजर आने लगती। देखते-देखते रश्मि 27 साल की हो गई। अब न तो उसमें वो मासूमियत-रौनक रह गई, जो पहले थी साथ ही मलिक दंपति का भी धैर्य व हिम्मत धीरे-धीरे जवाब देने लगी। अब तो हर पल उन्हें यही लगता, बड़ी भूल कर दी जो इतने नुक्स निकाले।
कई अच्छे-अच्छे रिश्ते बिना वजह ही हाथ से निकल जाने दिए। जहाँ पहले मनमाफिक सब कुछ मिल जाता, वहीं अब मन को समझा कहीं न कहीं बात पक्की करनी ही होगी, नहीं तो देर होती जाएगी।
ऐसा सिर्फ मलिक दंपति के साथ ही न होकर कई माता-पिताओं के साथ होता है और अच्छे-अच्छे के चक्कर में वे इधर-उधर भटकते ही रहते हैं। समझदारी व बुद्धिमत्ता से न सोच पाने के कारण फिर बाद में जैसे-तैसे समझौता करना ही पड़ता है और जिंदगीभर यही अफसोस दिल में रह जाता है कि हमारी बेटी को ज्यादा सुख-खुशियाँ मिल सकती थीं, यदि हमने वास्तविकता को पहचान हवा में सपने न बुने होते।
ऐसे ही मेरी परिचिता की बेटी साधारण रंग-रूप की है। पढ़ाई-लिखाई या फिर अन्य क्षेत्र में भी औसत दर्जे की ही रही है किंतु उसे भी चाहिए- सपनों का-सा राजकुमार, जो जिन्ना की भाँति पलक झपकते ही उसकी हर इच्छा पूरी कर दे। पलभर में सारे सुख-साधन उपलब्ध करा दे। आजकल इस तरह की विचारधारा का एक बड़ा कारण व्यक्ति की अपरिपक्व सोच तथा आर्थिक स्थिति का मजबूत होना भी है, क्योंकि पैसे के बल पर वे सब कुछ पाना चाहते हैं।
जब माता-पिता लड़का देख रिश्ते तय करने जाते हैं तो एक खरीददार की तरह ही उनका व्यवहार हो जाता है कि जब पैसा अच्छा देंगे तो माल भी अच्छा ही चाहिए। कहीं किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होनी चाहिए। बस! यही संकीर्ण मानसिकता व सोच का ढंग ही उनकी परेशानी का कारण बन जाता है, जो कि आज नहीं तो कल उन्हें पछताने के लिए मजबूर करता ही है।
कहते हैं न जोड़ियाँ स्वर्ग में बनती हैं। हम तो केवल यहाँ थोड़ी-बहुत दौड़भाग कर उनको मिलाते हैं, गठबंधन कराते हैं अतः बेटी हो या बेटा, दोनों ही जब विवाह योग्य हो जाएँ तो उनके लिए उन्हीं के अनुरूप दामाद अथवा बहू चुनें। जरूरत से ज्यादा नुक्ताचीनी या फिर मन में वहम पालना उचित नहीं होता।
जहाँ भी, जब भी यथायोग्य जोड़ा मिले, खुशी-खुशी बिना किसी शंका व चिंता के बच्चों को उनके सुखद भविष्य का आशीर्वाद देकर नवजीवन में प्रवेश करने की अनुमति दें और ईश्वर से प्रार्थना कर दीर्घायु तथा सदा सुखी रहने की कामना करें।
ये रिश्ते हैं टेकन फॉर ग्रांटेड
हम अपनों को प्यार करते हैं, फिर भी उनकी 'होने' को अलग से नहीं देख पाते हैं। इससे होता यह है कि हम उनके सुख-दुख, भावनाओं-इच्छाओं तथा जरूरतों-संवेदनाओं के प्रति एक तरह से लापरवाह होते हैं या यूँ कह लें कि ध्यान ही नहीं दे पाते हैं। जो व्यक्ति टेकन फॉर ग्रांटेड लिया जाता है, उसकी सारी सकारात्मकता बिना उसके जाने खत्म हो जाती है।
ऐसा अक्सर करीबी रिश्तों में होता है। चाहे वह रिश्ता पति-पत्नी का हो या फिर माता-पिता और बच्चों के बीच का... एक-दूसरे के होने को अलग से महसूस नहीं कर पाते हैं। इसलिए ऐसा होता है कि सारी दुनिया के प्रति संवेदनशील और चिंतित होकर भी हम अपनों के लिए उदासीन रहते हैं, इतने कि इस उदासीनता को भी महसूस नहीं कर पाते हैं।
अक्सर ये अपने माता-पिता के या फिर पति हमेशा अपनी पत्नी को लेकर ऐसा ही करते हैं। कारण बहुत स्पष्ट है, क्योंकि वे इतने करीब होते हैं कि उनके नहीं होने की कल्पना तक हम नहीं कर पाते हैं। हम अपने दोस्तों, सहकर्मियों और परिचितों के लिए जितना 'कंसर्न' रखते हैं, अपनों की उतनी ही उपेक्षा करते हैं। ऐसे रिश्तों में तो हम जरूरत से ज्यादा इनवेस्ट करते हैं, लेकिन करीबी रिश्तों के प्रति भयानक उदासीनता बरतते हैं।
यह एक तरह का स्वार्थ है... सेल्फसेंटर्डनेस...। ज्यादातर ऐसे मामले महिलाओं के साथ होते हैं। क्योंकि वे परिवार में ऐसे तरल हो जाती हैं कि अलग से नजर ही नहीं आती हैं, खास तौर पर पत्नी और माँ...। परिवार के लोग उस पर निर्भर होते चले जाते हैं और वह सबकी निर्भरता को निभाती चली जाती है। इस गफलत में हम यह भूल जाते हैं कि वह भी इंसान है।
हमने कभी माँ को इंसान की तरह देखा... नहीं देख पाते हैं। ऐसे में हम जिसे टेकन फॉर ग्रांटेड लेते हैं, उससे कभी कोई बात शेयर नहीं करते हैं, अपने भविष्य के प्लान... कहाँ जा रहे हैं, कब लौटेंगे, जैसी छोटी-छोटी बातें भी नहीं कहते हैं। हम ज्यादातर अपने मामलों में संवेदनशील होते हैं और दूसरों के विचारों, भावनाओं को लेकर उदासीन होते हैं। चाहे वह पति-पत्नी हो या माता-पिता इस तरह की प्रवृत्ति हरेक का दिल दुखाती है।
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जब हम किसी को टेकन फॉर ग्रांटेड लेते हैं, तो हम यह समझते हैं कि वह हमारे जीवन में है और हमारी उसके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है। हम ज्यादातर ऐसे मामलों में स्वार्थी हो जाते हैं। हमारी उम्मीदें तो बहुत ज्यादा होती हैं और हम यह मान बैठते हैं कि यह व्यक्ति हमारी सेवा करने के लिए ही पैदा हुआ है। उसकी खुशी-नाखुशी, पसंद-नापसंद, जरूरत और इच्छा हम कभी भी जानने का प्रयास नहीं करते हैं।
यह प्रवृत्ति जिस भी तरह से यह हमारे जीवन में हो, यह हमेशा रिश्तों को नुकसान पहुँचाती है। यह दोतरफा वार करता है। यह हकीकत में एक घातक हथियार है, एक तरह का धीमा जहर...। जो व्यक्ति टेकन फॉर ग्रांटेड लिया जाता है, उसकी सारी सकारात्मकता बिना उसके जाने खत्म हो जाती है, तो दूसरी तरफ यह रिश्तों से वो उष्मा, वो गर्मी सोख लेता है जिससे जीवन धड़कता है।
रिश्तों को बचाने के लिए इस प्रवृत्ति को रोकें। थोड़ा खुद को समय देकर यह सोचें कि आपके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण शख्स की खुशी के लिए आपने अब तक क्या-क्या किया? आपने अपने सबसे खूबसूरत रिश्तों को बनाए रखने के लिए क्या इनवेस्ट किया है? इसे जिंदा रखने के लिए आपके प्रयास क्या रहे अब तक?
अपने रिश्तों को बचाने के लिए इन्हें सींचे... भावना से... शब्दों और कर्म से...। इसके लिए सबसे पहले आपको दूसरों के 'होने' को स्वीकार करना होगा, फिर उसके होने के प्रति आभारी होना होगा। और इसका सबसे अच्छा तरीका है, सामने वाले को खुश रखना। छोटी-छोटी चीजें जैसे - खाना बहुत स्वादिष्ट बना है, या घर बहुत सुंदर सजाया है, कहते रहेंगे तो रिश्ते खूबसूरत बनेंगे।
एक चीज को हर किसी को पसंद आएगी... दूर तक घूमने जाना या फिर खूब सारी बातें करना... तारीफ कर देना रिश्तों में नई खुशबू फैलाएगा, आपके साथी के जीवन को खुशनुमा करेगा तो जाहिर है कि आपका जीवन भी खुशी से लबरेज होगा। आखिर यही तो है जीवन...।
तुलसी और आंवला काटते हैं रेडिएशन प्रभाव
विशेषज्ञों की मानें तो धातृ फल आंवला और तुलसी में ऐसे गुण मौजूद हैं जो न सिर्फ रेडिएशन का प्रभाव काटते हैं बल्कि रेडिएशन होने पर इस बीमारी से बचाते भी हैं। इनका साइड इफेक्ट भी नहीं है। मायापुरी में रेडिएशन प्रभावित लोगों की पहचान कर स्वास्थ्य जांच करने की टीम में होम्योपैथ विशेषज्ञ को विशेष रूप से शामिल किया गया है। मायापुरी में जांच टीम के साथ आए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कोर ग्रुप के सदस्य डॉ नवल कुमार ने बताया कि तुलसी के पौधे में एंटी ऑक्सिडेंट तत्व अधिक होते हैं। जो रेडियोधर्मिता से बचाव करता है। इसलिए तुलसी का पांच पता गर्म पानी में उबाल कर पीना चाहिए। इसके अलावा तुलसी से बनी ओसिमम सैंक्टम नाम की दवा भी उपलब्ध है। जिसका दस से 15 बूंद सेवन किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि डीआरडीओ इस पर अनेक शोध कर चुका है। अभी भी शोध हो रहे हैं। इसके अलावा आंवला भी रेडिएशन के प्रभावों से बचाता है।
आंवला से बनी दवा की खुराक भी दी जाएगी। हिमालय के क्षेत्र में पोडो फाइलम नाम का एक पौधा बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। यह अमेरिकी पौधा है। इस पर इनसास के वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। यह रेडियोधर्मिता के प्रभावों को रोकने में अत्यधिक कारगर है।
Tuesday, April 6, 2010
नक्सलियों की एक और फौज बनाने की तैयारी...
रीतेश पुरोहित
क्या बांध और शादी में कोई संबंध है? किसी और के पास इसका जबाव नहीं होगा, लेकिन अगर मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के पथराड़ गांव के लोगों से बात करेंगे, तो आपको इसका जवाब मिलेगा और वह भी हां में। गांव के पास ही स्थित महेश्वर में नर्मदा नदी पर बन रहे बांध के कारण इस गांव के जवान लड़कों की शादी नहीं हो रही है। असल में पथराड़ बांध के डूब क्षेत्र में आ रहा है और आसपास के गांव का कोई भी पिता अपनी बेटी का हाथ उस व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहता, जिसका न तो रहने का ठिकाना होगा और न ही कमाने का। मुमकिन है डूब क्षेत्र में आने वाले बाकी के 60 गांवों की भी यही कहानी हो। पिछले दिनों अपने करीब 15 साथियों के साथ इस गांव में था, तभी यह चौंका देने वाली बात सामने आई। लेकिन चौंकने की कई वजहें अभी बाकी हैं, लेकिन इससे पहले इस डैम और क्षेत्र के बैकग्राउंड के बारे में बताना जरूरी है।
होल्कर महारानी देवी अहिल्या बाई की राजधानी रहा महेश्वर इंदौर से करीब 90 किमी दूर है। महेश्वर डैम नर्मदा घाटी विकास प्रोजेक्ट के तहत इस नदी पर बने या बन रहे 30 बड़े बांधों में से एक है। मध्य प्रदेश के लोगों के लिए मां के समान मानी जाने वाली इस नदी पर 135 मीडियम साइज डैम और बन रहे हैं। सरकार का दावा है कि इस बांध के बनने से इलाके में 400 मेगावॉट बिजली मिलेगी। प्रोजेक्ट की योजना 1978 में बनाई गई थी और 1993 में देश की एक बड़ी टेक्स्टाइल कंपनी को यह प्रोजेक्ट सौंपा गया। डूब क्षेत्र का एरिया पता करने के लिए नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने इस क्षेत्र का सर्वे किया है, जिसे गांव के लोग गलत करार देते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात। महेश्वर उन क्षेत्रों में से एक है, जहां मेधा पाटकर के नेतत्व वाला नर्मदा बचाओ आंदोलन सक्रिय है। नर्मदा बचाओ आंदोलन और गांव के लोग पिछले कई सालों से यहां बैकवॉटर सर्वे कराने की मांग कर रहे हैं, ताकि डूब क्षेत्र की असलियत सामने आ सके। बैकवॉटर सर्वे की जरूरत के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए)बरगी बांध का उदाहरण देता है। एनबीए के मुताबिक जबलपुर में बने बरगी बांध का बैकवॉटर सर्वे नहीं कराया गया था, जिस वजह से पानी बढ़ने से यहां के पुनर्वास के लिए तय की गई 26 जगहों पर पानी भर गया था। खंडवा के इंदिरा सागर प्रोजेक्ट का हाल भी कुछ ऐसा ही था। बैकवॉटर सर्वे कराने के बाद आसपास के 40 और गांव डूब क्षेत्र में आ गए।
खैर, 60 लोगों में से 12-13 लोगों के समूह में हम अलग-अलग गांवों में गए। मैं अपने साथियों के साथ पथराड़ पहुंचा। करीब 3000 लोगों की आबादी वाले और बेहद उपजाऊ जमीन वाले इस गांव के लोगों का आजीविका का मुख्य स्त्रोत खेती ही है। हमने लोगों को इकट्ठा किया और उन्हें बातचीत में सहज बनाने के लिए हमने उनसे गांव की बाकी समस्याओं जैसे बिजली, सड़कें, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के बारे में पूछा। हमें यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि गांव के लोग इन मुद्दों को छोड़ सीधे महेश्वर डेम से जुड़े मुददे पर आ गए। हालांकि बातचीत में इस बात का अहसास हुआ कि विस्थापन यहां के लोगों का सबसे बड़ा ज़ख्म है, जिसके आगे बाकी प्रॉब्लम्स ने अपना असर खो दिया है।
करीब 75 साल के राधेश्याम पाटीदार गांव के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए हमें महेश्वर डैम, सरकार की पुनर्वास नीति और उससे जुड़ी हर बारीक से बारीक बात को तथ्यों समेत बता रहे थे। राधेश्याम कह रहे थे, 'हमारी लड़ाई विकास से नहीं विस्थापन से है। हम विकास के लिए खून-पसीने से बनाया अपना घर छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन सरकार हमें कम से कम यह तो बताए कि हमें कहां बसाया जाएगा। हमें कितना बड़ा घर मिलेगा? खेती के लिए हमें कहां जाना होगा?'
हमारे अलावा गांव के करीब 100 लोग उन्हें बहुत ध्यान से सुन रहे थे। उनके अंदर गुस्सा, विश्वास और जोश के मिलेजुले भाव दिखाई दे रहे थे। बीच में जब राधेश्याम ने एक आंकड़ा गलत बता दिया तो वहां मौजूद कई लोग उनकी गलती सुधारने के लिए एकसाथ बोल पड़े। यह सब देखकर मैं और मेरे कई साथियों की आंखें फटी की फटी रह गईं। हमने आज तक इतने ज्यादा जागरूक गांववाले नहीं देखे जो पूरे तथ्यों के साथ बोल रहे थे। उनमें गजब का कॉन्फिडेंस था। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कोई नेता और अफसर उनके सामने नहीं ठहर पाता। इसी दौरान एक युवक ने थोड़ा मुस्कुराते और शर्माते हुए नौजवान लड़कों की शादी न होने वाली बात बताई। एक और बात, लोगों ने बताया कि गांव में पिछले कई सालों से सड़क नहीं बनी क्योंकि गांव डूब क्षेत्र में आने वाले इस गांव में सड़क बनाकर सरकार अपना पैसा बर्बाद नहीं करना चाहती।
जब पूछा गया कि आप लोग 10 साल से भी ज्यादा समय से डैम का विरोध कर रहे हैं लेकिन इसके बाद भी बांध लगातार बन रहा है। अगर आप अपनी लड़ाई में असफल हो गए तो? 'तो हम यहीं नर्मदा मैया में जलसमाधि ले लेंगे', समूह में से एक युवक ने जवाब दिया और सैकड़ों लोगों ने उसकी बात में हामी भरी।
अंत में गांव के कुछ लोगों ने हमसे पूछा, 'आप बताइये नक्सली आखिर कैसे तैयार होते हैं? अगर लोगों से उनकी जमीन, घर, रोटी छीन ली जाएगी और बदले में कुछ नहीं मिले, तो आदमी क्या करेगा? क्या वह बंदूक नहीं उठाएगा?'
सचमुच इस सवाल ने सोचने पर मजबूर कर दिया। क्या वाकई देश में नक्सलियों का एक और समूह तैयार नहीं किया जा रहा?
क्या बांध और शादी में कोई संबंध है? किसी और के पास इसका जबाव नहीं होगा, लेकिन अगर मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के पथराड़ गांव के लोगों से बात करेंगे, तो आपको इसका जवाब मिलेगा और वह भी हां में। गांव के पास ही स्थित महेश्वर में नर्मदा नदी पर बन रहे बांध के कारण इस गांव के जवान लड़कों की शादी नहीं हो रही है। असल में पथराड़ बांध के डूब क्षेत्र में आ रहा है और आसपास के गांव का कोई भी पिता अपनी बेटी का हाथ उस व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहता, जिसका न तो रहने का ठिकाना होगा और न ही कमाने का। मुमकिन है डूब क्षेत्र में आने वाले बाकी के 60 गांवों की भी यही कहानी हो। पिछले दिनों अपने करीब 15 साथियों के साथ इस गांव में था, तभी यह चौंका देने वाली बात सामने आई। लेकिन चौंकने की कई वजहें अभी बाकी हैं, लेकिन इससे पहले इस डैम और क्षेत्र के बैकग्राउंड के बारे में बताना जरूरी है।
होल्कर महारानी देवी अहिल्या बाई की राजधानी रहा महेश्वर इंदौर से करीब 90 किमी दूर है। महेश्वर डैम नर्मदा घाटी विकास प्रोजेक्ट के तहत इस नदी पर बने या बन रहे 30 बड़े बांधों में से एक है। मध्य प्रदेश के लोगों के लिए मां के समान मानी जाने वाली इस नदी पर 135 मीडियम साइज डैम और बन रहे हैं। सरकार का दावा है कि इस बांध के बनने से इलाके में 400 मेगावॉट बिजली मिलेगी। प्रोजेक्ट की योजना 1978 में बनाई गई थी और 1993 में देश की एक बड़ी टेक्स्टाइल कंपनी को यह प्रोजेक्ट सौंपा गया। डूब क्षेत्र का एरिया पता करने के लिए नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने इस क्षेत्र का सर्वे किया है, जिसे गांव के लोग गलत करार देते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात। महेश्वर उन क्षेत्रों में से एक है, जहां मेधा पाटकर के नेतत्व वाला नर्मदा बचाओ आंदोलन सक्रिय है। नर्मदा बचाओ आंदोलन और गांव के लोग पिछले कई सालों से यहां बैकवॉटर सर्वे कराने की मांग कर रहे हैं, ताकि डूब क्षेत्र की असलियत सामने आ सके। बैकवॉटर सर्वे की जरूरत के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए)बरगी बांध का उदाहरण देता है। एनबीए के मुताबिक जबलपुर में बने बरगी बांध का बैकवॉटर सर्वे नहीं कराया गया था, जिस वजह से पानी बढ़ने से यहां के पुनर्वास के लिए तय की गई 26 जगहों पर पानी भर गया था। खंडवा के इंदिरा सागर प्रोजेक्ट का हाल भी कुछ ऐसा ही था। बैकवॉटर सर्वे कराने के बाद आसपास के 40 और गांव डूब क्षेत्र में आ गए।
खैर, 60 लोगों में से 12-13 लोगों के समूह में हम अलग-अलग गांवों में गए। मैं अपने साथियों के साथ पथराड़ पहुंचा। करीब 3000 लोगों की आबादी वाले और बेहद उपजाऊ जमीन वाले इस गांव के लोगों का आजीविका का मुख्य स्त्रोत खेती ही है। हमने लोगों को इकट्ठा किया और उन्हें बातचीत में सहज बनाने के लिए हमने उनसे गांव की बाकी समस्याओं जैसे बिजली, सड़कें, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के बारे में पूछा। हमें यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि गांव के लोग इन मुद्दों को छोड़ सीधे महेश्वर डेम से जुड़े मुददे पर आ गए। हालांकि बातचीत में इस बात का अहसास हुआ कि विस्थापन यहां के लोगों का सबसे बड़ा ज़ख्म है, जिसके आगे बाकी प्रॉब्लम्स ने अपना असर खो दिया है।
करीब 75 साल के राधेश्याम पाटीदार गांव के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए हमें महेश्वर डैम, सरकार की पुनर्वास नीति और उससे जुड़ी हर बारीक से बारीक बात को तथ्यों समेत बता रहे थे। राधेश्याम कह रहे थे, 'हमारी लड़ाई विकास से नहीं विस्थापन से है। हम विकास के लिए खून-पसीने से बनाया अपना घर छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन सरकार हमें कम से कम यह तो बताए कि हमें कहां बसाया जाएगा। हमें कितना बड़ा घर मिलेगा? खेती के लिए हमें कहां जाना होगा?'
हमारे अलावा गांव के करीब 100 लोग उन्हें बहुत ध्यान से सुन रहे थे। उनके अंदर गुस्सा, विश्वास और जोश के मिलेजुले भाव दिखाई दे रहे थे। बीच में जब राधेश्याम ने एक आंकड़ा गलत बता दिया तो वहां मौजूद कई लोग उनकी गलती सुधारने के लिए एकसाथ बोल पड़े। यह सब देखकर मैं और मेरे कई साथियों की आंखें फटी की फटी रह गईं। हमने आज तक इतने ज्यादा जागरूक गांववाले नहीं देखे जो पूरे तथ्यों के साथ बोल रहे थे। उनमें गजब का कॉन्फिडेंस था। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कोई नेता और अफसर उनके सामने नहीं ठहर पाता। इसी दौरान एक युवक ने थोड़ा मुस्कुराते और शर्माते हुए नौजवान लड़कों की शादी न होने वाली बात बताई। एक और बात, लोगों ने बताया कि गांव में पिछले कई सालों से सड़क नहीं बनी क्योंकि गांव डूब क्षेत्र में आने वाले इस गांव में सड़क बनाकर सरकार अपना पैसा बर्बाद नहीं करना चाहती।
जब पूछा गया कि आप लोग 10 साल से भी ज्यादा समय से डैम का विरोध कर रहे हैं लेकिन इसके बाद भी बांध लगातार बन रहा है। अगर आप अपनी लड़ाई में असफल हो गए तो? 'तो हम यहीं नर्मदा मैया में जलसमाधि ले लेंगे', समूह में से एक युवक ने जवाब दिया और सैकड़ों लोगों ने उसकी बात में हामी भरी।
अंत में गांव के कुछ लोगों ने हमसे पूछा, 'आप बताइये नक्सली आखिर कैसे तैयार होते हैं? अगर लोगों से उनकी जमीन, घर, रोटी छीन ली जाएगी और बदले में कुछ नहीं मिले, तो आदमी क्या करेगा? क्या वह बंदूक नहीं उठाएगा?'
सचमुच इस सवाल ने सोचने पर मजबूर कर दिया। क्या वाकई देश में नक्सलियों का एक और समूह तैयार नहीं किया जा रहा?
Friday, April 2, 2010
बर्बरीक से श्याम बाबा
बर्बरीक से श्याम बाबा तक की कथा
भक्तजनों, श्याम बाबा कौन है? क्या है? कैसे हैं? कहां रहते हैं एवं कैसे लगते हैं? इस प्रकार के कई प्रश्र कई लोगों के मन में जिज्ञासा बनाए हुए है। पूरी कथा जानने के लिए तो विस्तार में जाना पड़ेगा। आप जैसे-जैसे श्याम भक्तों के करीब आते चले जाएंगे, वैसे-वैसे आपको इनके बारे में अत्यधिक जानकारी होती चली जाएगी। अत: हम आपको संक्षेप में बाबा के विषय में जानकारी देने का प्रयास करेंगे।
महाभारत काल की सारी घटना है जिस काल में श्याम बाका का प्रादुर्भाव हुआ। पांडव कुलभूषण बर्बरीक बड़े ही बलशाली एवं दानवीर थे। देवादिवेव महादेव एवं मां जगदम्बा का इन्हें प्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त था और इस आशीर्वाद के फलस्वरूप उन्हें इनसे तीन ऐसे तीर प्राप्त हुए थे जिनसे वे पूरे त्रिलोक को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। बर्बरीक महादेव और जगदम्बा के प्रिय भक्त थे। माता की आज्ञा ले, वे युद्ध देखने घर से लीले घोड़ पर सवार होकर चल पड़े (इसलिए इन्हें लीले असवार भी कहा जाता है।)। कौरवों ने पांडवों के साथ हमेशा छल किया। बराबर का हक होने के बाद भी उन्हें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पांच गांव मांगने पर भी मना कर दिया और सुई के सम्मान जगह भी देने से मना कर दिया। पांडव शांतिप्रिय एवं धर्मावलंबी थे। जंगल-जंगल भटकते रहते थे। अत: भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए धर्मयुद्ध महाभारत का ऐलान कर डाला और उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार कर लिया। जिनके पक्ष में स्वयं नारायण हों उस पक्ष की हार कभी हो ही नहीं सकती, किन्तु कौरवों को श्रीकृष्ण एक मायावी, छलिया एवं गाय चराने वाले के सिवा कुछ प्रतीत नहीं होते थे। स्वयं वीर बर्बरीक की माता को भी पांडवों की जीत का संदेह हो चला था। अत: उन्होंने अपने प्रिय पुत्र बर्बरीक की वीरता को देख उसने वचन मांगा की तुम युद्ध देखने अवश्य जाओं लेकिन यदि वहां युद्ध भी करना पड़े तो हारे का साथ देना (मन में था पांडवों का साथ देना पर खुल कर नहीं कहा) और मातृभक्ति पुत्र ने माता को हारे का साथ देने का वचन दिया।
अन्तर्यामी लीला पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को भान हो गया कि बर्बरीक युद्ध देखने के लिए चल पड़े हैं और वे जानते थे कि इस महायुद्ध में कौरवों की हार निश्चित है और बर्बरीक अपनी माता को दिए बचन के अनुसार हारे का सहारा जरूर बनेंगे। और यदि ऐसा हो गया तो पांडवों का विनाश निश्चित है उन्हें कोई नहीं बचा पाएगा। अत: लीलाधर ने एक लीला रची और उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण कर रास्ते में बर्बरीक से मिलने हेतु चल पड़े। बर्बरीक से प्रथम भेंट होने पर उन्होंने उनसे कई प्रकार की बातें की। फिर उनसे उनका परिचय पूछा। बर्बरीक ने अपने बल पौरुष और दान शीलता का बखान किया। ब्राह्मण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी वीरता का प्रत्यक्ष परिचय दनेे के लिए कहा। बर्बरीक ने एक ही बाण से सारी सृष्टि को संहार करने का ओजस्वी स्वर गुंजायमान किया। ब्राह्मण वेश धारी ने असहमति जताते हुए कहा कि वहीं स्थित एक पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को एक ही बाण में बेधकर दिखाओ तो जानू। इसी समय श्रीकृष्ण ने उनमें से एक पत्ते को तोड़कर अपने पांव के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने ध्यान मग्न होकर बाग पत्तों पर छोड़ डाला। सभी पत्तों को एक ही बाण से बिंधा देखकर ब्राह्मण वेश धारी श्रीकृष्ण ने जब अपने पांव को हटाया तो उस पत्त को बिंधा हुआ पाया। इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि यदि इस समयानुसार कोई लीला रची जाएगी तो वह सदैव अमर हो जाएगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से दान मांगा और उसका वचन ले लिया। बचन मिलने पर श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से उसके शीश को ही दान मांग लिया। किशोर अचम्भित रह गया कि यह क्या मांग लिया-किन्तु बड़े ही नम्र भाव में आकर उन्होंने ब्राह्मण से विनती की प्रभु आपको मेरे शीश से क्या प्रायोजन, आप कौन हैं? ब्राह्मण हो नहीं हो सकते। कृपा कर अपने को प्रगट कर शंका का निवारण करें। तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और समझाया वत्स, महाभारत युद्ध के लिए एक वीर की बलि चाहिए तुम पांडव कुल के हो। अत: रक्षा के लिए तुहारा बलिदान सदैव याद किया जाएगा। बर्बरीक ने शीश दान से पहले युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की। भगवान ने तथास्तु कहकर बर्बरीब को संतुष्ट कर दिया। सारा ब्रह्माण्ड सुन्न हो गया-अब ऐसी घटना होने वाली थी जो न तो हुई और न आगे भविष्य में किसी युग में होगी। वीर ने अपने आराध्य देवी-देवताओं का वंदन किया। माता को नमन् किया और फिर अपनी कमर से कटार खींचकर एक ही वार में अपने शीश को धड़ से अलगकर श्रीकृष्ण को शीश दान कर दिया। श्रीकृष्ण ने देरी न करते हुए बर्बरीक के शीश को अपने हाथ में उठाकर लिया एवं अमृत से सींचकर अमर करते हुए एक टीले पर रखवा दिया। खाटू मंदिर में आप जब कभी-भी जाते हैं और दर्शन करने पर श्याम बाबा का हर बार एक नया रूप देखने को मिलता है जैसे कभी दुबला-कभी मोटा-कभी हंसते हुए-कभी तेज भरा कि नजर तक नहीं टिक पाती हैं। प्रसंगवश आगे ये बात लिखने से रह नहीं जाए अत: यहीं लिख दिया।
भक्तजनों युद्ध शुरू हुआ-अमरत्व प्राप्त शीश पूरे युद्ध को देख रहा था-युद्ध के दौरान कई लीलाएं घटती रही। धर्म और अर्धम की आंख मिचौली निरंतर जारी थी-दृष्टा मौन हो सब देख रहा था। अत: कौरवों का अंत हुआ। पांडव विजयी हुए। विजय के मद में मति बदल दी। सभी आत्मा प्रशंसा में लग गए-मतांतर होने पर भगवान श्रीकृष्ण के पास निर्णय के लिए पहुंचे। श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं तो स्वयं वयस्त था आप में से किसने क्या पराक्रम दिखाया, मैनें नहीं देखा। बर्बरीक के पास चलें वहीं निर्णय मिलेगा। अब तक बर्बरीक के शीन दान कीकहानी पांडवों ने नहीं सुनी थी। बर्बरीक के पास पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा कि किसने क्या-क्या पराक्रम किया जो आपने देखा, तो बर्बरीक के कटे शीश ने उत्तर दिया कि प्रभु युद्ध में आपका सुदर्शन चक्र नाच रहा था और मां जगदम्बा खप्पर भर-भर कर लहू का पान कर रही थी और मुझे तो ये लोग कहीं दिखाई नहीं दिए। बर्बरीक की बातें सुनकर पांडवों को सिर नीचे झूक गया। ऐसे धर्मानुकूल निर्णय सुनकर केवल भगवान वासुदेव ही मुस्कुरा रहे थे। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का परिचय सभी से कराया। भक्तजनों स्कन्धपुराण में बर्बरीक को भीम के पुत्र घटोत्कच का पुत्र बतलाया गया है। जबकि कई जगहों इन्हें भीम का पौत्र नहीं पुत्र माना गया है। मैं तो केवल इतना ही जानता हूं कि यह मेरे अराध्य हैं और मैं इनका दास हुं-वे सकल फलदायक है क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा ही वरदान मिला। वैसे हमारी संस्कृति वेदों और पुराणों के आधार पर टिकी है।
पुनश्च: पांडवों को दिए निर्णय के तत्काल बाद श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की दान वीरता और भक्ती भाव को देखते हुए उन्हें अपना नाम श्याम दिया और अपनी कलाएं एवं अपनी शक्तियां प्रदान की। और साथ ही कलयुग में घर-घर पूजे जाने का भी वरदान दिया-प्रभु का स्वर गुंजा-बर्बरीक धरती पर तुमसे बड़ा दानी ना तो हुआ है और ना ही होगा।
मां को दिए वचन के अनुसार तुम हारे का सहारा बनोगे। कल्याण की भावना से तुम्कारे दरबार में तुमसे लोग जो भी मांगेगे-उन्हें मिलेगा। वे खाली झोली लेकर वापिस नहीं जाएंगे। तुम्हारे दर पर सब इच्छाओं की पूर्ति होगी।
भक्तजनों, श्याम बाबा कौन है? क्या है? कैसे हैं? कहां रहते हैं एवं कैसे लगते हैं? इस प्रकार के कई प्रश्र कई लोगों के मन में जिज्ञासा बनाए हुए है। पूरी कथा जानने के लिए तो विस्तार में जाना पड़ेगा। आप जैसे-जैसे श्याम भक्तों के करीब आते चले जाएंगे, वैसे-वैसे आपको इनके बारे में अत्यधिक जानकारी होती चली जाएगी। अत: हम आपको संक्षेप में बाबा के विषय में जानकारी देने का प्रयास करेंगे।
महाभारत काल की सारी घटना है जिस काल में श्याम बाका का प्रादुर्भाव हुआ। पांडव कुलभूषण बर्बरीक बड़े ही बलशाली एवं दानवीर थे। देवादिवेव महादेव एवं मां जगदम्बा का इन्हें प्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त था और इस आशीर्वाद के फलस्वरूप उन्हें इनसे तीन ऐसे तीर प्राप्त हुए थे जिनसे वे पूरे त्रिलोक को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। बर्बरीक महादेव और जगदम्बा के प्रिय भक्त थे। माता की आज्ञा ले, वे युद्ध देखने घर से लीले घोड़ पर सवार होकर चल पड़े (इसलिए इन्हें लीले असवार भी कहा जाता है।)। कौरवों ने पांडवों के साथ हमेशा छल किया। बराबर का हक होने के बाद भी उन्हें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पांच गांव मांगने पर भी मना कर दिया और सुई के सम्मान जगह भी देने से मना कर दिया। पांडव शांतिप्रिय एवं धर्मावलंबी थे। जंगल-जंगल भटकते रहते थे। अत: भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए धर्मयुद्ध महाभारत का ऐलान कर डाला और उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार कर लिया। जिनके पक्ष में स्वयं नारायण हों उस पक्ष की हार कभी हो ही नहीं सकती, किन्तु कौरवों को श्रीकृष्ण एक मायावी, छलिया एवं गाय चराने वाले के सिवा कुछ प्रतीत नहीं होते थे। स्वयं वीर बर्बरीक की माता को भी पांडवों की जीत का संदेह हो चला था। अत: उन्होंने अपने प्रिय पुत्र बर्बरीक की वीरता को देख उसने वचन मांगा की तुम युद्ध देखने अवश्य जाओं लेकिन यदि वहां युद्ध भी करना पड़े तो हारे का साथ देना (मन में था पांडवों का साथ देना पर खुल कर नहीं कहा) और मातृभक्ति पुत्र ने माता को हारे का साथ देने का वचन दिया।
अन्तर्यामी लीला पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को भान हो गया कि बर्बरीक युद्ध देखने के लिए चल पड़े हैं और वे जानते थे कि इस महायुद्ध में कौरवों की हार निश्चित है और बर्बरीक अपनी माता को दिए बचन के अनुसार हारे का सहारा जरूर बनेंगे। और यदि ऐसा हो गया तो पांडवों का विनाश निश्चित है उन्हें कोई नहीं बचा पाएगा। अत: लीलाधर ने एक लीला रची और उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण कर रास्ते में बर्बरीक से मिलने हेतु चल पड़े। बर्बरीक से प्रथम भेंट होने पर उन्होंने उनसे कई प्रकार की बातें की। फिर उनसे उनका परिचय पूछा। बर्बरीक ने अपने बल पौरुष और दान शीलता का बखान किया। ब्राह्मण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी वीरता का प्रत्यक्ष परिचय दनेे के लिए कहा। बर्बरीक ने एक ही बाण से सारी सृष्टि को संहार करने का ओजस्वी स्वर गुंजायमान किया। ब्राह्मण वेश धारी ने असहमति जताते हुए कहा कि वहीं स्थित एक पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को एक ही बाण में बेधकर दिखाओ तो जानू। इसी समय श्रीकृष्ण ने उनमें से एक पत्ते को तोड़कर अपने पांव के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने ध्यान मग्न होकर बाग पत्तों पर छोड़ डाला। सभी पत्तों को एक ही बाण से बिंधा देखकर ब्राह्मण वेश धारी श्रीकृष्ण ने जब अपने पांव को हटाया तो उस पत्त को बिंधा हुआ पाया। इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि यदि इस समयानुसार कोई लीला रची जाएगी तो वह सदैव अमर हो जाएगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से दान मांगा और उसका वचन ले लिया। बचन मिलने पर श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से उसके शीश को ही दान मांग लिया। किशोर अचम्भित रह गया कि यह क्या मांग लिया-किन्तु बड़े ही नम्र भाव में आकर उन्होंने ब्राह्मण से विनती की प्रभु आपको मेरे शीश से क्या प्रायोजन, आप कौन हैं? ब्राह्मण हो नहीं हो सकते। कृपा कर अपने को प्रगट कर शंका का निवारण करें। तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और समझाया वत्स, महाभारत युद्ध के लिए एक वीर की बलि चाहिए तुम पांडव कुल के हो। अत: रक्षा के लिए तुहारा बलिदान सदैव याद किया जाएगा। बर्बरीक ने शीश दान से पहले युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की। भगवान ने तथास्तु कहकर बर्बरीब को संतुष्ट कर दिया। सारा ब्रह्माण्ड सुन्न हो गया-अब ऐसी घटना होने वाली थी जो न तो हुई और न आगे भविष्य में किसी युग में होगी। वीर ने अपने आराध्य देवी-देवताओं का वंदन किया। माता को नमन् किया और फिर अपनी कमर से कटार खींचकर एक ही वार में अपने शीश को धड़ से अलगकर श्रीकृष्ण को शीश दान कर दिया। श्रीकृष्ण ने देरी न करते हुए बर्बरीक के शीश को अपने हाथ में उठाकर लिया एवं अमृत से सींचकर अमर करते हुए एक टीले पर रखवा दिया। खाटू मंदिर में आप जब कभी-भी जाते हैं और दर्शन करने पर श्याम बाबा का हर बार एक नया रूप देखने को मिलता है जैसे कभी दुबला-कभी मोटा-कभी हंसते हुए-कभी तेज भरा कि नजर तक नहीं टिक पाती हैं। प्रसंगवश आगे ये बात लिखने से रह नहीं जाए अत: यहीं लिख दिया।
भक्तजनों युद्ध शुरू हुआ-अमरत्व प्राप्त शीश पूरे युद्ध को देख रहा था-युद्ध के दौरान कई लीलाएं घटती रही। धर्म और अर्धम की आंख मिचौली निरंतर जारी थी-दृष्टा मौन हो सब देख रहा था। अत: कौरवों का अंत हुआ। पांडव विजयी हुए। विजय के मद में मति बदल दी। सभी आत्मा प्रशंसा में लग गए-मतांतर होने पर भगवान श्रीकृष्ण के पास निर्णय के लिए पहुंचे। श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं तो स्वयं वयस्त था आप में से किसने क्या पराक्रम दिखाया, मैनें नहीं देखा। बर्बरीक के पास चलें वहीं निर्णय मिलेगा। अब तक बर्बरीक के शीन दान कीकहानी पांडवों ने नहीं सुनी थी। बर्बरीक के पास पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा कि किसने क्या-क्या पराक्रम किया जो आपने देखा, तो बर्बरीक के कटे शीश ने उत्तर दिया कि प्रभु युद्ध में आपका सुदर्शन चक्र नाच रहा था और मां जगदम्बा खप्पर भर-भर कर लहू का पान कर रही थी और मुझे तो ये लोग कहीं दिखाई नहीं दिए। बर्बरीक की बातें सुनकर पांडवों को सिर नीचे झूक गया। ऐसे धर्मानुकूल निर्णय सुनकर केवल भगवान वासुदेव ही मुस्कुरा रहे थे। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का परिचय सभी से कराया। भक्तजनों स्कन्धपुराण में बर्बरीक को भीम के पुत्र घटोत्कच का पुत्र बतलाया गया है। जबकि कई जगहों इन्हें भीम का पौत्र नहीं पुत्र माना गया है। मैं तो केवल इतना ही जानता हूं कि यह मेरे अराध्य हैं और मैं इनका दास हुं-वे सकल फलदायक है क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा ही वरदान मिला। वैसे हमारी संस्कृति वेदों और पुराणों के आधार पर टिकी है।
पुनश्च: पांडवों को दिए निर्णय के तत्काल बाद श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की दान वीरता और भक्ती भाव को देखते हुए उन्हें अपना नाम श्याम दिया और अपनी कलाएं एवं अपनी शक्तियां प्रदान की। और साथ ही कलयुग में घर-घर पूजे जाने का भी वरदान दिया-प्रभु का स्वर गुंजा-बर्बरीक धरती पर तुमसे बड़ा दानी ना तो हुआ है और ना ही होगा।
मां को दिए वचन के अनुसार तुम हारे का सहारा बनोगे। कल्याण की भावना से तुम्कारे दरबार में तुमसे लोग जो भी मांगेगे-उन्हें मिलेगा। वे खाली झोली लेकर वापिस नहीं जाएंगे। तुम्हारे दर पर सब इच्छाओं की पूर्ति होगी।
विवाह पूर्व सेक्स
विवाह पूर्व सेक्स हर युग में हुआ है
उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया है। यह फैसला कहता है कि समाज में विवाह से पूर्व सेक्स करना गुनाह नहीं है। इस फैसले के साथ ही शुरु हो गया है एक अंतहीन बहस का सिलसिला। सवालों के असंख्य चेहरे हैं और इनमें एक चेहरा जाना-पहचाना है, जो पूछ रहा है कि क्या इस फैसले से नारी स्वतंत्रता की नई राह खुलती है या शोषण का मान्यता प्राप्त अत्याधुनिक रास्ता।
इस फैसले से हम आधुनिक हो रहे हैं या लौट रहे हैं उसी बर्बर युग की ओर जब मानव सभ्य नहीं हुआ था और उसे खुली आजादी थी कभी भी, किसी भी स्त्री या पुरुष के साथ मनचाहे दिनों तक रहने की। और जब चाहे उसे छोड़ देने की। सच तो यह है कि मानव की विकास-यात्रा में जितने और जैसे-जैसे प्रयोग महिला और उसकी आजादी के साथ हुए उतने शायद ही किसी और के साथ हुए होंगे।
आदिम युग
इस युग की स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से संबंध बनाने की पूर्ण आजादी थी। उन पुरुषों का उस पर कोई अधिकार भी नहीं था। स्त्री का अपना एक वजूद था। स्त्री तय करती थी कि अपना शरीर उसे कब, किसे और कितने दिनों तक सौंपना है। वह जब चाहे जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती थी। और तो और जिस पुरुष से चाहे उससे बच्चों को जन्म दे सकती थी।
आदिम युग में आजादी इसलिए भी थी क्योंकि गुलामी नहीं थी। आजादी शब्द की गुहार ही तब लगी जब कबीलाई परंपरा के आगमन के साथ स्त्रियों की दुर्दशा शुरू हुई।
कबीला युग
जैसे-जैसे मानव की समझ में विस्तार हुआ, कबीलाई प्रथा ने जन्म लिया। प्राकृतिक आपदाओं और दुश्मनों से बचने के लिए मानव ने समूहों में रहना आरंभ किया। जब एक कबीला दूसरे कबीले की स्त्रियों और बच्चों को लूटने लगा और जब स्त्रियों की वजह से कबीलों में संघर्ष होने लगा तब शायद इस जरूरत ने जन्म लिया होगा कि स्त्री को अपने ही अधिकार में कैसे रखा जाए।
यहाँ से आरंभ होता है महिलाओं के दमन का ऐसा कुचक्र जो समय बदलने के साथ अपनी गति पकड़ता गया पर थमा नहीं। दिशा बदलता रहा पर सुधरा नहीं। हालाँकि अपनी पसंद के पुरुष से संबंध बनाने के अधिकार का वह प्रयोग करती रही मगर चोरी-चुपके।
सभ्य युग
हमारी सामाजिक व्यवस्था के सभ्य और सुसंस्कृत होने के साथ ही विवाह नाम की संस्था ने जन्म लिया। विवाह नामक संस्था या कहें कि संस्कार के साथ दो विपरीत लिंगी के जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहने की एक अनूठी परंपरा अस्तित्व में आई। एक ऐसी सुगठित समन्वित व्यवस्था जिसमें दो अपोजिट सेक्स मान्यता प्राप्त तरीके से साथ जीवन गुजार सकते हैं। इस तरह से जीवन यापन को समाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा की नजर से देखा जाने लगा। विवाह परंपरा ने महिलाओं को सुरक्षा कवच प्रदान किया। मगर स्त्री और पुरुष अपने मन को इस युग में भी नहीं रोक सके इसके सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे।
राजा-महाराजाओं का युग
यह वह युग था जब स्त्रियाँ तमाम वैभव और ऐश्वर्य को तो भोग रही थी, मगर खुद भी भोग की एक वस्तु बन गई। राजा-महाराजा युद्धों में उसे जीत कर लाने लगे। और जिसे जीत कर हासिल किया हो भला उसका भी कोई सम्मान हो सकता था? वह जीत कर लाई गई एक ऐसी सामग्री बन गई जिसका पुरूष राजा को भरपूर इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त था।
इस युग में नारी ने अपनी पसंद के जीवनसाथी को चयन करने का अधिकार स्वयंवर द्वारा हासिल किया। लेकिन राजकुमार-राजकुमारियों के कई ऐसे किस्से हमें मिलते हैं जिनमें विवाह परंपरा को धता बता कर उन्होंने रिश्ते बनाए और निभाए।
पौराणिक युग
पौराणिक युग की हर कथा में चाहे वह मेनका हो या शकुंतला, उर्वशी, चित्रलेखा हो या चित्रांगदा, विवाह पूर्व संबंध बनाने की बात सामने आती है। द्वापर युग की कुंती हो या निषाद पुत्री, सुभद्रा हो या रुक्मणि, सभी ने अपनी पसंद के पुरुष से बिना विवाह संबंध बनाए और उनके परिणाम-दुष्परिणाम भोगे।
धर्म ने कभी नहीं कहा
दुनिया के किसी भी धर्म का कोई भी ग्रंथ उठा लीजिए। किसी धर्म ने स्त्रियों पर बंधन नहीं लादे हैं। अगर मर्यादा और नैतिकता की बात कही भी तो वह मनुष्य मात्र के लिए कही। जिसमें पुरुष भी शामिल है। अब जब धर्म नहीं कहता तो समाज के ये कौन और कैसे लोग हैं जो दो आत्माओं के स्वैच्छा से रहने के फैसले पर बिलबिला रहे हैं?
विवाह अब बचा कितना है?
दिल्ली की तीस हजारी अदालत में प्रति सप्ताह 10 से 12 हजार जोड़े तलाक की अर्जी लेकर आ रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इनमें मर्जी से शादी करने वाले ज्यादा हैं। परिवार की मर्जी से शादी करने वाले कम है इसका यह मतलब नहीं कि वे खुशहाल हैं। पारिवारिक हिंसा और खटपट के अनंत किस्से यहाँ भी कसमसा रहे हैं। महिलाएँ रिश्तों के दुहाई के नाम पर घुट रही है। आजादी नाम का पंछी ना जाने किस कोने में साँस लेने के लिए छटपटा रहा है। ऐसे में भला बताएँ कि लिव इन रिलेशन में बुराई क्या है?
करियर ने दम घोंटा है ख्वाहिशों का
लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने लड़कियों और लड़कों की वरीयता सूची से विवाह को नीचे धकेला है लेकिन एक उम्र विशेष में शरीर की जरूरतें वही रहती है। प्राकृतिक रूप से शरीर के भीतरी तमन्नाएँ उसी तरह अँगड़ाई लेती है जैसी पहले लेती थी। बल्कि बदलते दौर में जब खुलेपन ने तकनीक के माध्यम से अब सिर्फ 'घर' के बजाय हथेली में अत्याधुनिक मोबाइल के रूप में जगह बना ली है, शरीर की बॉयलॉजिकल नीड्स भी उसी तुलना में बढ़ी है और यह स्वाभाविक भी है।
ऐसे में युवकों के लिए तो ठिकाने बने हैं मगर युवतियाँ, वे कहाँ किस जगह जाएँ अपने जिस्म को लेकर। वहाँ भी तो परंपराएँ, सम्मान, प्रतिष्ठा जैसे शब्द बैठें हैं उसकी पहरेदारी के लिए। ऐसे में सार्वजनिक रूप से वह अपने पुरुष मित्र के साथ बिना विवाह किए रहती है तो समाज के पेट में हो रहा दर्द समझ से परे है।
अगर फैसला कुछ और होता
मान लीजिए अगर न्यायालय का फैसला होता कि विवाह से पूर्व साथ रहना सही नहीं है तो क्या उसका ये लोग उसी स्वर में स्वागत करते जिस स्वर में विरोध कर रहे हैं? क्या मन के रिश्ते किसी विवाह, किसी मंत्र, किसी कसम के मोहताज हैं? अगर मन के बीच दुरियाँ हैं तो दुनिया की कोई रस्म कोई परंपरा खुशियाँ नहीं ला सकती रिश्तों में। दो मन अगर एक-दुजे को समझने-जानने के लिए साथ रहते हैं या अपनी नैसर्गिक आवश्यकताओं के लिए साहस के साथ, संग रहने का फैसला लेते हैं तो गलत कैसे हुए?
चोर-रिश्तों से तो बेहतर है
फैसले का विरोध करें मगर सिर्फ विरोध के लिए नहीं। तार्किकता के साथ आगे आएँ कि क्या इस विरोध से समाज में बनने वाले 'चोर रिश्ते' बंद हो जाएँगे? जब हम जानते हैं कि ऐसे रिश्ते ना किसी युग में रुके हैं ना किसी युग में रूकेंगें। तो क्या फर्क पड़ता है अदालत के फैसले से। कौन सी संस्कृति बच जाएगी? और किस संस्कृति की बात कर रहे हैं, जिसे पहले ही दीमक लग चुका है उसकी?
क्या बेहतर यह नहीं होगा कि हम अपने युवा को खुलकर जीने का माहौल दे, उसे खुद चोट खानें दें और स्वविवेक के आधार पर अपनी परिधि खुद तय करने दें। याद है ना कि स्प्रिंग को जितनी जोर से दबाएँगे वह उतनी ही जोर से उछलेगी तो फिर बंद क्यों नहीं करते हम युवाओं को स्प्रिंग की तरह दबाना? उड़ने दो उन्हें खुलकर आकाश में, नियम खुद-ब-खुद बन जाएँगे बनाने नहीं पड़ेगें।
उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया है। यह फैसला कहता है कि समाज में विवाह से पूर्व सेक्स करना गुनाह नहीं है। इस फैसले के साथ ही शुरु हो गया है एक अंतहीन बहस का सिलसिला। सवालों के असंख्य चेहरे हैं और इनमें एक चेहरा जाना-पहचाना है, जो पूछ रहा है कि क्या इस फैसले से नारी स्वतंत्रता की नई राह खुलती है या शोषण का मान्यता प्राप्त अत्याधुनिक रास्ता।
इस फैसले से हम आधुनिक हो रहे हैं या लौट रहे हैं उसी बर्बर युग की ओर जब मानव सभ्य नहीं हुआ था और उसे खुली आजादी थी कभी भी, किसी भी स्त्री या पुरुष के साथ मनचाहे दिनों तक रहने की। और जब चाहे उसे छोड़ देने की। सच तो यह है कि मानव की विकास-यात्रा में जितने और जैसे-जैसे प्रयोग महिला और उसकी आजादी के साथ हुए उतने शायद ही किसी और के साथ हुए होंगे।
आदिम युग
इस युग की स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से संबंध बनाने की पूर्ण आजादी थी। उन पुरुषों का उस पर कोई अधिकार भी नहीं था। स्त्री का अपना एक वजूद था। स्त्री तय करती थी कि अपना शरीर उसे कब, किसे और कितने दिनों तक सौंपना है। वह जब चाहे जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती थी। और तो और जिस पुरुष से चाहे उससे बच्चों को जन्म दे सकती थी।
आदिम युग में आजादी इसलिए भी थी क्योंकि गुलामी नहीं थी। आजादी शब्द की गुहार ही तब लगी जब कबीलाई परंपरा के आगमन के साथ स्त्रियों की दुर्दशा शुरू हुई।
कबीला युग
जैसे-जैसे मानव की समझ में विस्तार हुआ, कबीलाई प्रथा ने जन्म लिया। प्राकृतिक आपदाओं और दुश्मनों से बचने के लिए मानव ने समूहों में रहना आरंभ किया। जब एक कबीला दूसरे कबीले की स्त्रियों और बच्चों को लूटने लगा और जब स्त्रियों की वजह से कबीलों में संघर्ष होने लगा तब शायद इस जरूरत ने जन्म लिया होगा कि स्त्री को अपने ही अधिकार में कैसे रखा जाए।
यहाँ से आरंभ होता है महिलाओं के दमन का ऐसा कुचक्र जो समय बदलने के साथ अपनी गति पकड़ता गया पर थमा नहीं। दिशा बदलता रहा पर सुधरा नहीं। हालाँकि अपनी पसंद के पुरुष से संबंध बनाने के अधिकार का वह प्रयोग करती रही मगर चोरी-चुपके।
सभ्य युग
हमारी सामाजिक व्यवस्था के सभ्य और सुसंस्कृत होने के साथ ही विवाह नाम की संस्था ने जन्म लिया। विवाह नामक संस्था या कहें कि संस्कार के साथ दो विपरीत लिंगी के जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहने की एक अनूठी परंपरा अस्तित्व में आई। एक ऐसी सुगठित समन्वित व्यवस्था जिसमें दो अपोजिट सेक्स मान्यता प्राप्त तरीके से साथ जीवन गुजार सकते हैं। इस तरह से जीवन यापन को समाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा की नजर से देखा जाने लगा। विवाह परंपरा ने महिलाओं को सुरक्षा कवच प्रदान किया। मगर स्त्री और पुरुष अपने मन को इस युग में भी नहीं रोक सके इसके सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे।
राजा-महाराजाओं का युग
यह वह युग था जब स्त्रियाँ तमाम वैभव और ऐश्वर्य को तो भोग रही थी, मगर खुद भी भोग की एक वस्तु बन गई। राजा-महाराजा युद्धों में उसे जीत कर लाने लगे। और जिसे जीत कर हासिल किया हो भला उसका भी कोई सम्मान हो सकता था? वह जीत कर लाई गई एक ऐसी सामग्री बन गई जिसका पुरूष राजा को भरपूर इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त था।
इस युग में नारी ने अपनी पसंद के जीवनसाथी को चयन करने का अधिकार स्वयंवर द्वारा हासिल किया। लेकिन राजकुमार-राजकुमारियों के कई ऐसे किस्से हमें मिलते हैं जिनमें विवाह परंपरा को धता बता कर उन्होंने रिश्ते बनाए और निभाए।
पौराणिक युग
पौराणिक युग की हर कथा में चाहे वह मेनका हो या शकुंतला, उर्वशी, चित्रलेखा हो या चित्रांगदा, विवाह पूर्व संबंध बनाने की बात सामने आती है। द्वापर युग की कुंती हो या निषाद पुत्री, सुभद्रा हो या रुक्मणि, सभी ने अपनी पसंद के पुरुष से बिना विवाह संबंध बनाए और उनके परिणाम-दुष्परिणाम भोगे।
धर्म ने कभी नहीं कहा
दुनिया के किसी भी धर्म का कोई भी ग्रंथ उठा लीजिए। किसी धर्म ने स्त्रियों पर बंधन नहीं लादे हैं। अगर मर्यादा और नैतिकता की बात कही भी तो वह मनुष्य मात्र के लिए कही। जिसमें पुरुष भी शामिल है। अब जब धर्म नहीं कहता तो समाज के ये कौन और कैसे लोग हैं जो दो आत्माओं के स्वैच्छा से रहने के फैसले पर बिलबिला रहे हैं?
विवाह अब बचा कितना है?
दिल्ली की तीस हजारी अदालत में प्रति सप्ताह 10 से 12 हजार जोड़े तलाक की अर्जी लेकर आ रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इनमें मर्जी से शादी करने वाले ज्यादा हैं। परिवार की मर्जी से शादी करने वाले कम है इसका यह मतलब नहीं कि वे खुशहाल हैं। पारिवारिक हिंसा और खटपट के अनंत किस्से यहाँ भी कसमसा रहे हैं। महिलाएँ रिश्तों के दुहाई के नाम पर घुट रही है। आजादी नाम का पंछी ना जाने किस कोने में साँस लेने के लिए छटपटा रहा है। ऐसे में भला बताएँ कि लिव इन रिलेशन में बुराई क्या है?
करियर ने दम घोंटा है ख्वाहिशों का
लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने लड़कियों और लड़कों की वरीयता सूची से विवाह को नीचे धकेला है लेकिन एक उम्र विशेष में शरीर की जरूरतें वही रहती है। प्राकृतिक रूप से शरीर के भीतरी तमन्नाएँ उसी तरह अँगड़ाई लेती है जैसी पहले लेती थी। बल्कि बदलते दौर में जब खुलेपन ने तकनीक के माध्यम से अब सिर्फ 'घर' के बजाय हथेली में अत्याधुनिक मोबाइल के रूप में जगह बना ली है, शरीर की बॉयलॉजिकल नीड्स भी उसी तुलना में बढ़ी है और यह स्वाभाविक भी है।
ऐसे में युवकों के लिए तो ठिकाने बने हैं मगर युवतियाँ, वे कहाँ किस जगह जाएँ अपने जिस्म को लेकर। वहाँ भी तो परंपराएँ, सम्मान, प्रतिष्ठा जैसे शब्द बैठें हैं उसकी पहरेदारी के लिए। ऐसे में सार्वजनिक रूप से वह अपने पुरुष मित्र के साथ बिना विवाह किए रहती है तो समाज के पेट में हो रहा दर्द समझ से परे है।
अगर फैसला कुछ और होता
मान लीजिए अगर न्यायालय का फैसला होता कि विवाह से पूर्व साथ रहना सही नहीं है तो क्या उसका ये लोग उसी स्वर में स्वागत करते जिस स्वर में विरोध कर रहे हैं? क्या मन के रिश्ते किसी विवाह, किसी मंत्र, किसी कसम के मोहताज हैं? अगर मन के बीच दुरियाँ हैं तो दुनिया की कोई रस्म कोई परंपरा खुशियाँ नहीं ला सकती रिश्तों में। दो मन अगर एक-दुजे को समझने-जानने के लिए साथ रहते हैं या अपनी नैसर्गिक आवश्यकताओं के लिए साहस के साथ, संग रहने का फैसला लेते हैं तो गलत कैसे हुए?
चोर-रिश्तों से तो बेहतर है
फैसले का विरोध करें मगर सिर्फ विरोध के लिए नहीं। तार्किकता के साथ आगे आएँ कि क्या इस विरोध से समाज में बनने वाले 'चोर रिश्ते' बंद हो जाएँगे? जब हम जानते हैं कि ऐसे रिश्ते ना किसी युग में रुके हैं ना किसी युग में रूकेंगें। तो क्या फर्क पड़ता है अदालत के फैसले से। कौन सी संस्कृति बच जाएगी? और किस संस्कृति की बात कर रहे हैं, जिसे पहले ही दीमक लग चुका है उसकी?
क्या बेहतर यह नहीं होगा कि हम अपने युवा को खुलकर जीने का माहौल दे, उसे खुद चोट खानें दें और स्वविवेक के आधार पर अपनी परिधि खुद तय करने दें। याद है ना कि स्प्रिंग को जितनी जोर से दबाएँगे वह उतनी ही जोर से उछलेगी तो फिर बंद क्यों नहीं करते हम युवाओं को स्प्रिंग की तरह दबाना? उड़ने दो उन्हें खुलकर आकाश में, नियम खुद-ब-खुद बन जाएँगे बनाने नहीं पड़ेगें।
पाकिस्तानी सेना में 'सेक्स स्लेव्स'
पाकिस्तानी सेना में 'सेक्स स्लेव्स'
-संदीप तिवारी
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले एक गैर सरकारी संगठन, यूरोपियन आर्गनाइजेशन ऑफ पाकिस्तानी माइनॉरिटीज (इओपीएम) का दावा है कि पाकिस्तानी सेना योजनाबद्ध तराके से देश के अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं को सेना में 'सेक्स स्लेव्स' की तरह से इस्तेमाल कर रही है।
इस संबंध में संगठन ने कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र में एक सभा और प्रदर्शन का आयोजन किया और कहा कि पाकिस्तानी सेना अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों, महिलाओं का उनके परिवार से अपहरण कर उनके साथ बलात्कार करती है और उन्हें सेक्स स्लेव्स की तरह प्रयोग करती है। इस प्रदर्शन में सौ से अधिक महिलाओं ने हिस्सा लिया।
इनका कहना है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर पाकिस्तानी सेना के हमले बढ़ रहे हैं और लाहौर में दिसंबर में ईसाईयों के घरों पर हमले किए गए। इन महिलाओं का कहना है कि बलोचिस्तान और गिलगित बाल्टिस्तान में महिलाओं की हालत बहुत अधिक खराब है। सैनिक अधिकारी इन क्षेत्रों की महिलाओं को जबरन अपने यातना शिविरों में ले जाते हैं, उनके साथ बलात्कार करते हैं और उन्हें सेक्स स्लेव्स बनाकर रखते हैं।
संगठन का दावा है कि क्वेटा की 23 वर्षीय स्कूली अध्यापिका जरीना मारी का ऐसा ही मामला है जिसका सेना में सेक्स स्लेव की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। बाल्टिस्तान और गिलगित बाल्टिस्तान में उन परिवारों को मीडिया से मिलने जुलने भी नहीं दिया जाता है जिनकी लड़कियाँ, महिलाएँ गायब हो गईं और पुलिस ने इनके गायब होने के मामले दर्ज करना तक जरूरी नहीं समझा।
ईसाई, सिख, हिन्दू और अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले किए जाते रहे हैं और 2007 के बाद पाकिस्तान दुनिया का पहला ऐसा देश है जहाँ पर अल्पसंख्यकों पर सबसे ज्यादा हमले किए गए। सोमालिया, सूडान, अफगानिस्तान, म्यांमार और काँगो के साथ पाकिस्तान भी उन देशों में शामिल है जोकि अल्पसंख्यकों के लिए सर्वाधिक खतरनाक और असुरक्षित देश हैं। दस देशों की सूची में पाकिस्तान सातवें नंबर पर है।
बलोचिस्तान की 23 वर्षीया जरीना मारी को 2005 के अंतिम महीनों में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें कराची के सैनिक यातना प्रकोष्ठ में रखा गया और उन्हें किसी से संपर्क करने की इजाजत नहीं है। सैनिक अधिकारियों ने उनके साथ बारम्बार बलात्कार किया और उनका सेक्स स्लेव के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
साथ ही उनका इस्तेमाल उन लोगों से सरकार के खिलाफ काम करने संबंधी स्वीकृति हासिल करने के लिए किया जाता है जिन्हें गैर कानूनी तरीके से देश विरोधी काम करने के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाता है और ऐसे लोग सेना के यातना शिविरों में बंद रहते हैं।
एक सरकारी एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किए गए एक व्यक्ति ने इस लड़की को सेना के यातना शिविर में पाया। यह व्यक्ति खुद भी नौ माह तक सेना के यातना शिविर में रहा था। उसने इस महिला के बारे में रिपोर्टर्स विदआउट बार्डर्स, इंटरनेशनल रेडक्रॉस और लंदन के वूलविच कोर्ट को जानकारी दी।
इस लड़की के बारे में आजतक कोई भी जानकारी नहीं मिल सकी है। ऐसा माना जा रहा है कि बलोचिस्तान में जो लोग अधिक स्वायत्तता की माँग करते हैं उन परिवारों के पुरुषों के साथ लड़कियों, महिलाओं को भी गिरफ्तार कर लिया जाता है।
बलूची भाषा के एक टीवी चैनल के मैनेजिंग डायरेक्टर मुनीर मेंगल को कराची के हवाई अड्डे से 4 अप्रैल, 2006 को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें नौ महीने तक कराची के यातना शिविर में रखा गया। यहाँ उन्होंने जरीना मारी की हालत को देखा था। उन्होंने सेना की जेल में बहुत सारे मानवाधिकारों का उल्लंघन होते देखा। उनका कहना था कि ' एक बार तो सैनिकों ने निर्वस्त्र जरीना को उनकी कोठरी में धकेल दिया था।' उनका कहना है कि उन्हें पता नहीं कि बाद में इस महिला का क्या हुआ।
एक और बलूची राष्ट्रवादी को सेना ने दो बार गिरफ्तार किया था और उन्हें भी विभिन्न शहरों की सैनिक कोठरियों में रखा गया था। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि सेना की दो यातना कोठरियों में उन्होंने युवा बलूच महिलाओं को नग्नावस्था में देखा था। इन औरतों की हालत बहुत खराब थी।
प्रमुख बलूच नेताओं का कहना है कि उन्हें इस बात की जानकारी है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान या बाद में युवा बलूच लड़कियों को गिरफ्तार किया जाता है और उन्हें गायब कर दिया जाता है। उन्हें यह भी पता है कि सेना की हिरासत में इन महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वे अपनी इज्जत और परिजनों को सरकारी जुल्मों से बचाने के लिए इन बातों को सार्वजनिक रूप से नहीं बतातीं।
अपनी कहानी को मुनीर मेंगल बताते हैं कि सेना के यातना शिविर में उन्हें प्रताडि़त किया गया और उनके लिंग को बुरी तरह घायल कर दिया गया क्योंकि उन्होंने जरीना मारी के साथ सेक्स करने से मना कर दिया था।
उन्होंने रिपोर्टर्स विदाउट फ्रंटियर्स (आर एसएफ) को बताया कि ' 27 जनवरी 2007 को शाम छह बजे सेना की खुफिया शाखा के मेजर इकरार गुल नियाजी ने उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। उन्हें कुछ नंगी तस्वीरें दिखाईं और हँसते हुए कहा कि आप एक टीवी चैनल के डायरेक्टर रह चुके हैं और अभिनेत्रियों के साथ आपके अच्छे संबंध भी रहे होंगे।'
जब वे अपनी कोठरी में वापस लौटे तो सारे फर्श पर अश्लील तस्वीरें बिखरी पड़ीं थीं। रात करीब12 बजे सूबेदार कहलाने वाला सैन्यकर्मी एक महिला को कोठरी में लाया। यह महिला डर के मारे काँप रही थी और रो रही थी। उसने महिला को उनके उपर गिरा दिया और कहा कि ' तुम्हें पता है कि इसके साथ क्या करना है। तुम बच्चे नहीं हो कि हम तुम्हें बताएँ कि इस औरत के साथ तुम्हें क्या करना है।'
मेंगल कहते हैं कि करीब आधा घंटे बाद वह सूबेदार फिर लौटा और दोनों को अलग अलग बैठे हुए देखकर दोनों को गालियाँ देने लगा। उसने दोनों के कपड़े उतार दिए। वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि महिला बलूच भाषा में प्रार्थना करने लगी। उसने बताया कि उसका नाम जरीना मारी है और वह कोहलू क्षेत्र की रहने वाली है। यह विद्रोही मारी जनजाति का मुख्यालय है। यहाँ से 2005 में हिंसक सरकार विरोधी संघर्ष शुरू हुआ था।
उसका कहना था कि वह एक स्कूली अध्यापिका थी और सैनिकों ने उसे उसके एक साल के बेटे के साथ अगवा कर लिया था। जरीना का कहना था कि सैनिक उन पर आरोप लगाते हैं कि वे बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के लिए जासूसी करती हैं। उसने मेंगल से कहा कि वह उसकी हत्या करके मुक्ति दे दें। उसने कहा कि इन लोगों ने कई बार उसका शोषण किया है।
मेंगल कहते हैं कि जब उन्होंने जरीना के साथ सेक्स करने से इनकार कर दिया तो उनके गोपनीय अंगों पर सैनिक अधिकारियों ने घाव कर दिए। उन्हें लगा कि सैनिक उन्हें नपुंसक बनाकर ही छोड़ेंगे या उनका लिंग ही काट देंगे। जरीना ने उन्हें बताया कि उसने यातना कमरों में और कुछ महिलाओं को देखा है लेकिन उसे किसी से भी बात नहीं कर ने दी गई।
उस समय कर्नल रजा पाक सेना के उस सेल (प्रकोष्ठ) के इंचार्ज थे। कुछ दिनों बाद जब उनका तबादला रावलपिंडी के लिए हो गया तो कर्नल अब्दुल मलिक कश्मीरी को सेना के यातना प्रकोष्ठ का प्रमुख बनाया गया।
चार अगस्त 2007 को मुनीर मेंगल को सेना के यातना सेल से छोड़ दिया गया और 5 अगस्त को उन्हें असैनिक जेल में रखा गया। इंटरनेशनल कमिटी ऑफ द रेड क्रॉस (आईसीआरसी) के प्रतिनिधि उनसे खुजादार जेल में मिले। अगले दिन डॉक्टरों ने उनके घायल लिंग का परीक्षण किया।
आईसीआरसी के अधिकारी एंड्रयू बार्टललेज मेंगल से कई बार जेल में मिले और उन्होंने कहा कि वे तब तक जरीना मारी का मामला नहीं उठा सकते हैं जबतक कि उन्हें जेल से रिहा नहीं किया जाता है। अगर ऐसा किया जाता तो दोनों की जान को खतरा हो सकता था।
एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन (एएचआरसी) पहले ही जानकारी दे चुका है कि पाकिस्तानी सेना द्वारा 52 यातना सेल्स चलाए जाते हैं। कराची में ही सेना के तीन यातना प्रकोष्ठ हैं। मेंगल ने कहा कि राजनीतिक विरोधियों से सरकार के खिलाफ कामों में लिप्त होने संबंधी स्वीकारोक्तियाँ पाने के लिए सेना द्वारा सेक्स स्लेव्स का इस्तेमाल किया जाता है।
पाकिस्तान अपने को इस्लामी लोकतांत्रिक गणराज्य कहता है लेकिन इसके शासकों में इतना भी साहस नहीं है कि वे अपनी सेना पर ही नियंत्रण रख सकें। इसकी सेना यातना ही नहीं और भी बहुत घृणित कार्यों में लगी रहती है। यह सभ्य समाज के उन सभी नियमों को ताक पर रखती है और पाकिस्तान को बर्बर, आदिमयुगीन राज्य बनाने पर तुली हुई है।
उल्लेखनीय है कि यह पहला मौका नहीं है जबकि पाकिस्तानी सेना पर ऐसे आरोप लगाए गए हैं और ऐसे बहुत से मामले सच भी साबित हुए हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बुरा व्यवहार और उनके अधिकारों का हनन एक राज्य प्रायोजित कार्यक्रम बन गया है। बांग्लादेश युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में जो कुछ किया है उससे यह बात साफ हो जाती है कि पाक सैनिक अपने ही देशवासियों के साथ दुर्व्यवहार करने के मामले में किसी भी हद तक नीचे गिर सकते हैं।
पाकिस्तानी सेना ने तब 30 लाख लोगों का कत्ल किया था लेकिन पाकिस्तान सरकार ने इस तरह से मारे जाने वाले लोगों की संख्या 26 हजार बताई थी। बड़ी संख्या में महिलाओं को यातना दी गई थी, उनके साथ बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। ऐसी महिलाओं की संख्या दो लाख से अधिक बताई जाती है। युद्ध के बाद हजारों की संख्या में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया।
उस समय भी ढाका छावनी में पाकिस्तानी सेना ने बंगाली महिलाओं को सेक्स स्लेव्स बनाकर रखा था। इनमें से ज्यादातर लड़कियाँ, महिलाएँ ढाका विश्वविद्यालय से पकड़ी गई थीं और काफी बड़ी संख्या में घरों से अगवा कर ली गई थीं।
कहा जाता है कि उस समय जनरल टिक्का खान ने अपने सैनिक अधिकारियों को समझाया था कि एक मुस्लिम सेना द्वारा ही मुस्लिमों का कत्लेआम क्यों जरूरी है। हिंदुओं का बध क्यों जरूरी है और क्यों युवा बंगाली लड़कियों के साथ बलात्कार किया जाए। इससे न केवल सैनिकों की हवस को शाँत किया जा सकता है वरन इससे सच्ची मुस्लिम आबादी की पीढ़ी को भी पैदा किया जा सकेगा।
सूसन ब्राउनमिलर ने तब पूर्वी पाकिस्तान में बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या चार लाख से भी अधिक बताई थी। ढाका में एक फोटो पत्रकार ने खादिगा नाम की तेरह वर्षीय लड़की का साक्षात्कार लिया था। जिसमें बताया गया कि जब वह अपनी चार अन्य सहेलियों के साथ स्कूल जा रही थी तो सैनिकों के एक गुट ने उनका अपहरण कर लिया था और पाँचों को सेना के मोहम्मदपुर स्थित वेश्यालय में भेज दिया गया था। छह माह बाद युद्ध खत्म हुआ, तभी इन लड़कियों को सेक्स स्लेवरी से छुटकारा मिल सका।
इतना ही नहीं, 15 अप्रैल, 1971 को पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाजी को भी पता था कि उनके सैनिक क्या कर रहे हैं। इस दिन अपने डिवीजनल कमांडरों को भेजे एक गोपनीय मेमोरेंडम में जनरल नियाजी ने कहा था कि ' यहाँ आने के बाद मुझे सैनिकों द्वारा लूटपाट करने, लोगों की हत्या करने के मामले सुनाई दिए हैं।
हाल ही में तो बलात्कार की भी खबरें आ रही हैं। और तो और पश्चिमी पाकिस्तानियों को भी नहीं बख्शा जा रहा है। 12 अप्रैल को दो पश्चिमी पाकिस्तानी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और दो अन्य के साथ ऐसा करने की कोशिश की गई।'
यह पाक सेना के तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के सर्वोच्च सैन्य कमांडर का कहना था और इसलिए आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि युद्ध के दौरान सैनिकों के बंकरों में कुरान की प्रतियों के साथ महिलाओं के अंतर्वस्त्र भी बड़ी संख्या में मिले थे।
पाकिस्तान में मुस्लिम महिलाओं के साथ ऐसा होना आम है तो धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों की महिलाओं का क्या हाल होता है ? यह भी जान लीजिए। हिंदू और ईसाई समुदायों की शहरों में रहने वाली महिलाओं को सफाई कर्मियों या मैला ढोने का काम मिलता है। वे प्रति माह 12 अमेरिकी डॉलर से भी कम कमाती हैं। उनके न कोई बुनियादी मानव अधिकार होते हैं और न ही कोई श्रम कानून।
शहर के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में ये लोग मुस्लिम बस्तियों से दूर झोपडि़यों में रहते हैं और इन्हें अनुसूचित जाति की तरह समझा जाता है। सिंध राज्य में हिंदू महिलाएँ जमींदारी समाज का शिकार हैं। ये महिलाएँ और इनके पुरुष भी हमेशा ही कर्ज में डूबे रहते हैं जोकि भूमि मालिकों द्वारा दिए गए कर्जों के तले दबे रहते हैं।
सिंध प्रांत में हिंदू समुदाय विभिन्न अनुसूचित जातियों-भील, कोहली और अन्य- का संगम है जोकि भारतीय सीमा से लगे इलाकों में रहता है। बादिन, मीरपुरखास, संघर, उमरकोट और थारपारकर जिलों में हिंदू महिलाओं का अपहरण, बलात्कार, मनमानी गिरफ्तारी, यातनाएँ और विस्थापन तथा हत्याएँ तक आम हैं। इन जिलों में धार्मिक घृणा के चलते और कर्ज में होने के कारण महिलाएँ सेक्स स्लेव्स का जीवन बिताती हैं।
जब यह सब नगरीय जीवन का आईना है तो सैनिक प्रशासन तो कुछ भी कर सकता है उसके लिए धार्मिक अल्पसंख्यक क्या, मुस्लिम समुदाय की महिलाएँ क्या, किसी भी समुदाय की महिलाओं को सेक्स स्लेव्स बनाना विशेषाधिकार का हिस्सा है। जो कुछ सेना करती है, उससे जो कुछ छूट जाता है, उस अत्याचार, उत्पीड़न की खुराक आम जनता को कट्टरपंथी गुट पिलाते रहते हैं।
-संदीप तिवारी
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले एक गैर सरकारी संगठन, यूरोपियन आर्गनाइजेशन ऑफ पाकिस्तानी माइनॉरिटीज (इओपीएम) का दावा है कि पाकिस्तानी सेना योजनाबद्ध तराके से देश के अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं को सेना में 'सेक्स स्लेव्स' की तरह से इस्तेमाल कर रही है।
इस संबंध में संगठन ने कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र में एक सभा और प्रदर्शन का आयोजन किया और कहा कि पाकिस्तानी सेना अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों, महिलाओं का उनके परिवार से अपहरण कर उनके साथ बलात्कार करती है और उन्हें सेक्स स्लेव्स की तरह प्रयोग करती है। इस प्रदर्शन में सौ से अधिक महिलाओं ने हिस्सा लिया।
इनका कहना है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर पाकिस्तानी सेना के हमले बढ़ रहे हैं और लाहौर में दिसंबर में ईसाईयों के घरों पर हमले किए गए। इन महिलाओं का कहना है कि बलोचिस्तान और गिलगित बाल्टिस्तान में महिलाओं की हालत बहुत अधिक खराब है। सैनिक अधिकारी इन क्षेत्रों की महिलाओं को जबरन अपने यातना शिविरों में ले जाते हैं, उनके साथ बलात्कार करते हैं और उन्हें सेक्स स्लेव्स बनाकर रखते हैं।
संगठन का दावा है कि क्वेटा की 23 वर्षीय स्कूली अध्यापिका जरीना मारी का ऐसा ही मामला है जिसका सेना में सेक्स स्लेव की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। बाल्टिस्तान और गिलगित बाल्टिस्तान में उन परिवारों को मीडिया से मिलने जुलने भी नहीं दिया जाता है जिनकी लड़कियाँ, महिलाएँ गायब हो गईं और पुलिस ने इनके गायब होने के मामले दर्ज करना तक जरूरी नहीं समझा।
ईसाई, सिख, हिन्दू और अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले किए जाते रहे हैं और 2007 के बाद पाकिस्तान दुनिया का पहला ऐसा देश है जहाँ पर अल्पसंख्यकों पर सबसे ज्यादा हमले किए गए। सोमालिया, सूडान, अफगानिस्तान, म्यांमार और काँगो के साथ पाकिस्तान भी उन देशों में शामिल है जोकि अल्पसंख्यकों के लिए सर्वाधिक खतरनाक और असुरक्षित देश हैं। दस देशों की सूची में पाकिस्तान सातवें नंबर पर है।
बलोचिस्तान की 23 वर्षीया जरीना मारी को 2005 के अंतिम महीनों में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें कराची के सैनिक यातना प्रकोष्ठ में रखा गया और उन्हें किसी से संपर्क करने की इजाजत नहीं है। सैनिक अधिकारियों ने उनके साथ बारम्बार बलात्कार किया और उनका सेक्स स्लेव के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
साथ ही उनका इस्तेमाल उन लोगों से सरकार के खिलाफ काम करने संबंधी स्वीकृति हासिल करने के लिए किया जाता है जिन्हें गैर कानूनी तरीके से देश विरोधी काम करने के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाता है और ऐसे लोग सेना के यातना शिविरों में बंद रहते हैं।
एक सरकारी एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किए गए एक व्यक्ति ने इस लड़की को सेना के यातना शिविर में पाया। यह व्यक्ति खुद भी नौ माह तक सेना के यातना शिविर में रहा था। उसने इस महिला के बारे में रिपोर्टर्स विदआउट बार्डर्स, इंटरनेशनल रेडक्रॉस और लंदन के वूलविच कोर्ट को जानकारी दी।
इस लड़की के बारे में आजतक कोई भी जानकारी नहीं मिल सकी है। ऐसा माना जा रहा है कि बलोचिस्तान में जो लोग अधिक स्वायत्तता की माँग करते हैं उन परिवारों के पुरुषों के साथ लड़कियों, महिलाओं को भी गिरफ्तार कर लिया जाता है।
बलूची भाषा के एक टीवी चैनल के मैनेजिंग डायरेक्टर मुनीर मेंगल को कराची के हवाई अड्डे से 4 अप्रैल, 2006 को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें नौ महीने तक कराची के यातना शिविर में रखा गया। यहाँ उन्होंने जरीना मारी की हालत को देखा था। उन्होंने सेना की जेल में बहुत सारे मानवाधिकारों का उल्लंघन होते देखा। उनका कहना था कि ' एक बार तो सैनिकों ने निर्वस्त्र जरीना को उनकी कोठरी में धकेल दिया था।' उनका कहना है कि उन्हें पता नहीं कि बाद में इस महिला का क्या हुआ।
एक और बलूची राष्ट्रवादी को सेना ने दो बार गिरफ्तार किया था और उन्हें भी विभिन्न शहरों की सैनिक कोठरियों में रखा गया था। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि सेना की दो यातना कोठरियों में उन्होंने युवा बलूच महिलाओं को नग्नावस्था में देखा था। इन औरतों की हालत बहुत खराब थी।
प्रमुख बलूच नेताओं का कहना है कि उन्हें इस बात की जानकारी है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान या बाद में युवा बलूच लड़कियों को गिरफ्तार किया जाता है और उन्हें गायब कर दिया जाता है। उन्हें यह भी पता है कि सेना की हिरासत में इन महिलाओं का शोषण होता है लेकिन वे अपनी इज्जत और परिजनों को सरकारी जुल्मों से बचाने के लिए इन बातों को सार्वजनिक रूप से नहीं बतातीं।
अपनी कहानी को मुनीर मेंगल बताते हैं कि सेना के यातना शिविर में उन्हें प्रताडि़त किया गया और उनके लिंग को बुरी तरह घायल कर दिया गया क्योंकि उन्होंने जरीना मारी के साथ सेक्स करने से मना कर दिया था।
उन्होंने रिपोर्टर्स विदाउट फ्रंटियर्स (आर एसएफ) को बताया कि ' 27 जनवरी 2007 को शाम छह बजे सेना की खुफिया शाखा के मेजर इकरार गुल नियाजी ने उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। उन्हें कुछ नंगी तस्वीरें दिखाईं और हँसते हुए कहा कि आप एक टीवी चैनल के डायरेक्टर रह चुके हैं और अभिनेत्रियों के साथ आपके अच्छे संबंध भी रहे होंगे।'
जब वे अपनी कोठरी में वापस लौटे तो सारे फर्श पर अश्लील तस्वीरें बिखरी पड़ीं थीं। रात करीब12 बजे सूबेदार कहलाने वाला सैन्यकर्मी एक महिला को कोठरी में लाया। यह महिला डर के मारे काँप रही थी और रो रही थी। उसने महिला को उनके उपर गिरा दिया और कहा कि ' तुम्हें पता है कि इसके साथ क्या करना है। तुम बच्चे नहीं हो कि हम तुम्हें बताएँ कि इस औरत के साथ तुम्हें क्या करना है।'
मेंगल कहते हैं कि करीब आधा घंटे बाद वह सूबेदार फिर लौटा और दोनों को अलग अलग बैठे हुए देखकर दोनों को गालियाँ देने लगा। उसने दोनों के कपड़े उतार दिए। वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि महिला बलूच भाषा में प्रार्थना करने लगी। उसने बताया कि उसका नाम जरीना मारी है और वह कोहलू क्षेत्र की रहने वाली है। यह विद्रोही मारी जनजाति का मुख्यालय है। यहाँ से 2005 में हिंसक सरकार विरोधी संघर्ष शुरू हुआ था।
उसका कहना था कि वह एक स्कूली अध्यापिका थी और सैनिकों ने उसे उसके एक साल के बेटे के साथ अगवा कर लिया था। जरीना का कहना था कि सैनिक उन पर आरोप लगाते हैं कि वे बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के लिए जासूसी करती हैं। उसने मेंगल से कहा कि वह उसकी हत्या करके मुक्ति दे दें। उसने कहा कि इन लोगों ने कई बार उसका शोषण किया है।
मेंगल कहते हैं कि जब उन्होंने जरीना के साथ सेक्स करने से इनकार कर दिया तो उनके गोपनीय अंगों पर सैनिक अधिकारियों ने घाव कर दिए। उन्हें लगा कि सैनिक उन्हें नपुंसक बनाकर ही छोड़ेंगे या उनका लिंग ही काट देंगे। जरीना ने उन्हें बताया कि उसने यातना कमरों में और कुछ महिलाओं को देखा है लेकिन उसे किसी से भी बात नहीं कर ने दी गई।
उस समय कर्नल रजा पाक सेना के उस सेल (प्रकोष्ठ) के इंचार्ज थे। कुछ दिनों बाद जब उनका तबादला रावलपिंडी के लिए हो गया तो कर्नल अब्दुल मलिक कश्मीरी को सेना के यातना प्रकोष्ठ का प्रमुख बनाया गया।
चार अगस्त 2007 को मुनीर मेंगल को सेना के यातना सेल से छोड़ दिया गया और 5 अगस्त को उन्हें असैनिक जेल में रखा गया। इंटरनेशनल कमिटी ऑफ द रेड क्रॉस (आईसीआरसी) के प्रतिनिधि उनसे खुजादार जेल में मिले। अगले दिन डॉक्टरों ने उनके घायल लिंग का परीक्षण किया।
आईसीआरसी के अधिकारी एंड्रयू बार्टललेज मेंगल से कई बार जेल में मिले और उन्होंने कहा कि वे तब तक जरीना मारी का मामला नहीं उठा सकते हैं जबतक कि उन्हें जेल से रिहा नहीं किया जाता है। अगर ऐसा किया जाता तो दोनों की जान को खतरा हो सकता था।
एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन (एएचआरसी) पहले ही जानकारी दे चुका है कि पाकिस्तानी सेना द्वारा 52 यातना सेल्स चलाए जाते हैं। कराची में ही सेना के तीन यातना प्रकोष्ठ हैं। मेंगल ने कहा कि राजनीतिक विरोधियों से सरकार के खिलाफ कामों में लिप्त होने संबंधी स्वीकारोक्तियाँ पाने के लिए सेना द्वारा सेक्स स्लेव्स का इस्तेमाल किया जाता है।
पाकिस्तान अपने को इस्लामी लोकतांत्रिक गणराज्य कहता है लेकिन इसके शासकों में इतना भी साहस नहीं है कि वे अपनी सेना पर ही नियंत्रण रख सकें। इसकी सेना यातना ही नहीं और भी बहुत घृणित कार्यों में लगी रहती है। यह सभ्य समाज के उन सभी नियमों को ताक पर रखती है और पाकिस्तान को बर्बर, आदिमयुगीन राज्य बनाने पर तुली हुई है।
उल्लेखनीय है कि यह पहला मौका नहीं है जबकि पाकिस्तानी सेना पर ऐसे आरोप लगाए गए हैं और ऐसे बहुत से मामले सच भी साबित हुए हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बुरा व्यवहार और उनके अधिकारों का हनन एक राज्य प्रायोजित कार्यक्रम बन गया है। बांग्लादेश युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में जो कुछ किया है उससे यह बात साफ हो जाती है कि पाक सैनिक अपने ही देशवासियों के साथ दुर्व्यवहार करने के मामले में किसी भी हद तक नीचे गिर सकते हैं।
पाकिस्तानी सेना ने तब 30 लाख लोगों का कत्ल किया था लेकिन पाकिस्तान सरकार ने इस तरह से मारे जाने वाले लोगों की संख्या 26 हजार बताई थी। बड़ी संख्या में महिलाओं को यातना दी गई थी, उनके साथ बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। ऐसी महिलाओं की संख्या दो लाख से अधिक बताई जाती है। युद्ध के बाद हजारों की संख्या में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया।
उस समय भी ढाका छावनी में पाकिस्तानी सेना ने बंगाली महिलाओं को सेक्स स्लेव्स बनाकर रखा था। इनमें से ज्यादातर लड़कियाँ, महिलाएँ ढाका विश्वविद्यालय से पकड़ी गई थीं और काफी बड़ी संख्या में घरों से अगवा कर ली गई थीं।
कहा जाता है कि उस समय जनरल टिक्का खान ने अपने सैनिक अधिकारियों को समझाया था कि एक मुस्लिम सेना द्वारा ही मुस्लिमों का कत्लेआम क्यों जरूरी है। हिंदुओं का बध क्यों जरूरी है और क्यों युवा बंगाली लड़कियों के साथ बलात्कार किया जाए। इससे न केवल सैनिकों की हवस को शाँत किया जा सकता है वरन इससे सच्ची मुस्लिम आबादी की पीढ़ी को भी पैदा किया जा सकेगा।
सूसन ब्राउनमिलर ने तब पूर्वी पाकिस्तान में बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या चार लाख से भी अधिक बताई थी। ढाका में एक फोटो पत्रकार ने खादिगा नाम की तेरह वर्षीय लड़की का साक्षात्कार लिया था। जिसमें बताया गया कि जब वह अपनी चार अन्य सहेलियों के साथ स्कूल जा रही थी तो सैनिकों के एक गुट ने उनका अपहरण कर लिया था और पाँचों को सेना के मोहम्मदपुर स्थित वेश्यालय में भेज दिया गया था। छह माह बाद युद्ध खत्म हुआ, तभी इन लड़कियों को सेक्स स्लेवरी से छुटकारा मिल सका।
इतना ही नहीं, 15 अप्रैल, 1971 को पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाजी को भी पता था कि उनके सैनिक क्या कर रहे हैं। इस दिन अपने डिवीजनल कमांडरों को भेजे एक गोपनीय मेमोरेंडम में जनरल नियाजी ने कहा था कि ' यहाँ आने के बाद मुझे सैनिकों द्वारा लूटपाट करने, लोगों की हत्या करने के मामले सुनाई दिए हैं।
हाल ही में तो बलात्कार की भी खबरें आ रही हैं। और तो और पश्चिमी पाकिस्तानियों को भी नहीं बख्शा जा रहा है। 12 अप्रैल को दो पश्चिमी पाकिस्तानी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और दो अन्य के साथ ऐसा करने की कोशिश की गई।'
यह पाक सेना के तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के सर्वोच्च सैन्य कमांडर का कहना था और इसलिए आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि युद्ध के दौरान सैनिकों के बंकरों में कुरान की प्रतियों के साथ महिलाओं के अंतर्वस्त्र भी बड़ी संख्या में मिले थे।
पाकिस्तान में मुस्लिम महिलाओं के साथ ऐसा होना आम है तो धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों की महिलाओं का क्या हाल होता है ? यह भी जान लीजिए। हिंदू और ईसाई समुदायों की शहरों में रहने वाली महिलाओं को सफाई कर्मियों या मैला ढोने का काम मिलता है। वे प्रति माह 12 अमेरिकी डॉलर से भी कम कमाती हैं। उनके न कोई बुनियादी मानव अधिकार होते हैं और न ही कोई श्रम कानून।
शहर के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में ये लोग मुस्लिम बस्तियों से दूर झोपडि़यों में रहते हैं और इन्हें अनुसूचित जाति की तरह समझा जाता है। सिंध राज्य में हिंदू महिलाएँ जमींदारी समाज का शिकार हैं। ये महिलाएँ और इनके पुरुष भी हमेशा ही कर्ज में डूबे रहते हैं जोकि भूमि मालिकों द्वारा दिए गए कर्जों के तले दबे रहते हैं।
सिंध प्रांत में हिंदू समुदाय विभिन्न अनुसूचित जातियों-भील, कोहली और अन्य- का संगम है जोकि भारतीय सीमा से लगे इलाकों में रहता है। बादिन, मीरपुरखास, संघर, उमरकोट और थारपारकर जिलों में हिंदू महिलाओं का अपहरण, बलात्कार, मनमानी गिरफ्तारी, यातनाएँ और विस्थापन तथा हत्याएँ तक आम हैं। इन जिलों में धार्मिक घृणा के चलते और कर्ज में होने के कारण महिलाएँ सेक्स स्लेव्स का जीवन बिताती हैं।
जब यह सब नगरीय जीवन का आईना है तो सैनिक प्रशासन तो कुछ भी कर सकता है उसके लिए धार्मिक अल्पसंख्यक क्या, मुस्लिम समुदाय की महिलाएँ क्या, किसी भी समुदाय की महिलाओं को सेक्स स्लेव्स बनाना विशेषाधिकार का हिस्सा है। जो कुछ सेना करती है, उससे जो कुछ छूट जाता है, उस अत्याचार, उत्पीड़न की खुराक आम जनता को कट्टरपंथी गुट पिलाते रहते हैं।
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