Friday, August 27, 2010
क्या वास्तव में खूबसूरत लड़कियों के कारण सड़क हादसे हो रहे हैं?
अंजलि सिन्हा
कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि जर्मनी के दक्षिणी शहर कोन्स्टांज में एक लड़का साइकिल More Pictures
चला रहा था तभी उसकी नजर एक सुंदर लड़की पर पड़ी। उसे निहारने के चक्कर में वह साइकिल से गिर पड़ा जिसमें उसे काफी चोट आयी। रुडोल्फ नाम का यह लड़का कोर्ट पहुंचा लड़की के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने। अपनी शिकायत में उसने कहा कि उसके घायल होने का कारण वह लड़की है लिहाजा उसे वह जुर्माना दे। कोर्ट ने उसकी मांग ठुकरा दी और कहा कि साइकिल चलाते वक्त आंखें सड़क पर होनी चाहिए न कि लड़की पर। अभी लंदन के सर्वेक्षण के नतीजों से जर्मनी की यह खबर ताजा हो गई। इस सर्वेक्षण के हवाले से कहा गया है कि खूबसूरत लड़कियों के कारण सड़क हादसे हो रहे हैं।
महिलाएं और एकाग्रता
अध्ययन में पाया गया कि गर्मियों के मौसम में पुरुष अधिक सड़क दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं क्योंकि कार चलाते वक्त उनका ध्यान सड़क पर लड़कियों के छोटे कपड़ों के कारण भटक जाता है। 29 फीसदी पुरुषों ने माना कि सड़क पर महिलाओं को देखने के चक्कर में उनकी एकाग्रता चली जाती है। उधर अमेरिका में भी एक महिला बैंक कर्मचारी को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि उसकी सुंदरता के कारण पुरुष कर्मचारियों का काम में मन नहीं लगता था।
ऐसे प्रेक्षण कुछ सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करते हैं। जैसे, अधिकतर स्टियरिंग के पीछे कौन बैठता है जिसका ध्यान भंग होता है? क्या यह भावना प्राकृतिक है या उन्होंने इसे अपने परिवेश से सीखा है? यदि प्राकृतिक अंश है भी तो वह सिर्फ पुरुषों में नहीं, महिलाओं में भी होगा क्योंकि यौनिकता भाव सिर्फ पुरुषों में नहीं होता है।
कपड़ों का मुद्दा
सभ्यता के दौर में ही इंसान ने सीखा कि वह सिर्फ प्राकृतिक जरूरतें पूरी करने वाला जीव नहीं है बल्कि उसकी जरूरत दूसरे के अधिकार से भी जुड़ी है। यदि महिलाएं भी ऐसी जरूरतों को न्यायसंगत ठहरायें तो पुरुष तो उससे भी अधिक मौका देते हैं। हाफ पैंट या गमछे में बाहर दिख जाते हैं। गांव या कस्बों में सार्वजनिक कुओं या नलके पर नहाने बैठ जाते हैं। गर्मियों में वे अनौपचारिक रूप से जो पोशाक पहने रहते हैं उसमें भी अंगप्रदर्शन होता है। माना कि शारीरिक भिन्नताएं हैं लेकिन आजकल तो यह सब बच्चे अपने पाठ्यक्रम में पढ़ते हैं और उसके प्रति निगाहें कैसी हो, यह वे समाज में सीखते हैं। हमारे पूर्वज जो जंगलों में वस्त्रविहीन रहते थे, या आज भी कई आदिवासी इलाकों का पहनावा कम कपड़ों का है, क्या वहां भी पोशाक ऐसा ही मुद्दा होगा?
पूंजीवादी उपभोक्ता संस्कृति का मसला अलग है जिसमें औरत स्वयं को भी उपभोक्ता वस्तु मानने लगती है। पितृसत्तात्मक समाज में उसने यही सीखा होता है कि उसके पास सबसे बड़ी सम्पत्ति उसकी देह है। लेकिन यह एक अलग मुद्दा है। फिलहाल हम दूसरे पक्ष की बात कर रहे हैं जिसमें घूरने या छींटाकशी करने , किसी लड़की का पीछा करने तथा उसकी शांति भंग करने के लिए जिम्मेदार उसे ही ठहराने का हक पुरुष ले लेते हैं।
लंदन के सर्वे या जर्मनी की घटना या यहां घटनेवाली घटनाओं में एक ही प्रकार की धारणा या मानसिकता काम करती है। वह यह कि उन्हें स्वयं को ठीक नहीं करना , अपने भावनाओं पर नियंत्रण की सीख नहीं लेनी उल्टे इन सबको अपना हक समझ लेना। ऐसा करना धीरे - धीरे स्वाभाविक लगने लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि जर्मनी में वह लड़का केस दायरे करने अदालत चला गया जबकि हमारे यहां छेड़खानी या यौन हिंसा करनेवाले इसे अपना अधिकार मान लेते हैं।
वे कहते हैं कि लड़कियों को देख कर उनका मन मचल जाता है। हमारे समाज में लोग आम तौर पर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि लड़कियां आज कल कपड़े छोटे पहनती हैं इसलिए लड़के छेड़ते हैं। वे गलत समय पर बाहर गई थीं इसलिए बलात्कार की शिकार हो गईं। पुरुषों की दुनिया में सोच विचार कर कदम बाहर नहीं रखेंगी तो खामियाजा भुगतना ही होगा। यह आम धारणा है कि यौन हिंसा का सामना उन्हीं लड़कियों या महिलाओं को करना पड़ता है जो बनी - बनाई लीक पर नहीं चलतीं। यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि किसी ने अस्वीकृत - अमर्यादित पोशाक पहन भी लिया तो इससे दूसरों को उनके खिलाफ मनमानी करने का हक कैसे मिल गया?
अपनी भावनाओं पर नियंत्रण की जिम्मेदारी स्वयं उस व्यक्ति की होती है। दूसरा व्यक्ति कुछ भी पहने हो, जब तक वह इजाजत न दे, तब तक आपको उससे क्या मतलब?
अदालत की समझ
हमारी न्याय व्यवस्था भी पारंपरिक समझ से ही निर्देशित होती रही है। तभी यौन हिंसा के खिलाफ फैसले के वक्त पीडि़ता के चरित्र या यौन संबंध बनाने की अभ्यस्त होने की बात कही जाती रही है। इसीलिए यह माना गया कि वेश्या का कोई हक नहीं है, उसके साथ कोई भी जबरन संबंध स्थापित कर सकता है। हमारे समाज में अधिकांशत : पत्नियों को भी यह हक नहीं मिलता कि वे पति के आग्रह को ठुकरा दें।
मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में जाने की इजाजत इसीलिए नहीं दी जाती है कि इबादत के समय पुरुषों को अल्लाह में ध्यान लगाने में बाधा पहुंचेगी। ऐसा क्यों नहीं सोचा गया कि जो अपनी निगाह पर काबू नहीं पा सकता है वह घर में बैठ कर इबादत करे। यदि कोई स्त्री ध्यान आकर्षित करने का कुचक्र रचती है तो भी जिसने ध्यान दिया , जवाबदेही उसी की बनती है।
आज कल शिक्षण संस्थाओं में वाद - विवाद प्रतियोगिताओं का विषय होता है कि छेड़खानी के लिए पोशाक कितनी जिम्मेदार है ? हमारी पुरानी परंपरा में या आदिवासी संस्कृति में भी कम कपड़े पहनने का रिवाज रहा है। इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि वे सभी स्त्रियां खुद को हिंसा के लिए प्रस्तुत करती हैं। यह देखने वाले या अश्लील व्यवहार करनेवाले के ऊपर निर्भर है कि वह किसी व्यक्ति या वस्तु को किस सोच और मानसिकता से देखता या मापता है। बाकी तो यह अलग ही मुद्दा है कि कोई क्या पहनता है और किस पोशाक में अच्छा दिखता है।
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