श्री श्याम कथा
महाभारत के मघ्यकाल का वर्णन है । बहुत से भक्तजन जानते भी होंगे कि पाण्डव पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र का नाम था - युघिष्ठिर , जिसे घर्मराज कहा जाता था, एवं कौरव पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र का नाम था-दुर्योधन, जो कि अधर्म और असत्य का प्रतिबिम्ब था । बाल्यकाल से लेकर यौवन अवस्था तक कौरव एवं पाण्डव पुत्रों के बीच एक शीत युद्ध हमेशा चलता रहा । युधिष्ठिर अपने धर्म मार्ग को नहीं तयाग सकते थे और दुर्योधन अपने पाप मार्ग को नहीं छोड़ सकताा था । दुर्योधन ने हर पग पर पाण्डव पुत्रों से छल किया और इस छल की चरम सीमा तब पहुॅची, जब लाक्षागृह अर्थात् लाह से बने घर में पाण्डव पुत्रों को ठहरने पर विवश किया । ये उस प्रभु की ही कृपा थी कि उस लाक्षागृह से पांचों पाण्डव माता कुन्ती सहित कुशलतापूर्वक बाहर निकल गये । पापी दुर्योधन को अपना परम शत्रु जानकर ये वापिस हस्तिनापुर नहीं गये । जंगलों में अपना जीवन यापन करने लगे । ये उसी समय का वृतांत है । एक रात बीहड़ वन में माता कुन्ती, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव रात्रि में गहन निद्रा में सो रहे थे और बन के प्रतिक पवन पुत्र गदाधारी भीम इनकी रक्षा के लिए सजग होकर प्रहरी का कार्य कर रहे थे, उसी जंगल में हिडिम्बा नाम का एक राक्षस अपनी छोटी बहन हिडम्बा के साथ रहता था । दूर से ही उसने मानव गंध ले ली और हिडम्बा को कहने लगा कि आज बहुत प्रसन्नता का दिन है कि इस जंगल में कोई मानव है । तुम उसका आखेट करके उन्हें मारकर मेरे पास ले आओ फिर हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक नरमांस खाएंगे । जब हिडम्बा वहां पहुची तो सजग प्रहरी के रूप में भीम को देखकर देव-इच्छावश अपना मन हार बैठी । उसके मन में एक ही भावना थी और वह क्षण-प्रतिक्षण बलवती होती चली गई । ये सिंह जो नर-रूप में है क्यों न इसे मैं पति रूप में वर लूॅ । इससे बड़ा सौभाग्य मेरा और कोई नही हो सकता, उधर देर होती देखकर हिडिम्बा स्वयं वहां आ पहुंचा । उसने पहले तो अपनी बहन को डांटा क्योकि भीम के पास आकर वो राक्षसी स्वभाव भूलकर मनोहर रूप धारण कर बैठी थी, इससे हिडिम्ब को पता लग गया कि मेरी छोटी बहन के मन में इसके प्रति कोमल भावनाएं जागृत हो चुकी हैं । हिडिम्ब के क्रोध का कोई पारावार नहीं था और उसने अपनी बहन को डांटा और ये कहा कि मैं अभी इन सभी को मारकर तुम्हें भी मजा चखाता हुॅ । किन्तु धर्म-परायण महाबली भीम कहने लगे कि यह स्त्री मेरी शरण में आई है और तुम इसका बाल भी बांका नही कर सकते । हिडिम्ब तो अपने मद में चूर था । दोनो में भयंकर युद्ध होने लगा । शस्त्रों के रूप में वृक्षो का प्रयोग होने लगा, पत्थरों का प्रयोग हुआ, मल्ल्युद्ध हुआ । सभी पाण्डव जाग चुके थे, उनका यह विश्वास था कि महाबली भीम इस राक्षस को अवश्य ही पराजित करेंगे और वैसा ही हुआ । हिडिम्ब के मारे जाने पर शीश झुकाए दोनो हाथ जोड़े हिडम्बा, माता कुन्ती की शरण में पहुंची और सविनय बोली, हे मॉ ! मैं तुम्हारे इस महाबली पुत्र को मन ही मन में पति रूप में वरण कर चुकी हूॅ । आप स्त्री हैं, मेरी मन की भवनाओं को जानती हैं मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए कि मैं आपके इस भीम नामी पुत्र को पति रूप में अपना सकू।
धर्मराज युधिष्ठिर और माता कुन्ती ने हिढत्रडम्बा को बहुत समझाया कि देखो हमारा कष्ट का समय चल रहा है, हम वन-वन भटक रहे हैं । ऐसे में इनसे विवाह करके तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? किन्तु देव इच्छा को कौन रोक सकता है । बार-बार की विनय और अनुनय ने माता कुन्ती के दिल को पसीज दिया । भीम और हिडिम्बा का विवाह हो गया और भीम को वहां इस शर्त पर छोड़ दिया गया कि या तो एक वर्ष या फिर हिडिम्बा के एक पुत्र हो जाए तब तुम हिडिम्बा को छोड़कर हमारे पास आ जाओगे । समय का प्रवाह चलता रहा । हिडिम्बा ने एक बालक को जन्म दिया । जन्म के समय बालक के शीश पर कोई बाल नहीं था, इसलिए उस बालक को नाम दिया गया ‘घटोत्कच्छ’ । राक्षसी पुत्र होने के कारण वह जन्म के समय ही बड़ा दिखाई दे रहा था । हिडिम्बा एक बार पुनः पाण्डव बन्धुओं के पास पहुंची और माता कुन्ती का आर्शीवाद लिया और घटोत्कच्छ को साथ लेकर वापिस चली आई, किन्तु वापसी से पहले घटोत्कच्छ ने अपने पिता भीम तथा अन्य पाण्डव पुत्रों को प्रणाम करते हुए उनका आर्शीवाद प्राप्त करने के बाद ये वचन, ये शपथ सभी के सामने कह सुनाए कि जब भी आपको मेरी सेवा की आवश्यकता होगी मैं आपके श्री चरणों में पहुंच जाउंगा और ऐसा हुआ भी ।
कुछ समय के पश्चात् भीष्म पितामह और विदूर के कारण पाण्डव पुत्रों को हस्तिनापुर बुला लिया गया और उन्हें इन्द्रप्रस्थ को राज्य सौंप दिया गया । इन्द्रप्रस्थ एक विरान पथरीली जगह थी, उसे अब पाण्डव पुत्रों को एक सुन्दर नगर में परिवर्तित करना था । अपना कर्तव्य जानकर घटोम्कच्छ अपने पिता महाबली भीम की शरण पहुंचे । सभी पाण्डव बन्धुओं ने उन्हें आर्शीवाद दिया । धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे हे वासुदेव, हे कृष्ण, हे माधव, भीम पुत्र कितना बड़ा हो गया है अब तो इसका विवाह हो ही जाना चाहिए । तब अपनी मनमोहनी मुस्कान अधरों पर लाते हुए कृष्ण कन्हैया कहने लगे हॉ धर्मराज, इसके विवाह का समय आ ही गया है । धर्मराज को यह कहकर, माधव ने घटोत्कच्छ से ये कहा- हे वता ! मनीपुर में मुर दैत्य नामक एक महाबलशाली दैत्य है । जिसकी पुत्री का नाम है ‘कामकन्टकटा’, वो बहुत विदुषी है, जो कोई भी उसके पास विवाह की इच्छा लेकर जाता है, वो उससे बहुत गूढ़ प्रश्न पूछती है । तुम सभी बड़ो का आर्शीवाद लेकर वहां जाओ, ईश्वर इच्छा है कि तुम उसके सभी प्रश्नों का उत्तर दे पाओगे । किन्तु विवाह की रीतियां वहां मत करना, उसे साथ लेकर यहां आ जाना । भगवान श्रीकृष्ण के वचन कभी मिथ्या तो हो ही लही सकते । घटोत्कच्छ जब मनीपुर पहुंचा तो कामकन्टकटा से उसका शास्त्रोर्थ हुआ और घटोम्कच्छ इन्द्रप्रस्थ आ पहुचे । वहां श्री वासुदेव की उपस्थिति में दोनो का विवाह हुआ । इसके पश्चात् आज्ञा प्राप्त करके घटोम्कच्छ उत्तर दिशा की तरफ चले गये । समय कभी रूकता नहीं । अपनी अबोध गति से बहता ही चला जाता है, व्यतीत होता ही चला जाता है और तब वो शुभ समय आया, जब सभी ग्रह बलशाली थे, तो कामकन्टकटा के गर्भ से महाप्रतापी, महाबलशाली, महाविद्वान, महामरमदय और महाधार्मिक बर्बरीक ने जन्म लिया ।
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