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Tuesday, March 9, 2010

देवनागरी क्यों नहीं

लिपि हीन भाषाओं के लिए देवनागरी क्यों नहीं
स्रोत ः डॉ अमरनाथ
नई दिल्ली
इस समय दक्षिण को छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत में हिंदी सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है और इस विस्तृत क्षेत्र की अधिकांश शिक्षित जनता देवनागरी लिपि से किसी न किसी अंश तक अवश्य परिचित है। इस विस्तृत क्षेत्र में बंगला, असमिया, उड़िया, पंजाबी, गुजराती, गुरुमुखी, कैथी, मैथिली, फारसी, सिंधी, कश्मीरी आदि अनेक लिपियां प्रचलित हैं। आज क्षेत्रीय भाषाओं और उसके साहित्य को समझने के लिए इतनी लिपियां सीख पाना किसी के लिए भी संभव नहीं हैं। ऐसी दशा में बुद्धिजीवियों और देश-प्रेमियों से मेरी गुजारिश है कि इस मुद्दे पर एक बार पुनः गंभीरतापूर्वक विचार करें और जिस तरह संस्कृत, मराठी, नेपाली, नेवाडी आदि भाषाओं के लिए देवनागरी का इस्तेमाल किया जा रहा है उसी तरह उक्त समस्त बहिन-भाषाओं के लिए उनकी प्रचलित लिपियों के साथ-साथ देवनागरी लिपि के व्यवहार का मार्ग भी प्रशस्त हो।
जहां तक उर्दू भाषा का सवाल है,मैं अब भी यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि उर्दू,हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा है। वस्तुतः वह
िन्दी की एक शैलीमात्र है। केवल अरबी-फारसी के शब्दों का अधिक इस्तेमाल कर लेने मात्र से उर्दू अलग भाषा नहीं बन सकती। फारसी लिपि के इस्तेमाल के कारण उसका अलग अस्तित्व बना हुआ है। फारसी एक विदेशी लिपि है जबकि उर्दू की शैली पूरी तरह भारत में विकसित हुई है और उसके लिए देवनागरी लिपि का इस्तेमाल ही न्याय संगत है।
हम अच्छी तरह जानते हैं कि उर्दू को अलग भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में अंग्रेजों की मुख्य भूमिका थी। ‘बांटो और राज्य करो‘ की नीति के तहत उर्दू को मुसलमानों की ज़बान के रूप में रेखांकित-प्रचारित किया गया और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा के रूप में। फोर्ट विलियम कॉलेज की भाषा नीति का मूल मकसद यही था, वर्ना, स्वतंत्र भाषा के अर्थ में 18वीं सदी के पूर्व ‘उर्दू‘ का प्रयोग नहीं मिलता है। विद्वानों ने ‘उर्दू‘ का भाषा के अर्थ में पहला प्रयोग मुसहफी के निम्नलिखित शेर में माना है-
‘खुदा रक्खे जबां हमने सुनी है मीर-ओ-मीरजा की,
कहें किस मुंह से हम ऐ मुसहफी उर्दू हमारी है।‘
मुसहफी का निधन सन् 1824 में हुआ था। ऐसी दशा में आजाद मुल्क के नागरिक के रूप में हमारा दायित्व है कि अंग्रेजों द्वारा हमारे फूट के लिए चलायी गई दुर्नीति को रोकें और हिन्दी-उर्दू की बनावटी दीवार को तोड़कर दोनों के लिए एक सामान्य लिपि अपना कर एक बनें और अपने जातीय साहित्य को समृद्ध करें। उर्दू-हिन्दी दोनों का साहित्य जब एक हो जाएगा तो हमारी साहित्यिक समृद्धि दुनिया के लिए एक मिसाल होगी और हमारे शब्द-भंडार का कोई मुकाबला नहीं होगा।
विभिन्न भाषा-भाषी कई राष्ट्र होते हुए भी यूरोप आज जिस एकता की ओर बढ़ रहा है उसके लिए उनकी सामान्य लिपि-रोमन-एकता की कड़ी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, जबकि रोमन के बारे में जो जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है, अंग्रेजी (रोमन) लिखने में अत्यंत तर्कहीन है क्योंकि कई असम्बद्ध ध्वनियां एक ही अक्षर से लिखी जाती हैं‘ इसके विपरीत देवनागरी में प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग ध्वनि संकेत हैं। नागरी संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक एवं यंत्रोपयोगी लिपि है। इसमें विश्व की किसी भी भाषा की प्रत्येक ध्वनि-संकेत को अंकित करने की क्षमता है। उसके इन्हीं गुणों पर मुग्ध होकर जॉन गिल क्राइस्ट ने कहा था,‘मानव के मस्तिस्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है।‘ और आइजक पिटमैंन ने कहा,‘ंसंसार में यदि कोई सर्वांगपूर्ण अक्षर है, तो देवनागरी के हैं।‘

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