Friday, October 22, 2010
शरद पूर्णिमा : चाँदनी रोशनी में खीर बनेगी अमृत
शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार में उत्सव का माहौल और पौराणिक मान्यताएँ। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बालरूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। आज भी इस खास रात का जश्न अधिकांश परिवारों में मनाया जाता है।
इसके महत्व और उल्लास के तौर-तरीकों को संबंध में ज्योतिषाचार्य प्रेमनारायण शास्त्री के अनुसार शरद पूनम का महत्व शास्त्रों में भी वर्णित है। वे बताते हैं कि इस रात्रि को चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं के साथ होता है और धरती पर अमृत वर्षा करता है। रात्रि 12 बजे होने वाली इस अमृत वर्षा का लाभ मानव को मिले इसी उद्देश्य से चंद्रोदय के वक्त गगन तले खीर या दूध रखा जाता है जिसका सेवन रात्रि 12 बजे बाद किया जाता है। मान्यता तो यह भी है कि इस तरह रोगी रोगमुक्त भी होता है। इसके अलावा खीर देवताओं का प्रिय भोजन भी है।
इस संबंध में स्मिता हार्डिकर बताती हैं कि उनके परिवार में शरद पूनम के दिन एक और जहाँ चंद्रमा की पूजा कर दूध का भोग लगाते हैं वहीं अनंत चतुर्दशी के दिन स्थापित गुलाबाई का विसर्जन भी किया जाता है। इस दिन परिवार के सबसे बड़े बच्चे की आरती उतारकर उसे उपहार भी दिया जाता है। शरद पूर्णिमा पर घर में कन्याओं को आमंत्रित कर गुलाबाई के गीत गाए जाते हैं।
प्राचीन काल से शरद पूर्णिमा को बेहद महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। शरद पूर्णिमा से हेमंत ऋतु की शुरुआत होती है। शरद पूर्णिमा पर चाँद अपनी पूर्ण कलाएँ लिए होता है। मान्यता है कि इस दिन केसरयुक्त दूध या खीर चाँदनी रोशनी में रखने से उसमें अमृत गिर जाता है। यह पर्व शुक्रवार को धूमधाम से मनाया जाएगा।
ज्योतिषाचार्य पं. जी.एम. हिंगे के अनुसार शरद पूर्णिमा को कोजागिरी पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन चंद्र भगवान की तथा भगवान भोलेनाथ की पूजा सायंकाल के समय करके केसरयुक्त दूध या खीर का भोग रात को लगाते हैं। इस दिन चंद्रमा अपने पूर्ण कलाएँ लिए होता है।
ऐसी मान्यता है कि चंद्रमा की सारी कलाएँ रात्रि के समय इस धरती पर बिखरती हैं, इसलिए रात्रि के समय दूध या खीर चंद्रमा को भोग के रूप में खिलाते हैं, जिससे चंद्रमा की अमृतमय किरणें इस खीर पर पड़ती हैं। इस खीर को पूजा-अर्चना व भजन-कीर्तन के बाद सभी लोगों में वितरण की जाती है। इस अमृतमय खीर पान से मनुष्य की उम्र बढ़ती है। इसके बाद से हेमंत ऋतु का प्रारंभ हो जाता है।
चामेलिका कुंडू बताती हैं कि शरद पूर्णिमा को कोजागौरी लोक्खी (देवी लक्ष्मी) की पूजा की जाती है। चाहे पूर्णिमा किसी भी वक्त प्रारंभ हो पर पूजा दोपहर 12 बजे बाद ही शुभ मुहूर्त में होती है। पूजा में लक्ष्मीजी की प्रतिमा के अलावा कलश, धूप, दुर्वा, कमल का पुष्प, हर्तकी, कौड़ी, आरी (छोटा सूपड़ा), धान, सिंदूर व नारियल के लड्डू प्रमुख होते हैं। जहाँ तक बात पूजन विधि की है तो इसमें रंगोली और उल्लू ध्वनि का विशेष स्थान है।
अनादिकाल से चली आ रही प्रथा का आज फिर निर्वाह किया जाएगा। स्वास्थ्य और अमृत्व की चाह में एक बार फिर खीर आदि को शरद-चंद्र की चाँदनी में रखा जाएगा और प्रसाद स्वरूप इसका सेवन किया जाएगा। शरद पूर्णिमा के अवसर पर मंदिरों में गरबा-डांडिया का आयोजन के बाद प्रसाद के रूप में खीर का वितरण होगा।
Monday, October 18, 2010
दुनिया की सबसे लंबी सुरंग स्विट्जरलैंड में
स्विट्जरलैंड एक छोटा-सा देश है। अपने 41 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ वह लगभग उतना ही बड़ा है, जितना भारतीय लद्दाख का आक्साई चिन इलाका, जिसे चीन ने दबा रखा है। हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं के बीच लद्दाख की ही तरह स्विट्जरलैंड भी यूरोप के सबसे ऊँचे आल्प्स पर्वतों की गोद में बसा है। उसने संसार की सबसे लंबी सुरंग बनाने का बीड़ा उठा रखा है।
लद्दाख लगभग सुनसान है, जबकि स्विट्ज़रलैंड बेहद सुंदर और गुँजान है। उसके अपनी जनसंख्या तो केवल 78 लाख (दिल्ली की आधी) ही है पर इससे कहीं ज्यादा विदेशी पर्यटक हर साल उसे आबाद करते हैं।
इसी बौने देश ने 25 साल पहले ठानी कि वह आल्प्स पर्वतों वाले गोटगार्ड दर्रे के पास 57 किलोमीटर लंबी संसार की सबसे लंबी सुरंग बनाएगा। यह इतनी बड़ी महत्वाकाँक्षी और खर्चीली परियोजना थी कि उसकी तुलना केवल स्वेज नहर और पनामा नहर के निर्माण जैसी चुनौतियों से ही की जा सकती थी। हर महत्वपूर्ण निर्णय से पहले स्विट्जरलैंड में जनमतसंग्रह द्वारा जनता की राय ली जाती है। सुरंग निर्माण से पहले भी ऐसा ही हुआ। जनता ने उस पर लगने वाली भारी लागत के बावजूद अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी।
सारे यूरोप में खुशी- 1997 में गोटहार्ड पहाड़ को तोड़ने और भारी-भरकम मशीनों से उसमें बोरिंग करने का काम शुरू हुआ। समय बचाने के लिए एक साथ पाँच अलग-अलग जगहों पर यह काम शुरू किया गया। गत 15 अक्टूबर को, भारतीय समय के अनुसार शाम पौने छह बजे, दो विपरीत दिशाओं से खुदाई कर रही मशीनों में से एक ने सुरंग के बीच के उस अंतिम डेड़ मीटर मोटे टुकड़े को भी तोड़ कर गिरा दिया, जो उसे तब तक दो भागों में बाँटे हुए था। सुरंग के आर-पार जाने का रास्ता अब साफ हो गया था।
स्विट्जरलैंड के टेलीविजन ने इस दृश्य का सीधा प्रसारण किया। केवल स्विट्जरलैंड में ही नहीं, सारे यूरोप में इस ऐतिहासिक क्षण पर खुशी मनायी गई। खुशी का एक कारण यह भी था कि यह सुरंग यूरोप के उत्तर में विश्व के एक सबसे बड़े बंदरगाह, हॉलैंड के रोटरडम को, रेलमार्ग के द्वारा दक्षिण में इटली के भूमध्यसागरीय बंदरगाह गेनुआ से जोड़ने की एक कहीं बड़ी यूरोपीय योजना का निर्णायक हिस्सा है। अब तक उस पर 18 अरब 70 करोड़ स्विस फ्रांक (लगभग 900 अरब रूपए) खर्च हो चुके हैं।
पहाड़ ने लोहे के चने चबवा दिए- रोबेर्ट मायर 11 वर्षों तक गोटहार्ड सुरंग के मुख्य निर्माण निदेशक रहे हैं। पिछले ही वर्ष सेवानिवृत्त हुए। सुरंग की डेढ़ मीटर मोटी अंतिम चट्टान टूटने के समय वे भी आमंत्रित थे। मायर बताते हैं कि पहाड़ से लड़ना कोई आसान काम नहीं है। गोटहार्ड ने हमें लोहे के चने चबवा दिए। कभी हमारे ऊपर पानी और कीचड़ उड़ेल दिया। कभी हमारी छेनियाँ उसकी दरारों में ही अटक गईं तो कभी अतिकठोर ग्रेनाइट चट्टानों से टकरा कर टूट गईं। संसार की हमारी सबसे बड़ी सुरंग कटाई मशीन भी कभी तो एक दिन में 20 मीटर तक आगे बढ़ गई, तो कभी एक मीटर भी आगे नहीं रेंग पाई।
इंजीनियरिंग का चमत्कार- "सिसी" नाम की यह मशीन भी अपने आप में एक इंजीनियरिंग-चमत्कार है। करीब 450 मीटर लंबी है। 3000 टन भारी है। बर्मे का काम करने वाले उसके मुखाग्र की 62 घूमती हुई छेनियों में से हर छेनी चट्टानों पर 25 टन का बोझ डालती हुई उन्हें छीलती, पीसती और काटती है। मुखाग्र अपने 10 मीटर व्यास और 5000 हॉर्सपावर बल के साथ जब चट्टानों से जूझता है, तब पूरा पहाड़ जैसे गुस्से से झंझनाने और थर्राने लगता है। उसने और दूसरी मशीनों ने पहाड़ को काट कर अब तक जो कंकड़-पत्थर निकाले हैं, उनका कुल वजन ढाई करोड़ टन है। यदि किसी एक ही मालगाड़ी को यह मलबा ढोना होता, तो उसकी लंबाई 6350 किलोमीटर होती। यानी, वह स्विट्ज़रलैंड में ज्यूरिच से लेकर अमेरिका में न्यू यॉर्क तक लंबी होती।
नई गोटहार्ड सुरंग का निर्माणकार्य पूरा होने में अभी सात साल और लगेंगे। अभी तो उसके भीतर रहते हुए केवल आर-पार आना-जाना ही संभव हो पाया है। अब उसकी छतों और दीवारों को लोहे की जालियों पर सीमेंट-कंक्रीट की परत चढ़ाकर पुख्ता करना होगा। बिजली के केबल और रेल पटरियाँ बिछानी होंगी। हवा के प्रवाह और तापमान नियंत्रण की प्रणालियाँ लगानी होंगी। यदि कभी आग लग गई या कोई दुर्घटना हो गई, तो उससे निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी व्यवस्थाएँ करनी होंगी।
2017 में होगा निर्माणकार्य पूरा- यह सारे काम जब पूरे हो जाएँगे, तब आशा है कि 2017 से नई गोटहार्ड सुरंग में यात्री और माल गाड़ियों का चलना भी शुरू हो जाएगा। तब, हर दिशा के लिए एक-एक, यानी कुल दो सुरंगें होंगी। कुछ निश्चित दूरियों पर उन्हें जोड़ने वाली 176 संपर्क सुरंगें अलग से होंगी। सुरंग प्रणाली की कुल लंबाई तब 152 किलोमीटर हो जाएगी।
ट्रेनों की औसत गति 200 और अधिकतम गति 270 किलोमाटर प्रतिघंटा होगी। औसत गति इस समय की अपेक्षा 80 किलोमीटर बढ़ जाने और इटली तथा स्विट्जरलैंड के बीच की दूरी 40 किलोमीटर घट जाने से ज्यूरिच से मिलान जाने में लगने वाला समय एक घंटा कम हो जाएगा, यानी 2 घंटे 40 मिनट ही रह जाएगा। अनुमान है कि तब हर दिन 300 गाड़ियाँ गोटहार्ड सुरंग से होकर गुजरेंगी। अधिकतर लंबी-लंबी मालगाड़ियाँ होंगी, जो इस समय की अपेक्षा दुगुनी, यानी 160 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से दौडेंगी और दुगुने माल की ढुलाई करेंगी।
बाऐँ सड़क सुरंग और पुरानी रेल सुरंग, दाएँ नई सुरंग- इटली और स्विट्जरलैंड के बीच के गोटहार्ड दर्रे को पार करने के उपाय लंबे समय से खोजे जाते रहे हैं। 1830 में वहाँ पहली बार एक सड़क बनी। 1882 में पहली रेलवे सुरंग बनाई गई। इस समय ट्रेनें इसी 128 साल पुरानी सुरंग से होकर आती-जाती हैं। 1980 में सड़क परिवहन के लिए 17 किलोमीटर लंबी एक अलग सुरंग बनकर तैयार हुई। हर साल कोई 60 लाख वाहन इस सड़क-सुरंग से गुजरते हैं। उन में से 12 लाख माल ढुलाई ट्रक होते हैं।
चिंता है पर्यावरणरक्षा की- सड़क परिवहन इस बुरी तरह बढ़ जाने और साथ ही पर्यावरण चेतना के कारण उसके प्रति जनविरोध भी प्रबल हो जाने से स्विट्जरलैंड की सरकार को दो नई सुरंगों वाली एक अलग योजना का सहारा लेना पड़ा। "आल्प्स अंतरपरिवहन के नये रेलमार्ग" (Neat) नाम की इस योजना के अधीन आल्प्स पर्वतों के आर-पार हो रहे सड़क परिवहन को रेलवे लाइन पर डालने के लिए गोटहार्ड के साथ-साथ एक और रेल सुरंग बनाई गयी है। लौएचबेर्ग नाम की दूसरी सुरंग इस बीच बन चुकी है।
सोचा यह गया है कि सड़क परिवहन वाले ट्रकों को भविष्य में रेलवे की मालगाड़ियों पर लाद कर आल्प्स पर्वत पार कराये जाएँ। इससे स्विट्जरलैंड की सड़कों पर हर दिन 3600 ट्रकों का बोझ और दमघोंट धुँआ घटेगा, पर्यावरण को कुछ राहत मिलेगी।
बहुत मामूली उठान और ढलान- ताकि भारी ट्रकों से लदी लंबी मालगाड़ियों को अधिक चढ़ाई न करनी पड़े और वे अपनी तेज गति बनाए रख सकें, गोटहार्ड सुरंग को पहाड़ के नीचे इतनी गहराई पर बनाया गया है कि गाड़ियों को एक किलोमीटर दूरी के भीतर आठ मीटर से अधिक ऊँची ढलान न पार करनी पड़े। सुरंग का उत्तरी छोर समुद्रतल से 460 मीटर की ऊँचाई पर और 57 किलोमीटर बाद दक्षिणी छोर 312 मीटर की ऊँचाई पर है। दोनो के बीच का सबसे ऊँचा स्थान समुद्रतल से केवल 549 मीटर की ऊँचाई पर है। सुरंग अपने ऊपर के सबसे ऊँचे पहाड़ से 2300 मीटर की गहराई पर है।
अनोखी चुनौतियाँ- गोटहार्ड सुरंग के निर्माण के 11 वर्षों तक मुख्य निदेशक रहे रोबेर्ट मायर बताते हैं कि पहाड़ के नीचे इतनी गहराई पर सही दिशाज्ञान एक बड़ी समस्या है। सुरंग खोदने का काम समय बचाने के लिए क्योंकि एक साथ कई जगहों पर दोनो दिशाओं से आगे बढ़ते हुए किया जाता है, इसलिए यह संभावना हमेशा बनी रहती है कि आप बीच में मिलने के बदले एक-दूसरे की बगल से, या ऊपर-नीचे से, निकल जाएँगे। यह सुरंग क्योंकि पहाड़ के नीचे करीब दो किलोमीटर की गहराई पर है, इसलिए यह जानने के लिए कि हम कहाँ हैं, हम वहाँ उपग्रह आधारित GPS नेविगेशन सिस्टम के सिग्नल भी नहीं पकड़ सकते थे। कुतुबनुमा वाला चुंबकीय दिशासूचक भी वहाँ साथ नहीं देता। इसलिए हमें एक विशेष कंपास और लेजर किरणों की मदद से पता लगाना पड़ता था कि हम कहाँ हैं।
यह विधि इतनी सटीक निकली कि 15 अक्टूबर को जब डेढ़ मीटर मोटी अंतिम दीवार गिरी, तब दोनो दिशाओं से आकर मिलने वाली सुरंगों के आड़े और खड़े निर्देशांकों (कोओर्डिनेट) वाली रेखाओं के कटान-बिंदुओं के बीच केवल एक-एक सेंटीमीटर का अंतर मिला।
सुरंग में भठ्ठी जैसी गर्मी- रोबेर्ट मायर के अनुसार पहाड़ के नीचे इस गहराई पर तापमान भी किसी भठ्ठी की तरह होता है। गोटहार्ड सुरंग के भीतर पंखों और एयरकूलरों की सहायता से 28 डिग्री सेल्सीयस का तापमान बनाए रखने की कोशिश की गई, वर्ना वह 40 डिग्री से भी अधिक हो जाता। हवा में 70 प्रतिशत आर्द्रता के कारण इतने ऊँचे तापमान पर काम करने में नानी याद आ जाती। रोबेर्ट मायर का यह भी कहना है कि "गोटहार्ड हमेशा एक पहेली बना रहेगा।" यह पहाड़ बड़ा छलिया है। कब आप के साथ कौन सा नया छल कर बैठे, किस अनुमान को झुठला कर रख दे, आप नहीं जान सकते।
इसीलिए, आज भी पक्के भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि 2017 से नई गोटहार्ड सुरंग में रेल गाड़ियाँ सचमुच दौड़ने लगेंगी। भरोसे के साथ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 57 किलोमीटर की उसकी लंबाई ने 1988 में जापान के होक्काइदो और होन्शू द्वीपों के बीच समुद्र के नीचे बनी 53.9 किलोमीटर लंबी संसार की अब तक की सबसे लंबी सुरंग को पीछे छोड़ दिया है। फ्रांस और इंग्लैंड को जोड़ने वाली 1993 में खुली चैनल सुरंग अब तीसरे नंबर पर पहुँच गई है। स्विट्जरलैंड ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि वह छोटा जरूर है, पर बड़ों से कम नहीं है।
लद्दाख लगभग सुनसान है, जबकि स्विट्ज़रलैंड बेहद सुंदर और गुँजान है। उसके अपनी जनसंख्या तो केवल 78 लाख (दिल्ली की आधी) ही है पर इससे कहीं ज्यादा विदेशी पर्यटक हर साल उसे आबाद करते हैं।
इसी बौने देश ने 25 साल पहले ठानी कि वह आल्प्स पर्वतों वाले गोटगार्ड दर्रे के पास 57 किलोमीटर लंबी संसार की सबसे लंबी सुरंग बनाएगा। यह इतनी बड़ी महत्वाकाँक्षी और खर्चीली परियोजना थी कि उसकी तुलना केवल स्वेज नहर और पनामा नहर के निर्माण जैसी चुनौतियों से ही की जा सकती थी। हर महत्वपूर्ण निर्णय से पहले स्विट्जरलैंड में जनमतसंग्रह द्वारा जनता की राय ली जाती है। सुरंग निर्माण से पहले भी ऐसा ही हुआ। जनता ने उस पर लगने वाली भारी लागत के बावजूद अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी।
सारे यूरोप में खुशी- 1997 में गोटहार्ड पहाड़ को तोड़ने और भारी-भरकम मशीनों से उसमें बोरिंग करने का काम शुरू हुआ। समय बचाने के लिए एक साथ पाँच अलग-अलग जगहों पर यह काम शुरू किया गया। गत 15 अक्टूबर को, भारतीय समय के अनुसार शाम पौने छह बजे, दो विपरीत दिशाओं से खुदाई कर रही मशीनों में से एक ने सुरंग के बीच के उस अंतिम डेड़ मीटर मोटे टुकड़े को भी तोड़ कर गिरा दिया, जो उसे तब तक दो भागों में बाँटे हुए था। सुरंग के आर-पार जाने का रास्ता अब साफ हो गया था।
स्विट्जरलैंड के टेलीविजन ने इस दृश्य का सीधा प्रसारण किया। केवल स्विट्जरलैंड में ही नहीं, सारे यूरोप में इस ऐतिहासिक क्षण पर खुशी मनायी गई। खुशी का एक कारण यह भी था कि यह सुरंग यूरोप के उत्तर में विश्व के एक सबसे बड़े बंदरगाह, हॉलैंड के रोटरडम को, रेलमार्ग के द्वारा दक्षिण में इटली के भूमध्यसागरीय बंदरगाह गेनुआ से जोड़ने की एक कहीं बड़ी यूरोपीय योजना का निर्णायक हिस्सा है। अब तक उस पर 18 अरब 70 करोड़ स्विस फ्रांक (लगभग 900 अरब रूपए) खर्च हो चुके हैं।
पहाड़ ने लोहे के चने चबवा दिए- रोबेर्ट मायर 11 वर्षों तक गोटहार्ड सुरंग के मुख्य निर्माण निदेशक रहे हैं। पिछले ही वर्ष सेवानिवृत्त हुए। सुरंग की डेढ़ मीटर मोटी अंतिम चट्टान टूटने के समय वे भी आमंत्रित थे। मायर बताते हैं कि पहाड़ से लड़ना कोई आसान काम नहीं है। गोटहार्ड ने हमें लोहे के चने चबवा दिए। कभी हमारे ऊपर पानी और कीचड़ उड़ेल दिया। कभी हमारी छेनियाँ उसकी दरारों में ही अटक गईं तो कभी अतिकठोर ग्रेनाइट चट्टानों से टकरा कर टूट गईं। संसार की हमारी सबसे बड़ी सुरंग कटाई मशीन भी कभी तो एक दिन में 20 मीटर तक आगे बढ़ गई, तो कभी एक मीटर भी आगे नहीं रेंग पाई।
इंजीनियरिंग का चमत्कार- "सिसी" नाम की यह मशीन भी अपने आप में एक इंजीनियरिंग-चमत्कार है। करीब 450 मीटर लंबी है। 3000 टन भारी है। बर्मे का काम करने वाले उसके मुखाग्र की 62 घूमती हुई छेनियों में से हर छेनी चट्टानों पर 25 टन का बोझ डालती हुई उन्हें छीलती, पीसती और काटती है। मुखाग्र अपने 10 मीटर व्यास और 5000 हॉर्सपावर बल के साथ जब चट्टानों से जूझता है, तब पूरा पहाड़ जैसे गुस्से से झंझनाने और थर्राने लगता है। उसने और दूसरी मशीनों ने पहाड़ को काट कर अब तक जो कंकड़-पत्थर निकाले हैं, उनका कुल वजन ढाई करोड़ टन है। यदि किसी एक ही मालगाड़ी को यह मलबा ढोना होता, तो उसकी लंबाई 6350 किलोमीटर होती। यानी, वह स्विट्ज़रलैंड में ज्यूरिच से लेकर अमेरिका में न्यू यॉर्क तक लंबी होती।
नई गोटहार्ड सुरंग का निर्माणकार्य पूरा होने में अभी सात साल और लगेंगे। अभी तो उसके भीतर रहते हुए केवल आर-पार आना-जाना ही संभव हो पाया है। अब उसकी छतों और दीवारों को लोहे की जालियों पर सीमेंट-कंक्रीट की परत चढ़ाकर पुख्ता करना होगा। बिजली के केबल और रेल पटरियाँ बिछानी होंगी। हवा के प्रवाह और तापमान नियंत्रण की प्रणालियाँ लगानी होंगी। यदि कभी आग लग गई या कोई दुर्घटना हो गई, तो उससे निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी व्यवस्थाएँ करनी होंगी।
2017 में होगा निर्माणकार्य पूरा- यह सारे काम जब पूरे हो जाएँगे, तब आशा है कि 2017 से नई गोटहार्ड सुरंग में यात्री और माल गाड़ियों का चलना भी शुरू हो जाएगा। तब, हर दिशा के लिए एक-एक, यानी कुल दो सुरंगें होंगी। कुछ निश्चित दूरियों पर उन्हें जोड़ने वाली 176 संपर्क सुरंगें अलग से होंगी। सुरंग प्रणाली की कुल लंबाई तब 152 किलोमीटर हो जाएगी।
ट्रेनों की औसत गति 200 और अधिकतम गति 270 किलोमाटर प्रतिघंटा होगी। औसत गति इस समय की अपेक्षा 80 किलोमीटर बढ़ जाने और इटली तथा स्विट्जरलैंड के बीच की दूरी 40 किलोमीटर घट जाने से ज्यूरिच से मिलान जाने में लगने वाला समय एक घंटा कम हो जाएगा, यानी 2 घंटे 40 मिनट ही रह जाएगा। अनुमान है कि तब हर दिन 300 गाड़ियाँ गोटहार्ड सुरंग से होकर गुजरेंगी। अधिकतर लंबी-लंबी मालगाड़ियाँ होंगी, जो इस समय की अपेक्षा दुगुनी, यानी 160 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से दौडेंगी और दुगुने माल की ढुलाई करेंगी।
बाऐँ सड़क सुरंग और पुरानी रेल सुरंग, दाएँ नई सुरंग- इटली और स्विट्जरलैंड के बीच के गोटहार्ड दर्रे को पार करने के उपाय लंबे समय से खोजे जाते रहे हैं। 1830 में वहाँ पहली बार एक सड़क बनी। 1882 में पहली रेलवे सुरंग बनाई गई। इस समय ट्रेनें इसी 128 साल पुरानी सुरंग से होकर आती-जाती हैं। 1980 में सड़क परिवहन के लिए 17 किलोमीटर लंबी एक अलग सुरंग बनकर तैयार हुई। हर साल कोई 60 लाख वाहन इस सड़क-सुरंग से गुजरते हैं। उन में से 12 लाख माल ढुलाई ट्रक होते हैं।
चिंता है पर्यावरणरक्षा की- सड़क परिवहन इस बुरी तरह बढ़ जाने और साथ ही पर्यावरण चेतना के कारण उसके प्रति जनविरोध भी प्रबल हो जाने से स्विट्जरलैंड की सरकार को दो नई सुरंगों वाली एक अलग योजना का सहारा लेना पड़ा। "आल्प्स अंतरपरिवहन के नये रेलमार्ग" (Neat) नाम की इस योजना के अधीन आल्प्स पर्वतों के आर-पार हो रहे सड़क परिवहन को रेलवे लाइन पर डालने के लिए गोटहार्ड के साथ-साथ एक और रेल सुरंग बनाई गयी है। लौएचबेर्ग नाम की दूसरी सुरंग इस बीच बन चुकी है।
सोचा यह गया है कि सड़क परिवहन वाले ट्रकों को भविष्य में रेलवे की मालगाड़ियों पर लाद कर आल्प्स पर्वत पार कराये जाएँ। इससे स्विट्जरलैंड की सड़कों पर हर दिन 3600 ट्रकों का बोझ और दमघोंट धुँआ घटेगा, पर्यावरण को कुछ राहत मिलेगी।
बहुत मामूली उठान और ढलान- ताकि भारी ट्रकों से लदी लंबी मालगाड़ियों को अधिक चढ़ाई न करनी पड़े और वे अपनी तेज गति बनाए रख सकें, गोटहार्ड सुरंग को पहाड़ के नीचे इतनी गहराई पर बनाया गया है कि गाड़ियों को एक किलोमीटर दूरी के भीतर आठ मीटर से अधिक ऊँची ढलान न पार करनी पड़े। सुरंग का उत्तरी छोर समुद्रतल से 460 मीटर की ऊँचाई पर और 57 किलोमीटर बाद दक्षिणी छोर 312 मीटर की ऊँचाई पर है। दोनो के बीच का सबसे ऊँचा स्थान समुद्रतल से केवल 549 मीटर की ऊँचाई पर है। सुरंग अपने ऊपर के सबसे ऊँचे पहाड़ से 2300 मीटर की गहराई पर है।
अनोखी चुनौतियाँ- गोटहार्ड सुरंग के निर्माण के 11 वर्षों तक मुख्य निदेशक रहे रोबेर्ट मायर बताते हैं कि पहाड़ के नीचे इतनी गहराई पर सही दिशाज्ञान एक बड़ी समस्या है। सुरंग खोदने का काम समय बचाने के लिए क्योंकि एक साथ कई जगहों पर दोनो दिशाओं से आगे बढ़ते हुए किया जाता है, इसलिए यह संभावना हमेशा बनी रहती है कि आप बीच में मिलने के बदले एक-दूसरे की बगल से, या ऊपर-नीचे से, निकल जाएँगे। यह सुरंग क्योंकि पहाड़ के नीचे करीब दो किलोमीटर की गहराई पर है, इसलिए यह जानने के लिए कि हम कहाँ हैं, हम वहाँ उपग्रह आधारित GPS नेविगेशन सिस्टम के सिग्नल भी नहीं पकड़ सकते थे। कुतुबनुमा वाला चुंबकीय दिशासूचक भी वहाँ साथ नहीं देता। इसलिए हमें एक विशेष कंपास और लेजर किरणों की मदद से पता लगाना पड़ता था कि हम कहाँ हैं।
यह विधि इतनी सटीक निकली कि 15 अक्टूबर को जब डेढ़ मीटर मोटी अंतिम दीवार गिरी, तब दोनो दिशाओं से आकर मिलने वाली सुरंगों के आड़े और खड़े निर्देशांकों (कोओर्डिनेट) वाली रेखाओं के कटान-बिंदुओं के बीच केवल एक-एक सेंटीमीटर का अंतर मिला।
सुरंग में भठ्ठी जैसी गर्मी- रोबेर्ट मायर के अनुसार पहाड़ के नीचे इस गहराई पर तापमान भी किसी भठ्ठी की तरह होता है। गोटहार्ड सुरंग के भीतर पंखों और एयरकूलरों की सहायता से 28 डिग्री सेल्सीयस का तापमान बनाए रखने की कोशिश की गई, वर्ना वह 40 डिग्री से भी अधिक हो जाता। हवा में 70 प्रतिशत आर्द्रता के कारण इतने ऊँचे तापमान पर काम करने में नानी याद आ जाती। रोबेर्ट मायर का यह भी कहना है कि "गोटहार्ड हमेशा एक पहेली बना रहेगा।" यह पहाड़ बड़ा छलिया है। कब आप के साथ कौन सा नया छल कर बैठे, किस अनुमान को झुठला कर रख दे, आप नहीं जान सकते।
इसीलिए, आज भी पक्के भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि 2017 से नई गोटहार्ड सुरंग में रेल गाड़ियाँ सचमुच दौड़ने लगेंगी। भरोसे के साथ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 57 किलोमीटर की उसकी लंबाई ने 1988 में जापान के होक्काइदो और होन्शू द्वीपों के बीच समुद्र के नीचे बनी 53.9 किलोमीटर लंबी संसार की अब तक की सबसे लंबी सुरंग को पीछे छोड़ दिया है। फ्रांस और इंग्लैंड को जोड़ने वाली 1993 में खुली चैनल सुरंग अब तीसरे नंबर पर पहुँच गई है। स्विट्जरलैंड ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि वह छोटा जरूर है, पर बड़ों से कम नहीं है।
Sunday, October 3, 2010
गेम्स के दौरान पाँच ग्लैमर गर्ल रहेंगी सभी के आकर्षण का केन्द्र
दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में देशभर की उम्मीदें अपनी पाँच महिला खिलाडिय़ों बैडमिंटन स्टार साइना नेहवाल, उनकी साथी खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा, देश की पहली महिला विश्व चैंपियन निशानेबाज तेजस्विनी सावंत, टेनिस परी सानिया मिर्जा और स्क्वॉश की नवोदित स्टार दीपिका पल्लीकल पर बहुत कुछ निर्भर होंगी।
बैडमिंटन में विश्व की तीसरे नंबर की खिलाड़ी साइना नेहवाल स्वर्ण पदक की शर्तिया दावेदार हैं। हाल में साइना ने लाजवाब खेल दिखाया है और विश्व रैंकिंग में लगातार सुधार भी किया है। उन्होंने कुछ माह पहले लगातार तीन सुपर सिरीज खिताब जीतकर दुनिया भर में अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी। विश्व चैंपियनशिप में हालांकि इस हैदराबादी बाला को निराशा हाथ लगी थी लेकिन वह इससे उबरकर शानदार प्रदर्शन के लिए तैयार हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में मिलने वाली चुनौतियों से भली भांति वाकिफ साइना ने विश्वास व्यक्त किया है कि वह इन खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगी।
साइना और अन्य महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हैदराबाद की ही ज्वाला गुट्टा को क्रमश: एकल और युगल मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीतने का दावेदार माना जा रहा है। सात बार राष्ट्रीय युगल चैंपियंन रह चुकी ज्वाला ने तो कहा है कि वह देश के लिए कम से कम दो स्वर्ण जरूर झटकेंगी।
निशानेबाजी के क्षितिज पर पुरुष वर्चस्व को तोड़ते हुए अचानक उभरी महिला विश्व चैंपियन तेजस्विनी सावंत से इस बार सबको उम्मीदें बंधी हैं। देशवासी तो क्या तेजस्विनी के प्रतिद्वंद्वी उनका लोहा मान रहे हैं।
पुणे की तेजस्विनी ने गत माह म्यूनिख में संपन्न विश्व चैंपियनशिप में 600 में से 597 का स्कोर कर इस प्रतियोगिता में स्वर्ण जीतने वाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त किया था। इसके अलावा उन्होंने महिला निशानेबाजी में विश्व रिकॉर्ड भी कायम किया था। टेनिस में हैदराबादी बाला सानिया मिर्जा से पदक की उम्मीद की जा रही है। लंबे समय तक आउट ऑफ फार्म रही सानिया ने हाल में अच्छी वापसी की है।
घरेलू माहौल में और अपेक्षाकृत आसान प्रतिद्वंद्वियों के सामने उनके लिए यह पदक जीतने का बेहतरीन मौका है। वर्ष 2009 में महेश भूपति के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलियन ओपन का मिश्रित युगल जीतने वाली सानिया से एकल और युगल दोनों मुकाबलों में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है।
स्क्वॉश में दीपिका पल्लीकल ने विश्व चैंपियनशिप में अच्छा प्रदर्शन कर भारत की उम्मीदें बढ़ाई हैं। यूरोपीय और एशियाई स्क्वॉश रैंकिंग में शीर्ष स्थान पाने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी चेन्नई की दीपिका अपने नाम कई खिताब कर चुकी हैं। इस कड़ी में राष्ट्रमंडल खेलों का स्वर्णिम नगीना वह जड़ पाएँ तो उनके और देशवासियों के लिए इससे बड़ी खुशी क्या होगी।
उपरोक्त पाँच सितारों के अलावा महिलाओं में तीरंदाज डोला बनर्जी, दीपिका कुमारी और बोम्बाल्या देवी से भी पदक उम्मीदें हैं। महिला हॉकी टीम पिछले दो खेलों में पदक हासिल कर चुकी है और इस बार भी इन खेलों में पदक जीतने की दावेदार रहेगी।
दुनिया की टॉप 50 रैंकिंग में शुमार देश की एकमात्र महिला जिमनास्ट दीपा करमाकर यदि कामयाबी हासिल कर लें तो यह सोने पर सुहागे जैसा होगा। इसके अलावा बैडमिंटन में अपर्णा बालन, स्क्वॉश में जोशना चिनप्पा, भारोत्तोलन में सोनिया चानू, मोनिका देवी. हॉकी में रानी रामपाल और सबा अंजुम जैसी खिलाडिय़ों से भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें हैं।
खेल के दौरान वेश्यावृत्ति का खतरा
एस्कॉर्ट सेवाएँ उपलब्ध कराने वाली एक एजेंसी ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए पूर्वोत्तर भारत की हजारों महिलाओं को नियुक्त किया है। बड़ी संख्या में लड़कियों और महिलाओं की नियुक्ति पर 'इंपल्स' नाम के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ने संदेह जताया है।
'इंपल्स' ने आशंका जताई है कि इन महिलाओं और लड़कियों को वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दिया जाएगा। एनजीओ के मुताबिक इस एजेंसी ने पूर्वोत्तर के सात पहाड़ी राज्यों से करीब 40 हजार महिलाओं और युवतियों को अच्छी तनख्वाह का प्रलोभन देकर नियुक्त किया है।
अच्छी नौकरी का वादा : इस तरह की नियुक्तियों के लिए इस एस्कॉर्ट एजेंसी ने अखबार में विज्ञापन दिया था। पूर्वोत्तर भारत में महिलाओं की खरीद-फरोख्त के खिलाफ काम करने वाले 'इंपल्स' की अध्यक्ष हसीना खरबीह कहती हैं, 'राष्ट्रमंडल खेलों के लिए पूर्वोत्तर की इन महिलाओं की नियुक्ति पर बारीकी से नजर रखी जा रही है।'
वे कहती हैं, 'वास्तव में हम अपनी लड़कियों को लेकर बहुत चिंतित हैं, क्योंकि उनमें से बहुतों को एस्कॉर्ट सेवाओं के नियुक्त किया गया है। उन्हें अच्छी तनख्वाह और नौकरी दिलाने का वादा किया गया है।'
मेघालय के समाज कल्याण मंत्री जेबी लिंगदोह इस समस्या से काफी चिंतित हैं। वे कहते हैं, 'ये केवल मेघालय की लड़िकयाँ नहीं हैं बल्कि पूर्वोत्तर के सभी राज्यों से बड़ी संख्या में लड़कियों को नियुक्त किया गया है। हमारे पासे इनके आँकड़े तो नहीं है, लेकिन हमारे चिंतित होने का कारण है।'
उन्होंने बताया कि हमने लोगों से इस पर नजर रखने को कहा है। दिल्ली के एक एनजीओ 'दी नार्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन' का कहना है कि एस्कॉर्ट सेवाओं के लिए पूर्वोत्तर की लड़िकियों का इतने बड़े पैमाने पर चयन चिंता का विषय है।
हेल्पलाइन की मधु चंदर कहती हैं, 'खेलों के लिए पूर्वोत्तर भारत की हजारों लड़कियों को संदिग्ध प्लेसमेंट एजेंसियों ने नियुक्त किया है। इससे हम बहुत चिंतित हैं। हमें डर है कि वे गलत हाथों में जा सकती हैं।'
रविवार से शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों के टिकटों के बिक्री की रफ्तार काफी कम है। ऐसा अनुमान है कि इस दौरान हजारों पर्यटक दिल्ली आएँगे। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हुई पुलिस जाँच में पता चला है कि पिछले दशक में 15 हजार से अधिक युवतियाँ और महिलाएँ गायब हुई हैं।
पुलिस का कहना है कि इन युवतियों को अच्छी नौकरी का लालच दिया गया था, लेकिन वे वापस अपने घर नहीं लौटीं। इनमें से कुछ को पुलिस ने बचा लिया और 'इंपल्स' जैसे एनजीओ ने उनका पुनर्वास कराया।
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