Monday, November 1, 2010
मोक्ष के लिए बर्लिन से हरिद्वार
हर की पौडी में गंगा के तट पर चार साल का एक नन्हा बालक अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित कर रहा है। पिता की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना के साथ। पंडित संस्कार करा रहे हैं और निकट ही आँखों में आँसू लिए उसकी माँ और कुछ परिजन भी हैं। किसी हिंदू परिवार के लिए मत्यु के बाद ये जरूरी संस्कार है लेकिन यहाँ दिलचस्प ये है कि ये बालक हिंदू नहीं जर्मन है।
जी हाँ, सात समंदर पार से ये परिवार गंगा और हिंदू रीति-रिवाज में अपनी आस्था और विश्वास के कारण ही जर्मनी से भारत आया है। जर्मनी के बर्लिन शहर की रहनेवाली मेस्टर बूर के पति का निधन पिछले महीने हो गया था। वो कैंसर से पीड़ित थे और सिर्फ 40 वर्ष के थे और मेस्टर के अनुसार प्राच्य दर्शन से प्रभावित थे और हिंदू संस्कारों का अक्सर जिक्र किया करते थे।
आस्था : उनके निधन के बाद मेस्टर को लगा कि गंगा में अपने पति की अस्थियाँ विसर्जित करके ही वो उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएँगी। इसलिए उन्होंने हरिद्वार आने का फैसला किया। मेस्टर बूर की खुद भी भारतीय दर्शन और धार्मिक चिंतन में गहरी आस्था है। मेस्टर कहती हैं, 'मेरे पति को मौत से पहले काफी कष्ट सहना पड़ा और मैं चाहती थी कि उनकी आत्मा सारे कष्टों से मुक्त हो जाए इसलिए मैं गंगा की शरण में आई। मैंने यहाँ हिंदू पुरोहितों से बात की और उन्होंने मुझे ये संस्कार करने की सलाह दी।'
मुझे बताया गया कि ये संस्कार बेटे के हाथ से ही होना चाहिए इसलिए मैं अपने बेटे को लेकर यहाँ आई। मेस्टर बूर के लिए ये एक भाव विह्वल कर देने वाला क्षण था और उनके चेहरे पर असीम संतोष के भाव थे। हिंदू संस्कारों के प्रति मेस्टर का आग्रह इतना ज्यादा है कि उन्होंने ईसाई होने के बावजूद अपने पति का दाह संस्कार करवाया उनके शरीर को दफनाया नहीं।
हरिद्वार में उनका संस्कार कराने वाले प्राच्य विद्या सोसायटी के अध्यक्ष प्रतीक मिश्रपुरी कहते हैं, 'विदेशी तो हमारी संस्कति के प्रति समर्पित हो रहे हैं। वो इनका महत्व समझ रहे हैं, लेकिन खुद भारतीय अपने संस्कारों से विमुख हो रहे हैं।' हिंदू वैवाहिक परंपरा के प्रति विदेशियों का आकर्षण नई बात नहीं है, लेकिन हिंदू तरीके से अंतिम संस्कार कराना विरल घटना है। लिहाजा हरिद्वार के पुरोहित समाज में तो ये सुर्खियों में है ही आम लोगों में भी इसकी खूब चर्चा है।
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